मायावती और उन का दलित वोटबैंक राजनीति के लिए अबूझ पहेली जैसा है. 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से दलित वोट भारतीय जनता पार्टी के पाले की तरफ आ गया था. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद कहा कि ‘मायावती सपा को हराने के लिए उम्मीदवार खड़ा करती हैं.’

हाल के घोसी उपचुनाव में दलित वोट समाजवादी पार्टी की तरफ झुका तो भाजपा हार गई. मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा था. यह राजनीति में मायावती का प्रभाव ही है कि उन की पार्टी चुनाव लड़े या न लड़े लेकिन जीत और हार को प्रभावित जरूर करती है.

जब सारा देश नए संसद भवन के उद्घाटन के समय जनजाति समूह से आने वाली राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की अनुपस्थिति पर अचंभित था और नरेंद्र मोदी पर आरोप लगारहे थे कि राष्ट्रपति से संसद भवन का उद्घाटन न करा कर दलितों, अछूतों और वनवासियों को अपमानित किया गया, तब एक बड़ी दलित नेता नरेंद्र मोदी के साथ पूरे जोरशोर से खड़ी थी, वह थी मायावती दलितों की मसीहा कही जाने वाली जिसे दलितों के सम्मान की फिक्र नहीं रह गई है.

बहनजी के नाम से मशहूर जानी जाने वाली वारिस बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम के नारे ‘तिलक तराजू और तलवार, इन को मारो जूते चार’ से गंगायमुना में बहा चुकी हैं. दलित समुदाय की अकेली दमदार नेता रही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती आज इतनी क्यों भयभीत हैं? यह एक पहेली है जो उन के जीवन के बारे में जानने पर भी नहीं सुल   झती.

मायावती ने क्यों ‘बहुजन’ जो असल में दलितों आदिवासियों व सभी पिछड़ों यानी शूद्रों के लिए कांशीराम का शब्द था, अब सर्वजन के नाम पर सिर्फ ब्राह्मणजन का रूप ले चुका है, अपनाया.

बड़ी बात यह है कि समर्पण के बावजूद उन्हें आज भी कांशीराम की वारिस होने के नाते काफी वोट दलितों के मिल रहे हैं और अब इन वोटों का लाभ भारतीय जनता पार्टी को हो रहा है क्योंकि गैर भाजपाई वोट बंट जाते हैं.

मायावती किसी राजनीतिक परिवार से नहीं हैं. वह पलीबड़ी दिल्ली में ही हैं. मायावती अधिकतर दिल्ली में रहती हैं. अपने भाई के परिवार के साथ उन की निकटता है. कोरोना के बाद बहुत लोगों से सीधे नहीं मिलती हैं. वे नियमित अपनी डायरी लिखती हैं. उन के जन्मदिन पर इन का संकलन प्रकाशित होता है. पार्टी का काम आकाश आंनद के पास अधिक है.

लोग मानते हैं कि मायावती की राजनीतिक कहानी तब से शुरू होती है जब 1989 में उन्होंने लोकसभा का अपना पहला चुनाव जीता था. सचाई यह है कि मायावती की कहानी 1977 से शुरू होती है जब मायावती 21 साल की थीं. मायावती का जन्म 15 जनवरी, 1956 में दिल्ली के श्रीमती सुचेता कृपलानी अस्पताल में हुआ था. वे एक साधारण परिवार की बेटी थीं. उन के पिता प्रभुदास टैलीफोन विभाग में सरकारी नौकरी करते थे. मां रामरती गृहिणी थीं.

मायावती के 6 भाई और 2 बहनें थीं. मायावती ने 1975 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कालेज से बीए किया था. दिल्ली विश्वविद्यालय से ही उन्होंने एलएलबी की पढ़ाई पूरी की. वे आईएएस अफसर बनना चाहती थीं. प्रशासनिक सेवा में शामिल होने के लिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी की थी.

मायावती शुरू से बाबासाहब

डा. भीमराव अंबेडकर के विचारों से प्रभावित थीं. बैकवर्ड एंड माइनौरिटी कम्युनिटीज एम्प्लौइज फैडरेशन यानी बामसेफ और दलित शोषित संघर्ष समिति के लिए काम करने वाले कांशीराम का मायावती के घर आनाजाना था क्योंकि मायावती के पिता प्रभुदास बामसेफ के दलित आंदोलन से जुड़े थे. कांशीराम उन से मिलने आते थे. वैसे तो उस समय तक कांशीराम भी सरकारी नौकरी करते थे.

बामसेफ के जरिए कांशीराम ने ऐसे सरकारी कर्मचारियों को संगठित किया था जो संगठन चलाने के लिए आर्थिक मदद करते थे. उस में हर श्रेणी के सरकारी नौकर शामिल थे पर बड़ी संख्या तीसरे और चौथे श्रेणी के कर्मचारियों की थी.

बामसेफ राजनीति से दूर रहते हुए अपने समाज के लिए काम करता था. कांशीराम का मानना था कि बिना सत्ता के समाज में बदलाव नहीं हो सकता. ऐसे में वे राजनीतिक संगठन बनाना चाहते थे. इस के लिए दलित शोषित संघर्ष समिति नाम से एक दल का गठन किया. यह केवल दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. लिहाजा, 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया.

घरपरिवार को छोड़ समाज को अपनाया

1977 में जब कांशीराम मायावती के घर उन के पिता से मिलने आए तो दोनों की पहली मुलाकात हुई. मायावती से बातचीत के दौरान कांशीराम को उन के अंदर की प्रतिभा को सम   झने का मौका मिला. इस के बाद कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की तो मायावती को भी उस में शामिल किया.

