आज रश्मि से मुलाकात हुई. उस की बातों ने    झक   झोर कर रख दिया. उस के भाई की पिछले साल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. 2 बहनों का एकलौता भाई था. एक महीने के भीतर ही भाभी ने सब जमीनजायदाद अपने नाम लिखवा ली. मकान में ताला लगा दिया और खुद अपने पीहर के पास एक घर खरीद लिया. दोनों बहनों ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उन को बेइज्जत कर के घर से निकाल दिया उन्होंने.

रश्मि के मातापिता कई साल पहले ही गुजर गए थे. छोटी बहन की तब तक शादी नहीं हुई थी. पिता की तेरहवीं के दिन भाई ने कोर्ट में ले जा कर दोनों बहनों से कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे. कारण बताया था कि पिता की जोड़ी हुई रकम बैंक से तब तक मिलेगी नहीं, जब तक कि तीनों बच्चों की लिखित सहमति नहीं होगी.

रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. बहनों ने भाई का सहयोग किया. लेकिन अब स्थिति ऐसी आ गई थी कि पिता के घर के दरवाजे उन के लिए बंद हो चुके थे. सुन कर मु   झे बहुत धक्का सा लगा. सहेली होने के नाते मैं रश्मि की मदद करना चाहती थी, इसलिए मैं ने कुछ महिलाओं से बात करने की ठानी.

सरकार ने महिलाओं को उन का हक देने के लिए जो कानून बनाए हैं या संशोधन किए हैं, क्या उन से महिलाओं को उन का हक मिल रहा है या स्थिति और भी बिगड़ गई है?

पड़ोस में रहने वाली काव्या की शादी को एक साल ही हुआ था. उस ने बताया कि शादी से पहले ही उस के भाई ने पिता से कह कर उस का राजीनामा ले लिया था कि विवाह के पश्चात वह पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मांगेगी. मेरी जिज्ञासा और बढ़ रही थी.

महल्ले में पिछले ही महीने एक अंकल की मृत्यु हुई थी. उन की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. 2 ही बच्चे थे उन के. बहन ने अपना हिस्सा मांगा तो भाई ने बात करना ही बंद कर दिया.

बहन भी उच्च शिक्षा प्राप्त है. उस ने भाई के ऊपर कोर्ट में केस दर्ज कराया और अपनी ससुराल का घर छोड़ कर पिता के ही घर में दूसरी मंजिल पर आ कर रहना शुरू कर दिया. केस चल रहा है. दोनों भाईबहनों की मुलाकात कोर्ट परिसर में ही होती है. बातचीत तो बिलकुल बंद है.

मध्यवर्ग में लड़कियों को पिता की संपत्ति में अधिकार मिलने की यही जमीनी हकीकत है. अधिकार मिले या न मिले, लेकिन रिश्ते तो बिगड़ ही गए हैं. जहां लड़कियां चुप हैं, वहां उन की स्थिति ऐसे मेहमानों जैसी है जिन के आने से कोई खुश नहीं होता है, सिवा उन के मांबाप के. जो अपना अधिकार मांग रही हैं, उन्हें किसी का सहयोग मिलना तो दूर, उलटे, सब से अलगथलग रह कर जीवन बिताने पर मजबूर कर दिया जाता है. अपनों के विरुद्ध ही अदालत में जा कर लड़ाई लड़नी पड़ती है. कई बार तो मातापिता को भी बेटों का ही साथ देते हुए देखा जाता है क्योंकि उन्हें उसी घर में रहना है. पीहर की संपत्ति का यह हाल है तो क्या ससुराल में वे अपना अधिकार ले पा रही हैं?

सौम्या अपनी बहनों में सब से ज्यादा पढ़ीलिखी है. शादी हुई तो 4 भाईबहनों के परिवार में आ गई. विवाह के समय सास ने अपने पुराने गहने पहनाए. सब को लगा कि उसे बहुत अच्छी तरह रखेंगे ससुराल वाले पर विवाह के तुरंत बाद छोटीमोटी बातों को ले कर लड़के को सुनाना शुरू कर दिया. पति दूसरे शहर में नौकरी करता था. पति ने उसे अपने साथ ले जाना उचित सम   झा.

