वो तो भला हो बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का जिन्होंने जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक कर 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में जनता की थोड़ी दिलचस्पी पैदा कर दी,नहीं तो चुनाव बड़े नेताओं की रैलियों भाषणों और सरकारी इश्तिहारों में सिमटकर उबाऊ हुए जा रहे थे.

जातिगत जनगणना हालांकि प्रादेशिक मुद्दा नहीं है लेकिन वोटर पर गहरे तक असर डाल रहा है, जो बारीकी से देख रहा है कि इस मसले पर कौन सा दल क्या रुख अपना रहा है. भाजपा पर सवर्णों की पार्टी होने का ठप्पा और गहराना इन राज्यों में उसे नुकसान पहुंचा रहा है तो जाहिर हैं इंडिया गठबंधन ने तगड़ी रिसर्च के बाद ही यह चाल चली है.

तेलांगना और मिजोरम छोड़ कर बाकी तीनों राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है.साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने ये तीनों ही राज्य भाजपा से छीन लिए थे लेकिन इसकेबाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने फिर बढ़त बना ली थी. इससे यह तो साबित होता है कि मतदाता के पास वोट डालने के राष्ट्रीय अलगऔर प्रादेशिक मुद्दे अलग होते हैं.प्रदेश सरकार का कामकाज और मुख्यमंत्री की इमेज विधानसभा चुनाव में अहम रोल निभाते हैं.

इस बार भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी का चेहरा आगे कर चुनाव को मोदी बनाम गांधी बनाने का फैसला लिया है जिसमें वह चाहकर भी कामयाब नहीं हो पा रही है क्योंकि हर कोई जानता है कि चुना मुख्यमंत्री जाना है इसलिए उसकी चुनाव पूर्व यात्राओं को खास रिस्पांस नहीं मिला. वोटर को यह एहसास है किनरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तो चुनावी रैलियों के बाद लोकसभा चुनाव में व्यस्त हो जाएंगे. अपनी चुनी सरकार के जिम्मेदार तो हम ही होंगे तो हम क्यों धरमकरम राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के नाम पर वोट डालें. यह फैसला भाजपा को महंगा पड़ रहा है क्योंकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता विरोधी लहर क्रमश 30 और 20 फीसदी के लगभग ही है जबकि मध्यप्रदेश में 60 फीसदी से भी ज्यादा हैजहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेकर खासी नाराजी है जिससे खुद भाजपा चुनाव प्रचार के दौरान ही लड़खड़ाती नजर आ रही है.

अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों पर दांव न खेलने की नीति से भगवा खेमे में हताशा है और बाहरी और अंदरूनी भितरघात भी उसकी परेशानियां हैं. कार्यकर्ताओं में भी पहले जैसा जोश नहीं दिख रहा है. इन कमियों और खामियों को मोदी नाम के मास्क से ढकने की कोशिश कामयाब होगी इसमें शक है, क्योंकि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता दोनों में 10 साल में गिरावट आई है. उनके भाषणों की एक सी स्टाइल और रटीरटाई बातों से लोग उबने लगे हैं क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते जनता नया कुछ सुनना चाहती है.

इन राज्यों के लगातार चुनावी दौरों से भी नरेंद्र मोदी की साख गिर रही है. ड्राइंग रूम में बैठी महिलाएं भी अगर कभी न्यूजचैनल खोल लेती हैं तो उन्हें देखकर यह कहने से नहीं चूकतीं कि महंगाई तो बढ़ेगी ही जब बेतहाशा खर्च प्रचार पर होगा तो.

कांग्रेस ने अपने प्रादेशिक क्षत्रपों पर ही भरोसा जताकर बुद्धिमानी का काम किया है कि जनता चाहे तो मौजूदा सरकारों और मुख्यमंत्री के नाम पर वोट दे और चाहे तो गांधी परिवार के नाम पर वोट दे दे. आइए देखें किस राज्य में चुनावी माहौल और तस्वीर कैसी है.

मध्यप्रदेश:बहुत स्पष्ट है संदेश

सीट – 230

2018

कांग्रेस – 114 ( 40.89 )

भाजपा – 109 ( 41.02 )

बसपा –   2 ( 1.29 )

2013

भाजपा – 165 ( 44.88 )

कांग्रेस    58 ( 36.38 )

बसपा –   4  ( 6.29 )

साल 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा के इस गढ़ में सेंधमारी कर 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उम्मीद जताई थी कि नरेंद्र मोदी का जादू उतर रहा है लेकिन नतीजे हर किसी की उम्मीद के उलट थे, जिसकी इकलौती वजह थी पुलवामा की एयर स्ट्राइक, जिसकी लहर पूरी हिंदी पट्टी में चली थी.

यानी यह डेढ़ साल वाली कमलनाथ सरकार के कामकाज का मुल्यांकन नहीं था. इसके बाद एक नाटकीय घटनाक्रम में चम्बल इलाके के दिग्गज कांग्रसी ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक विधायकों सहित भाजपा में शामिल हो गए थे, जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई थी. 2021 के उपचुनाव में भाजपा ने 28 में से 19 सीटें जीतकर सरकार बना ली थी और शिवराज सिंह चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बने थे.

अब पांचवी बार भी वे मुख्यमंत्री बन पाएंगे इसकी कोई वजह दूरदूर तक नहीं आती. वह केवल इसलिए नहीं कि आलाकमान यानी मोदीशाह ने उनकी अनदेखी करते बतौर सीएम पेश करने काबिल नहीं समझा बल्कि इसलिए भी कि जनता भी उनसे नाखुश है.

ज्योतिरादित्य सिंधिया की बेईमानी से बनी सरकार को कांग्रेसी नाजायज सरकार कहते हैं तो शिवराज सिंह तिलमिला उठते हैं जबकि प्रदेश की कमान संभालने के बाद खुद को साबित करने उनके पास मुकम्मल वक्त था लेकिन इस दौरान वे बजाय जमीनी काम करने के शो बाजी और सार्वजनिक रूप से धर्म कर्म करने में लगे रहे. इससे जनता कब की उकता चुकी है यह उन्हें बताने वाला कोई नहीं था.

इसमें कोई शक नहीं कि 2013 तक लोग उन्हें पसंद करते थे लेकिन पिछले चुनाव में जनता ने उन्हें चलता कर दिया था क्योंकि शिवराज सिंह आत्ममुग्धता के शिकार हो चले थे. प्रदेश में बढ़ते भ्रष्टाचार और बाबूशाही से भी जनता आजिज आ गई थी जो लगातार बेकाबू हो गई तो मुख्यमंत्री बदलने की मांग उठने लगी. आलाकमान संगठन पर उनके प्रभाव और पिछली सेवाओं के चलते उन्हें हटा नहीं पाया क्योंकि उसे डर फूट्मफाट का था.दूसरी तरफ मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने आधा दर्जन नेता उधार बैठे थे लिहाजा उसे बेहतर यही लगा कि शिवराज सिंह को ही रहने दिया जाए.

कर्नाटक के नतीजे के बाद आलाकमान चौकन्ना हुआ पर तब तक नर्मदा का बहुत सा पानी वह चुका था इसलिए मोदीशाह की जोड़ी ने तोड़ यह निकाला कि जितने भी दिग्गज दावेदार हैं उन सभी को विधानसभा चुनाव लड़ा दिया जाए. इससे संतुलन भी बना रहेगा, पार्टी की हालत भी सुधरेगी और शिवराज सिंह की दावेदारी खुदवखुद खारिज हो जाएगी. समझदार होंगे तो इशारा समझ जाएंगे,लिहाजा एक चौंका देने वाले फैसले में 3 केंद्रीय मंत्रियों और 4 सांसदों को विधानसभा टिकट दे दिए, इनमें नरेंद्र सिंह तोमर प्रह्लाद पटेल कैलाश विजयवर्गीय के नाम खास हैं.ये सभी मुख्यमंत्री पद के बराबरी से दावेदार हैं.

मुद्दत से केंद्र की राजनीति करते ये नेता अपने डिमोशन से अब दुखी और हैरान परेशान हैं कि शिवराज सिंह के साथसाथ तो हमारे भी पर कुतर दिए गए. अब फिर इस उम्र में जनता के बीच जाकर उसके हाथपांव जोड़ने पड़ेंगे जबकि आदत तो राजाओं सरीखे रहने की पड़ गई है. इस पर भी खुदा न खास्ता अगर हार गए तो राजनैतिक जीवन खत्म.

इस फैसले से भाजपा को फायदा तो कोई होता नहीं दिख रहा, उलटे उसकी छीछलेदार तबियत से हुई. शिवराज सिंह के गृह नगर विदिशा से वायरल हुई एक पोस्ट पर लोगों ने खूब मजे लिए जिसमें कहा गया था कि भाजपा को अगर गारेंटेड जीत चाहिए तो अच्छा तो यह होगा कि विदिशा से नरेंद्र मोदी, गंज बासौदा से अमित शाह, सिरोंज से जेपी नड्डा और शमशाबाद सीट से राजनाथ सिंह चुनाव लड़ लें.