अब स्थिति ऐसी है कि ससुर ने रिटायरमैंट के बाद जो मकान बनाया, वह भी बड़े लड़के के नाम से है. दोनों बहनों ने अपने ससुराल वालों से सब रिश्ते खत्म कर रखे हैं. परिवार सहित पिता के घर में ही आतीजाती हैं. उन के बच्चे भी अधिकतर वहीं रहते हैं. जो जेवर सास ने चढ़ाए थे, वे भी बैंक में रखने के नाम पर ले लिए गए और फिर वापस नहीं मिले हैं.

सौम्या के पति की नौकरी से ही उन के परिवार का पूरा खर्च चलता है. वह भी ट्यूशन पढ़ा कर थोड़ीबहुत सहायता कर रही है. घर में सब का यही कहना है कि छोटा लड़का अपनी पारिवारिक (मातापिता के प्रति) जिम्मेदारियां नहीं निभा रहा है. सौम्या सम   झ ही नहीं पाती है कि उन की क्या गलती है, क्यों उन के साथ यह सब किया जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि जहां एक ही बेटा हो, वहां समस्या नहीं होती है. पति के साथ काम करने वाले एक लड़के की शादी मातापिता की मरजी से ही हुई. एकलौता लड़का है. बड़ी बहन की पहले ही शादी हो चुकी थी. शादी तक सब ठीक रहा. कुछ महीनों बाद ही मांबाप की बहू को ले कर शिकायतें शुरू हो गईं. ननद सर्विस करती है. उस की ससुराल भी उसी शहर में है. ननद अपनी बेटी को रोज सुबह ननिहाल में छोड़ती और फिर शाम को खाना खा कर, पति का खाना साथ ले कर वापस जाती.

बहू पहले तो सब चुपचाप करती रही, लेकिन गर्भ ठहर जाने के कारण उस की तबीयत खराब रहने लगी. मांबाप ने एकलौते बेटे को बहू के साथ घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया. पोते को देखने भी नहीं आए हैं. 2 साल का होने वाला है.

एक ही शहर में होने के कारण कभीकभार आपस में टकरा जाते हैं, लेकिन अनजान बन आगे बढ़ जाते हैं. अब लड़का दूसरे शहर में तबादले की कोशिश में जुटा हुआ है.

इन सब बातों को देखने पर लगता है कि मध्यवर्ग न तो कानून के अनुसार ही चल रहा है और न ही रिश्तों को बिखरने से बचा पा रहा है. लड़कियों को न तो अपने पिता की संपत्ति में हक मिल रहा है और न ही ससुराल में उन का कोई हक है. पढ़ने में बुरा लग सकता है, लेकिन पढ़ीलिखी लड़कियां भी इस कानून के मोह में आ कर ससुराल वालों के साथ तालमेल बिठाना ही नहीं चाह रही हैं. अपने पीहर से उन की केवल औपचारिक विदाई हो रही है. वैसे, मांबाप के जीवित रहने तक वे वहीं रह रही हैं. उन के पति और बच्चे भी वहीं आनाजाना रखते हैं.

जमीनी हकीकत

विभा की दोनों ननदें शादी के एक साल बाद ही ससुराल वालों से अलग हो गईं. उन की मां ने भी उन का पूरा साथ दिया. दोनों के ही पति प्राइवेट सैक्टर में कार्यरत हैं. सास ने ससुर से संपत्ति में अपना हक पूरा ले लिया और अब पूरी तरह मायके पर ही निर्भर हैं. उन के बच्चों के जन्मदिन से ले कर कालेज में एडमिशन तक की सारी जिम्मेदारी विभा के पति को ही निभानी पड़ती है. वे दुकान चलाते हैं, जिस पर ससुर भी साथ में बैठते हैं. पूरे साल उन का अनवरत आवागमन जारी रहता है, लेकिन उन के मातापिता में से कोई भी बीमार हो जाए या कोई और समस्या हो जाए तो उन्हें समय निकालना मुश्किल हो जाता है.

ये केवल कुछ ही उदाहरण हैं, जो अलगअलग जगहों से लिए गए हैं. इन के अलावा भी अनेक उदाहरण हैं, जिन में गृहक्लेश और घरेलू हिंसा का एक बड़ा कारण लड़की का विवाह के बाद भी अपने पीहर में बने रहना ही है.