शिवराज सिंह ने भी आलाकमान से सीधे टकराने के बजाय खुद की ब्रांडिंग का तरीका चुना और 45 दिनों में ही बेरहमी से अरबों रूपए विज्ञापनों पर फूंक दिए. टीवी और अखबारों के सरकारी विज्ञापनों से संदेश यह गया कि शिवराज सिंह हमारे भले का कुछ नहीं कर पाए तो जनता का पैसा प्रचार में बर्बाद कर प्रदेश को और कंगाल कर रहे हैं क्योंकि प्रदेश सरकार पहले से ही खरबों के कर्ज में डूबी हुई है.जाहिर है खुद मुख्यमंत्री ने जनता को नाराज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

चुनाव के ठीक पहले शुरू की गई लाडली बहना योजना जिसे मास्टर स्ट्रोक कहकर प्रचारित किया गया से हर महीने एक हजार रूपए लेने वाली सभी सवा करोड़ महिलाएं खुश नहीं हैं और इसे चुनावी टोटका और शिगूफा करार दे रही हैं.इसके बाद भी भाजपा को इससे थोड़ाबहुत लाभ होगा. लेकिन वह नैय्या पार लगाने बाला होगा इसमें शक है क्योंकि सवर्ण और नौकरीपेशा महिलाएं इससे यह कहते नाखुश हैं कि हजार रूपए महीने से किसी की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकती. इससे महंगाई और बढ़ेगी और यह पैसा सरकार कमा या कहीं से पैदा नहीं कर रही है यह तो हमारे टैक्स का है.

दलित आदिवासी और मुसलमान तो भाजपा से मुंह मोड़े बैठे ही हैं पर संपन्न पिछड़ों का साथ उसे मिला हुआ है लेकिन ये कुल 50 फीसदी पिछड़ों का एक चौथाई यानी 12.5 फीसदी भी नहीं हैं. आचार संहिता लागू होने के डेढ़ महीने पहले से शिवराजसिंह ने ताबड़तोड़ घोषणाएं की लेकिन उनका कोई भरोसा नहीं कर रहा क्योंकि उनका पूरा हो पानाअसंभव है और वह भी इस शर्त पर कि आप इसके लिए भाजपा और शिवराज को ही चुनें.

इस स्थिति पर वह कहावत लागू होती है कि आप अपना मूल्याकंन इस आधार पर करते हैं कि आप क्या कर सकते हैं जबकि दुनिया इस बिना पर करती है कि आपने अब तक क्या किया.राजनैतिक विश्लेषकों से पहले आम जनता यह कहने लगी है कि इतनी अलोकप्रियता आज तक किसी मुख्यमंत्रीयहां तक कि दिगविजय सिंह के हिस्से में भी नहीं आई थी.

दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी वापसी को लेकर आश्वस्त है. उसे भरोसा है कि एंटीइनकम्बेंसी का फायदा उसे मिलेगा और शख्सियत के पैमाने पर भी कमलनाथ शिवराज सिंह पर भारी पड़ते हैं. कमलनाथ हालांकि लोगों की बहुत बड़ी पसंद नहीं हैं लेकिन जैसे भी हैं उनके नाम पर माहौल बन रहा है क्योंकि कांग्रेस में कोई और दमदार चेहरा है भी नहीं.

इस दफा पूर्व मुख्यमंत्री दिगविजय सिंह ने भी कमलनाथ के सामने हथियार डाल दिए हैं. इसके पीछे त्याग या निष्ठा कम भविष्य के लिए अपने बेटे जयवर्धन सिंह को प्रदेश में जमाने की हसरत ज्यादा है. वैसे भी कांग्रेस में होता वही है जो सोनिया राहुलगांधी फरमान जारी कर देती हैं. कमलनाथ जबतब शिवराज पर तीखे तंज कसकर जनता का गुस्सा उनके प्रति और बढ़ा देते हैं, जिसमें दिग्विजय सिंह सहित सारे कांग्रेसी हा में हां मिलाते रहते हैं. तंज शिवराज सिंह भी कमलनाथ पर खूब कसते हैं लेकिन जनता इसे उनकी खीझ समझ खारिज कर देती है.दिग्गज कांग्रेसी रणदीप सिंह सुरजेवाला के भाजपा पर तार्किक और तीखे हमले युवाओं का ध्यान कांग्रेस की तरफ खींचने में कामयाब हो रहे हैं.

प्रदेश में बसपा अपनी जमीन लगातार खो रही है. इस बार तो उसका खाता खुलना ही उसके लिए बड़ी उपलब्धि होगी. आम आदमी पार्टी भी कुछ खास करने की स्थिति में नहीं है. समाजवादी पार्टी विन्ध्य इलाके की 2-4 सीटों पर 5-10 हजार वोट ले जाएगी और कोई दल उलटफेर करने की हालत में नहीं है जिसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा लेकिन बड़ा फायदा राहुल और प्रियंका गांधी की सभाओं में उमड़ती भीड़ का उसे 2018 के चुनाव की तरह मिलेगा.

राजस्थान – पक्का नहीं स्थान

सीट 200

2018

कांग्रेस – 100 ( 39.3 )

भाजपा – 73 ( 38.77 )

बसपा –   6 ( 4.03 )

आरएलपी  3 ( 2.40 )

निर्दलीय   13 ( 9.47 )

2013

भाजपा – 163 ( 45.2 )

कांग्रेस  –  21  ( 33.1 )

बसपा –  3 ( 3.4 )

नेशनल पीपुल्स पार्टी – 4 ( 4.3 )

निर्दलीय – 7 ( 6.8 )

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुकाबले कांग्रेस राजस्थान में ज्यादा दिक्कतों और चुनौतियों का सामना कर रही है क्योंकि लम्बे समय तक सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच गहरी तनातनी रही.3 बार तो लगा कि सरकार अब गई कि अब गई.

2018 में मध्यप्रदेश की तरह यहां के वोटर ने भी कांग्रेस को बाउंड्री पर ही रखा था. अशोक गहलोत जब मुख्यमंत्री बने थे तब उनके सामने प्राथमिकता जनता कम सचिन पायलट ज्यादा थे कि इन्हें कैसे साधा जाए. हालांकि पिछले 6 महीने से कांग्रेस के लिहाज से सब कुछ ठीकठाक है और अशोक गहलोत डेमेज कंट्रोल में लगे हैं पर जनता पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि सत्ता मिलते ही फिर कांग्रेसी कुनबे में कलह नहीं होगी.

इसी दिक्कत का सामना भाजपा भी कर रही है जो यहां भी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ रही है. वसुंधरा राजे सिंधिया को साइड लाइन करने का थोड़ा ही सही खामियाजा तो भाजपा को भुगतना पड़ेगा.वसुंधरा राजे ने भी अपनी तरफ से 5 साल सुस्ती ही दिखाई जनता के भले के लिए गहलोत सरकार को वे मुंह जुबानी ही घेरती रहीं, जमीनी तौर पर कुछ नहीं किया. वे शायद यह मानकर चल रही थीं कि हर 5 साल में सरकार बदलने का रिवाज कायम रहेगा और सीएम की कुर्सी उन्हें बैठे बिठाए मिल जाएगी. उनका राजसी दंभ टूटा तो भाजपा की तरफ से दर्जनभर दावेदार मुख्यमंत्री पद के पैदा हो गए हैं जिन में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत और अर्जुन राम मेघवाल सहित प्रदेश अध्यक्ष सतीश पुनिया के नाम प्रमुख हैं लेकिन इनमें से कोई भी वसुंधरा राजे जितना वजनदार नाम नहीं है और सब एकदूसरे की टांग खिंचाई में लगे हैं.

पायलट की वजह से दिक्कत में पड़ते नजर आ रहे अशोक गहलोत अब थोड़े सुकून में हैं. जातिगत जनगणना की घोषणा कर उन्होंने राजस्थान में हलचल पैदा कर दी है क्योंकि लम्बे वक्त से यह मांग प्रदेश से उठती रही है जिसे पूरा करने का श्रेय वे ले गए हैं तो जाहिर है इसका फायदा भी कांग्रेस उठाएगी.

दूसरे राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का भी फायदा गहलोत सरकार को मिलेगा लेकिन वह 100 का आंकड़ा पार कर ही जाएगा यह कह पाना मुश्किल है. इसके लिए कांग्रेस को अभी और पसीना बहाना पड़ेगा क्योंकि यहांथोड़ा बहुत प्रभाव बसपा और नेशनल पीपुल्स पार्टी का भी है. खासे वोट इस दौर में भी कम्युनिस्टों को मिल रहे हैं.

पिछले चुनाव में उम्मीद से ज्यादा निर्दलियों ने परचम लहराया था हालांकि अशोक गहलोत ने इन्हें मैनेज करने में कामयाबी हासिल कर ली थी और तोड़फोड़ के सूत्रों का राजनैतिक गणित में सही इस्तेमाल करते बसपा को तो लगभग खत्म ही कर दिया. मायावती की खुमारी अब राजस्थान से भी उतरने लगी है.

जमीनी मुद्दों के बजाय हवाहवाई राजनीति के चलते भाजपा पहले सी आश्वस्त नहीं लग रही. उसके तमाम प्रादेशिक नेता अलाली काटते रहे. पेपर लीक मुद्दे पर वह सरकार को प्रभावी ढंग से नहीं घेर पाई और बढ़ते अपराधों सहित साम्प्रदायिक हिंसा पर भी ढुलमुल रही. अब नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों और भाषणों में इन्हें जोरशोर उठा रहे हैं लेकिन ठंडे लोहे पर चोट मारने से कभी किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ हांबेवजह का शोर जरुर होता है.

इस बार जातिगत समीकरण साधने में सभी को पसीने आ रहे हैं. राज्य में लगभग 12 फीसदी जाट,8 फीसदी राजपूत, 9 फीसदी गुर्जर और 8 फीसदी मीणा समुदाय के वोटर हैं. इन चारों सम्पन्न समुदायों से हर बार 75 के लगभग विधायक चुनकर आते हैं लेकिन जातिगत जनगणना के बवंडर के बाद 18 फीसदी दलित 10 फीसदी मुसलमान और 13 फीसदी आदिवासी समुदाय भी लामबंद हो रहे हैं.