इन सभी उदाहरणों में एक बात समान है कि किसी को भी मायके की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिला है. बस, तनावपूर्ण जीवन उन की नियति बन गया है.

सरकार कोई भी कानून बनाने से पहले यदि एक सर्वे करवाए तो स्थिति बेहतर हो सकती है. इक्कादुक्का घटनाओं के अनुसार, कानून बनाने या उस में बदलाव करने से उचित परिणाम नहीं मिल सकते हैं.

कुछ परिवारों में आपसी सहमति से    झगड़े सुल   झ भी जाते हैं. रिंकी के ससुर का संपत्ति के नाम पर बस एक मकान ही था. पुराना और बड़ा मकान. रिंकी की ननद दूर दूसरे शहर में रहती थी. पिता के जाने के बाद उस ने अपना हक मांगा तो रिंकी के पति ने मकान का ऊपर वाला हिस्सा उन्हें दे दिया, लेकिन वह खुश नहीं थी. पिता को गए हुए सालभर भी नहीं हुआ था और मकान को बेचना पड़ा, क्योंकि उन्हें मकान की आधी कीमत चाहिए थी, मकान नहीं. मां ने अपनी बेटी का ही साथ दिया. मकान बिक गया. अब रिंकी एक बड़ा फ्लैट किराए पर ले कर रह रही है. उस की सास 6 महीने उन के साथ रहती है और 6 महीने बेटी के साथ. भाईबहन का रिश्ता केवल मां के कारण चल रहा है.

संपत्ति का बंटवारा

भौतिकतावादी युग में वैसे भी रिश्तेनाते अपना महत्त्व खो चुके हैं. रहीसही कसर इन कानूनों ने पूरी कर दी है. अब लड़की पढ़ीलिखी है, खुल कर अपने अधिकार के बारे में बोल सकती है, लेकिन छीन नहीं सकती है. घर को बचाने के लिए या कहें कि दोनों घरों की इज्जत बचाने की चाह में वह अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा पा रही है और क्लेशयुक्त जिंदगी जीने को मजबूर है.

कहना जरूरी सम   झती हूं कि बेटी को बाप की संपत्ति में हक देने के साथ ही यह भी अनिवार्य कर देना चाहिए कि विवाह के बाद दामाद ससुराल में ही रहे. तभी कानून व्यावहारिक रूप ले पाएगा या फिर मातापिता को बच्चों की गृहस्थी बसने से पहले अपनी वसीयत बना देनी चाहिए. लड़कियों को भी इस सच को नहीं नकारना चाहिए कि उन्हें मातापिता ने लड़कों के समान परवरिश दी है और किसी भी घर में 2 लड़कों में भी संपत्ति का बंटवारा समान रूप से नहीं होता है. मांबाप का किसी बच्चे से अधिक लगाव अथवा किसी एक का घर में दबदबा भी बंटवारे पर प्रभाव डालता है.

कानून बनाने वालों को फिर से इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़कियों को लड़कों के बराबर हक देने के चलते हम वृद्धाश्रम की नींव खुद ही रख रहे हैं. वही लड़की किसी घर की बहू भी है. अपने हक के चलते यदि वह पीहर से ही नाता रखेगी तो ससुराल वालों से कैसे निभाएगी? दूसरी ओर बहू से इतनी अपेक्षाएं होते हुए भी ससुराल में उसे हक नहीं दिया जाना भी उस के मायके के प्रति लगाव को बढ़ावा देता है.

युवा लड़कियों से ही इस विषय पर सोचने के लिए आग्रह करूंगी क्योंकि कानून उन के लिए ही बनाया गया है. भाई के बराबर संपत्ति में हक मांगिए, लेकिन जिम्मेदारी भी उस के बराबर बांटिए. जब मातापिता को सहारा देना है, तब आप भाई के बराबर खड़ी रहिए तो बात बनेगी. हक आप लें और भाई की आलोचना करती रहें, दूसरी ओर मांबाप वृद्धाश्रम में रहें, यह स्थिति सुखद नहीं है.

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