अब देखना दिलचस्प होगा कि दलित किस खेमे में ज्यादा जाता है अगर वह बंटा तो दिक्कत कांग्रेस को ज्यादा पेश आएगी. यह वोट बसपा और हनुमान बेनीवाल की नेशनल पीपुल्स पार्टी की तरफ ज्यादा झुका तो विधानसभा त्रिशंकु भी हो सकती है. हालांकि कांग्रेस को माली सेनी समाज के 12 फीसदी वोटों की बेफिक्री है क्योंकि खुद अशोक गहलोत इसी जाति के हैं और जातिगत जनगणना के उबाल में एकजुट दिख रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में बघेल का खेल

सीट 90

2018

कांग्रेस – 68  ( 43 )

भाजपा – 15 ( 33 )

बसपा –   2  ( 3.9 )

जनता कांग्रेस 5 ( 7.6 )

2013

भाजपा – 49  ( 41  )

कांग्रेस   39  ( 40.3 )

बसपा –   1  ( 4.3 )

कोई भी सियासी पंडित यहां तक कि धर्मार्दी मीडिया भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस जा रही है या फिर भाजपा वापसी कर रही है. बिलाशक मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस आदिवासी बाहुल्य राज्य को मैनेज कर रखा है और कोई खास नाराजी उनके सरकार के प्रति नहीं है.

कांग्रेस की अंदरूनी कलह भी एक हद तक थमी है लेकिन सरगुजा राजघराने के टीएस सिंहदेव सिर्फ उपमुख्यमंत्री बनाए जाने से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है. कांग्रेस या भूपेश बघेल इस कद्दावर कांग्रेसी को कैसे साधकर रखेंगे. यही बात छत्तीसगढ़ के समीकरणों और नतीजों को प्रभावित करेगी. बाबा के नाम से मशहूर सिंहदेव भूपेश बघेल की स्वीकार्यता और लोकप्रियता के आगे हाल फिलहाल तो नतमस्तक हैं लेकिन नतीजों के बाद रहेंगे इसमें शक है.

पिछले चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपनी अलग पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बना ली थी जिसने ठीकठाक प्रदर्शन करते 5 सीट झटक भी लीं थी लेकिन इस चुनाव में उसे कुछ खास मिलेगा ऐसा लग नहीं रहा हालांकि बिगाड़ तो वह पिछले चुनाव में भी कुछ नहीं पाई थी. अजित जोगी के बेटे अमित जोगी विरासत संभाले रखने में असफल रहे हैं और पत्नी रेणु जोगी भी ज्यादा दिलचस्पी अस्वस्थता के चलते नहीं ले पा रहीं तय है. उन्हें साफसाफ दिख रहा है कि हाट लुट चुकी है.

उम्मीद थी कि भाजपा रमन सिंह को बतौर मुख्यमंत्री पेश कर मैदान में उतरेगी लेकिन यहां भी चेहरा उसने नरेंद्र मोदी का ही आगे रखा है जो आदिवासियों में बहुत ज्यादा और राहुल गांधी के मुकाबले लोकप्रिय नहीं हैं. वसुंधरा राजे की तरह रमन सिंह भी आम टपकने के इंतजार में 5 साल आराम फरमाते रहे. आम तो नहीं गिरा लेकिन मोदी शाह के फैसले से जो ओले गिरे उन्हें वे न तो समेट पा रहे हैं और न ही गला पा रहे हैं.

बेमन से चुनावी समर में कूदे रमन सिंह के बाद जमीनी नेता ब्रजमोहन अग्रवाल हालांकि पूरा जोर लगा रहे हैं लेकिन भाजपा अगर जीती जिसकी उम्मीद अभी न के बराबर है तो उन्हें मुख्यमंत्री बना ही दिया जाएगा इसकी गारंटी न होना प्रदेश भाजपा का मनोबल गिरा रही है.

राज्य में आदिवासी वोटरों की तादाद 32 फीसदी के लगभग है जबकि दलित वोट 13 फीसदी हैं. ये कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक है जो हिंदुत्व के नाम से ही बिदकता है. इस बार भाजपा के इशारे पर बसपा और गौंडवाना गणतंत्र पार्टी ने गठबंधन किया है लेकिन वह बहुत ज्यादा असरकारी नहीं दिख रहाहालांकि. यह वोटकटवा गठबंधन जितना भी करेगा कांग्रेस का ही नुकसान करेगा. सबसे बड़ी तादाद 47 फीसदी पिछड़ों की है जो भाजपा और कांग्रेस में लगभग बराबरी से बंट जाते हैं. अब जातिगत जनगणना की प्रियंका गांधी कीघोषणा के बाद इनका रुख क्या होगा यह बेहद दिलचस्पी वाली बात होगी. 10 फीसदी ब्राह्मण बनिया सवर्ण वोट भाजपा की तरफ ज्यादा झुकाव रखता है.

भाजपा ने इस साल की शुरुआत में हिंदुत्व कार्ड खेलने की कोशिश की थी. आरएसएस सहित कई धर्म गुरुओं ने हिंदू और हिंदुत्व के नाम पर हल्ला मचाया था लेकिन दलित आदिवासी तो दूर की बात है खुद को सवर्ण समझने लगे पिछड़ों ने ही उनकी बातों पर कान नहीं दिया था क्योंकि लोग कोई फसाद नहीं चाहते. यदाकदा होते नक्सली हादसे जरुर चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन नतीजों पर कोई फर्क डालने की स्थिति में नहीं है. कम्युनिस्ट प्रभाव वाला बस्तर अब कांग्रेस के हाथ में है लेकिन भाजपा भी 2-3 सीटों पर असर रखती है.पिछले चुनाव में कांग्रेस 12 में से 11 सीट यहां की ले गई थी.

जब कोई मुद्दा या एंटीइनकम्बेंसी नहीं होती तो वोट नेताओं के व्यक्तित्व पर डलते हैं. इस लिहाज से तो भूपेश बघेल बाकियों पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं जिन्हें बस अपने और कांग्रेस के पक्ष में बने माहौल को बनाए रखना है.

तेलंगाना – त्रिकोणीय लड़ाई में सीधे फंसे केसीआर

समूचे दक्षिण भारत की राजनीति बदलाव के दौर से गुजर रही है और तेलंगाना इससे अछूता नहीं कहा जा सकता. मुख्यमंत्री चन्द्र शेखर राव यानी केसीआर अभी भी थोड़े लोकप्रिय हैं लेकिन वे दक्षिण भारत के एनटीआर, एमजीआर, जयललिता और यहां तक कि चंद्रबाबू नायडू, पिनराई विजयन और सिद्धारमैया जितने प्रभावी साबित नहीं हो पाए तो इसकी एक बड़ी वजह उनकी हर कभी बदलती फिलासफी भी है. हालांकि वे हिंदूवादी नहीं हैं लेकिन धर्मस्थलों खासतौर से मंदिरों के लिए उन्होंने भी खजाने का मुंह पूरी दरियादिली से खोल रखा है. यह दांव उन्हें महंगा भी पड़ सकता है क्योंकि कर्नाटक की तरह तेलंगाना के लोग भी धर्म के नाम पर कोई फसाद चाहने के मूड में नहीं हैं.

अभिवाजित आंध्रप्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी के जुझारू नेताओं में से एक रहे 70 वर्षीय  केसीआरपृथक तेलंगाना मुहिमके इकलौते हीरो थे जिसका इनाम उन्हें साल 2014 और 2019 के विधानसभा चुनाव में जिताकर जनता ने दिया भी था. राजनीति में आने से पहले वे कामगारों को खाड़ी देशों में सप्लाई करने का धंधा किया करते थे. इसके बाद उन्होंने टीडीपी ज्वाइन कर ली थी और उम्मीद से कम वक्त में एक पुख्ता जगह आंध्रप्रदेश की राजनीति में बना ली थी.

पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी बनाई पार्टी टीआरएस( तेलांगना राष्ट्र समिति ) को 119 में से 88 सीटें 46.87 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस को इस चुनाव में करारा झटका लगा था. वह पृथक तेलंगाना बनानेके बाद भी 28.43 वोटों के साथ 19 सीटों पर सिमट कर रह गई थी.

भाजपा गिरते पड़ते एक सीट ले जा पाई थी और उसे महज 6.98 फीसदी ही वोट मिले थे. एआईएमआईएम ने ठीकठाक प्रदर्शन करते 2.71 फीसदी वोटों के साथ मुसलिम बाहुल्य इलाकों की 7 सीटें जीत ली थीं क्योंकि उसने टीआरएस से समझौता कर रखा था. तेलेगु देशम पार्टी को भी अपने बचेखुचे प्रभाव का फायदा मिला था जिसने 3.51 फीसदी वोटों के साथ 2 सीट जीत ली थीं.

इसके पहले 2014 के संयुक्त आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव में टीआरएस के हिस्से में 63 कांग्रेस के खाते में 13 और भाजपा के हिस्से में 5 सीटें आई थीं. एआईएमआईएम ने तब भी 7 सीटें हासिल की थीं.यह वक्त था जब कांग्रेस का ग्राफ पूरे देश सहितआंध्रप्रदेश में भी हैरतंगेज तरीके से गिरा था. इसके पहले उसने 2009 के चुनाव में 294 में से 156 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. इसके बाद वह यहां लड़खड़ाई तो संभल नहीं पाई लेकिन इस चुनाव में वह पहले के मुकाबले काफी मजबूत नजर आ रही है, पांव भाजपा ने भी तेलंगाना में जमाए हैं जिसके चलते मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है और केसीआर गफलत में पड़ गए हैं कि इन दोनों में से किसका कितना विरोध करें.

अब हाल यह है कि भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस बन चुकी टीआरएस के गढ़ में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सेंधमारी कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस आगे दौड़ रही है क्योंकि संगठनात्मक रूप से वह काफी मजबूत है. उसके कार्यकर्ता और समर्थक गांव देहातों तक में हैं.यहां के लोग नरेंद्र मोदी को जाने न जाने लेकिन इंदिरा गांधी आज भी इनके जेहन में है.

कांग्रेस को इस बार बड़ा फायदा अपने परंपरागत 18 फीसदी दलित वोटों की वापसी का मिल सकता है जो पिछले चुनावों में टीआरएस के साथ चले गए थे क्योंकि तेलंगाना बनने के पहले केसीआर ने पहला मुख्यमंत्री दलित बनाने का वादा किया था जो पूरा नहीं हुआ तो दलित समुदाय उन्हें सबक सिखाने उतारू होने लगा है. केसीआर ने हरेक दलित परिवार को 3 एकड़ जमीन देने का वादा भी पूरा नहीं किया है इसलिए भी दलित उन पर खार खाए बैठे हैं.

मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने से तेलंगाना के दलित भी कांग्रेस की तरफ दौबारा झुक रहे हैं. उलट इसके भाजपा कुछ बड़े शहरों औरबड़े तबकों रेड्डीऔर वेलामास के अलावा संपन्न पिछड़ी जातियों गौड़, गोला और मुदिराज तक सिमटी है. उसका जनाधार भी राम नाम या धर्म की राजनीति के चलते बेहद सिमटा हुआ है.

पिछले दिनों हुए सनातन विवाद की कोई हलचल तेलंगाना में देखने में नहीं आई थी. मुसलमान तो भाजपा के साथ हैं हीनहीं, साथ ही दलित और आदिवासी भी उससे दूर ही हैं. सवर्णों और ब्राह्मणों के सहारे भाजपा दहाई का आंकड़ा भी छू ले तो यह उसके लिए बड़ी उपलब्धि की बात होगी.

केसीआर के रूख को लेकर जनता भ्रमित है जो कभी एनडीए की आंख के तारे हुआ करते थे. उन्होंने धारा 370, नोटबंदी और जीएसटी जैसे अहम मुद्दों पर मोदी सरकार का समर्थन किया था. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी वे भाजपा के साथ खड़े दिखाई दिए थे लेकिन इसके बाद से भगवा गैंग से उनकी तल्खियां इतनी बढ़ गईं कि वे कभी प्रधानमंत्री की आगवानी करने हवाईअड्डे तक नहीं पहुंचे.यह बात खुद नरेंद्र मोदी ने मंच से कही भी थी.राष्ट्रीय राजनीति में छा जाने का सपना देख रहे केसीआर इंडिया गठबंधन का भी हिस्सा नहीं बने.

2019 में 4 लोकसभा सीटें झटक ले जाने वाली भाजपा यहापांव न जमा पाए इस बाबत केसीआर ने आम जनता की भावनाओं की परवाह न करते अनाप शनाप पैसा मंदिरों को देना शुरू कर दिया जो कि बेवजह था. तेलंगाना के मशहूर यदाद्रीमंदिर के लिए आरबीआई से 65 करोड़ रूपए में 125 किलो सोना खरीदने की घोषणा को वोटर ने सहजता से नहीं लिया था.इस मंदिर के लिए उन सहित उनकी पार्टी के कई विधायकों और सांसदों ने स्वर्ण दान भी किया था.

इसी तरह एक और भद्रकाली मंदिर के विकास के लिए भी सरकार ने 20 करोड़ की मदद दी  थी.इस धर्म प्रेम से राज्य के 13 फीसदी मुस्लिम वोटर कांग्रेस की तरफ खिसक सकते हैं जो 45 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. मुसलमानों का आरक्षण खत्म करने की बात भी दहाड़ कर गृह मंत्री अमित शाह सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं. यह बात कर्नाटक की तरह कांग्रेस को ही फायदा देगी,जहां के मुसलमानों ने जनता दल एस को छोड़ते कांग्रेस पर भरोसा जताया था.

यह केसीआर की घबराहट और लड़खड़ाते आत्मविश्वास को दिखाते फैसले हैं जबकि जनता उन्हें ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरह तटस्थ और बहुत मजबूत समझती रही थी.रही सही कसर 16 सितंबर को कांग्रेस कार्यकारणी की मीटिंग ने पूरी कर दी, जिस में कद्दावर नेता जुपल्ली कृष्ण राव सहित बीआरएस के कई जमीनी नेताओं ने कांग्रेस का हाथ थामा. इसके पहले हैदराबाद में लगे कुछ हौर्डिंग्स में सोनिया गांधी को तेलंगना तिल्ली यानी तेलांगना की देवी के रूप में दिखाया गया था.

कांग्रेस की ये घोषणाएं भी वोटर को लुभा रही हैं कि वह अगर सत्ता में आई तो महिलाओं को हर महीने 2500 रूपए की वितीय सहायता के आलावा 500 रूपए में गैस सिलेंडर सहित आरटीसी बसों में मुफ्त यात्रा और सभी घरों को 200 यूनिट फ्री बिजली देगी.वोटर को अपनी इन गारंटियों के बाबत कांग्रेस पड़ोसी राज्य कर्नाटक का उदाहरण दे रही है जहां उसके किए वादे पूरे हो रहे हैं.

ऐसे में केसीआर का बड़ा डर कांग्रेस है जो सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाते तेलंगाना की सत्ता हासिल करने कमर कस चुकी है. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को 16 दिन इस राज्य में भी खासा रिस्पांस मिला था, तब युवाओं के उमड़े हुजूम से बीआरएस और भाजपा दोनों हैरान रह गए थे.

मिजोरम में सीधी टक्कर

पिछले 4 चुनावों की तरह इस बार भी 40 विधानसभा सीटों वाले मिजोरम में एमएनएफ यानी   मिजो नेशनल फ्रंट और कांग्रेस में सीधा मुकाबला है, जिसमें कांग्रेस को वापसी करने में पसीने छूट रहे हैं. हालांकि जेडपीएम( जोरम पीपुल्स मूवेंट ) भी मजबूती से मैदान में है लेकिन इस बार हालात कुछ बदले हुए हैं.

2018 के विधानसभा नतीजों के बाद जब कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत का जश्न मना रही थी तब मिजोरम की सत्ता छिन जाने का अफसोस मनाने का न तो उसके पास वक्त था और न ही मौका था. इस चुनाव में कांग्रेस महज 5 सीटों पर सिमट कर रह गई थी लेकिन उसका वोट शेयर 29.98 फीसदी था. एमएनएफ को 26 सीटें 37.7 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. जेडपीएम ने 8 सीटें 22.9 फीसदी वोट शेयर के साथ हासिल की थीं.

भाजपा ने एक सीट महज 8 फीसदी वोटों के साथ जीती थी जबकि चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस के 4 दिग्गज नेताओं ने उसका दामन थामा था. इसके पहले 2013 के चुनाव में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी जिसमें कांग्रेस ने सारे रिकार्ड ध्वस्त करते हुए 34 सीटें 45.83 फीसदी वोटों के साथ जीती थीं.एमएनएफ 28.65 फीसदी वोटों के साथ 5 सीटें जीत पाई थी.

तब कांग्रेस ने फिर से ललथनहवला को मुख्यमंत्री बनाया था जो जनता की उम्मीदों पर किसी भी एंगल से खरे नहीं उतर पाए. दूसरे, हाईकमान ने भी पार्टी की अंदरूनी कलह पर ध्यान नहीं दिया जिसका खामियाजा उसे 2018 में बाहर होकर भुगतना भी पड़ा था. इसके पहले 2008 में भी कांग्रेस ने 32 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी.

मिजोरम के इतिहास की तरह वहां की राजनीति भी कम दिलचस्प नहीं है. 90 फीसदी ईसाईयों वाले पूर्वोत्तर के इस राज्य में वोट मूलतय नेताओं की लोकप्रियता और सरकार के कामकाज की बिना पर पड़ते रहे हैं. पिछले 37 सालों से यहां मुख्यमंत्री या तो कांग्रेस के ललथनहलवा रहे हैं या फिर एमएनएफ के संस्थापक लालडेंगा और उनके बाद जोरामथंगा को यह जिम्मेदारी मिली है. इस दौरान कुछ छोटेमोटे दल मिजोरम में बने लेकिन जनाधार के अभाव में खत्म भी होते गए. इस लिहाज सेजेडपीएम को इस चुनाव में खुद को बनाए रखना चुनौती साबित हो सकती है.

कभी पेशे से मजदूर रहे जोरामथंगा यहां के लोकप्रिय और जुझारू नेता हैं जो 1998 से 2008 तक मुख्यमंत्री रहे थे लेकिन उन्हें 2008 में जनता ने खारिज कर दिया था. यही हाल 2018 में ललथनहलवा का हुआ था जो राजनीति में आने से पहले बैंक कर्मी हुआ करते थे.इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा यह देखन दिलचस्पी की बात होगी.

80 पार कर चुके इन दोनों बूढ़े नेताओं के व्यक्तित्व की लड़ाई में कौन भारी पड़ेगा और जोरामथंगा के 5 साल के कामकाज का मूल्याकन जनता कैसे करती है. इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस की सीटें मिजोरम में बढ़ेंगी लेकिन वे 21 का आंकड़ा छू पाती हैं या नहीं इसमें सभी की दिलचस्पी है.

रही बात भाजपा की तो वह लड़ाई में न तो पहले कभी थी और न अब है क्योंकि यहां राम श्याम और सनातन वगैरह नहीं हैं. मणिपुर हिंसा का असर मिजोरम पर पड़ेगा इसमें भी शक है क्योंकि जातिगत लड़ाई मिजोरम में न के बराबर है.

मणिपुर हिंसा के बाद मिजोरम के कोई 10 हजार मेतेई समुदाय के लोगों को सरकार ने असम और मणिपुर भेज दिया था और कोई 13 हजार कुकियों को राज्य में आने दिया था. कोई हिंसा न होने देने का श्रेय जोरामथंगा को जनता ने अगर दिया तो कांग्रेस को यहां ज्यादा उम्मीदें नहीं पालना चाहिए.

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