मायावती के पिता नहीं चाहते थे कि मायावती राजनीति में आए. इस कारण मायावती को भी शुरू में दिक्कत हुई. घर के अंदर ही उन को विरोध    झेलना पड़ा. मायावती के पिता चाहते थे कि मायावती शिक्षिका की नौकरी करे. अपना घर बसाए.

मायावती के एक तरफ उस के पिता थे जो उन को राजनीति से दूर रख कर घरपरिवार बसाने की बात कर रहे थे, दूसरी तरफ कांशीराम थे जिन्होंने मायावती से कहा कि ‘तुम आईएएस बनने का सपना देखना छोड़ कर समाज के लिए काम करो. मैं तुम्हें उस स्थान पर ले जाना चाहता हूं जहां आईएएस तुम को सलाम करेंगे.’

कांशीराम के सम   झाने पर मायावती ने अपना फैसला बदल लिया. इस के बाद मायावती ने कांशीराम की पार्टी जौइन की और बसपा की कोर टीम में शामिल हो गईं. पिता ने मायावती से रिश्ता तोड़ लिया. उन के किसी से प्रेम की चर्चा भी कभी नहीं उठी.

मायावती में सत्ता की आकांक्षा थी और कांशीराम उन को आगे बढ़ाना भी चाहते थे. 1989 में मायावती को चुनाव लड़ने का मौका मिला और वे सांसद बन गईं. मायावती पार्टी में काफी जूनियर थीं. इस के बाद भी कांशीराम उन की बात को ज्यादा महत्त्व देते थे. ऐसे में कांशीराम की कार्यशैली को ले कर तमाम तरह के सवाल उठने लगे कि वे मायावती को इतना बढ़ावा क्यों दे रहे हैं.

कांशीराम लोगों को सम   झाते कहते थे कि, ‘मायावती मेरा जनून है. इस से किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए. इस के कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि मेरे तमाम शिष्यों में से वह मु   झे सब से अधिक प्रिय है.’

कांशीराम ने बसपा में पूरा अनुशासन बना कर रखा था. इस के लिए वे डाक्टर अंबेडकर का उदाहरण देते थे. बसपा का राजनीतिक जनाधार बढ़ाने के लिए कांशीराम ने अलगअलग दलों से गठबंधन करने शुरू किए. वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे. वे कहते थे, ‘ब्राह्मण नीबू के रस की तरह होता है. जिस तरह से नीबू का रस दूध को फाड़ देता है, उसी तरह ब्राह्मण समाज को अलगअलग कर के अपना लाभ करता है.’

जब भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के जरिए समाज को बांटने की शुरुआत की और अयोध्या में राममंदिर का विवादित ढांचा गिरा दिया तब कांशीराम ने भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 1993 में मुलायम सिंह यादव के साथ चुनावी गठबंधन किया. सपाबसपा का नारा था. ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.’

चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की जीत हुई. सपा नेता मुलायम सिंह गठबंधन के मुख्यमंत्री बने. तब ब्राह्मणवादियों ने मायावती को अपना अस्त्र बनाया और उन को सत्ता का सपना दिखाया. कांशीराम मायावती के दबाव में अपनी ही कही बात भूल गए कि ‘ब्राह्मण नीबू के रस की तरह होता है.’

1996 में हरिद्वार में कांशीराम ने एक रैली की थी जिस में मायावती ने ललकार कर कहा था, ‘हम सब जानते हैं कि ये ऊंची जाति के मनुवादी नहीं चाहते कि दलित अच्छा खाएं, अच्छा पहनें और अच्छा काम करें.’ भारी जमा भीड़ को ललकारते हुए उन्होंने पूछा था, ‘क्या अब तुम नहीं चाहते कि आबादी के ये 85 प्रतिशत लोग जिन का दमन और शोषण हो रहा है वे एक अलग पार्टी बनाएं.’ उन्होंने पार्टी भी बना ली, पूरे देश में उम्मीदवार भी खड़े करने शुरू कर दिए पर अब उन्हीं बातों से किनारा कर लिया है जिन को ले कर पार्टी बनाई थी.

मायावती ने ऐसा क्यों किया, यह विशेषज्ञों के लिए पहेली बना रहेगा क्योंकि इस से न बसपा को लाभ हुआ न मायावती को.

मायावती को सत्ता तक पहुंचने की जल्दी थी. भाजपा ने इस बात को सम   झ लिया था. उस समय कांशीराम बीमार थे और उन का इलाज चंडीगढ़ के अस्पताल में चल रहा था. वहीं पर मायावती और भाजपा के नेताओं की मुलाकात हुई. उन के बीच यह तय हुआ कि लखनऊ पहुंच कर मायावती पार्टी विधायकों की मीटिंग करेंगी और मुलायम सरकार से अपना समर्थन वापस लेंगी. इस के बाद भाजपा बसपा को सरकार बनाने का समर्थन दे कर मायावती को मुख्यमंत्री बनने में मदद करेगी.

गैस्ट हाउस कांड ने दलित-पिछड़ों को बांटा

योजना के अनुसार मायावती लखनऊ आईं. 2 जून, 1995 को लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित सरकारी गैस्ट हाउस के मीटिंग हौल में बसपा की मीटिंग शुरू हुई. मायावती कमरा नंबर 1 में अपने प्रमुख सहयोगियों के साथ थीं. ‘मायावती की अगुआई में बसपा मुलायम सरकार गिराने की साजिश कर रही हैं.’ इस बात की जानकारी उस समय के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव को हुई.

दोपहर करीब 2 बजे का समय था. दोपहर का भोजन करने के बाद बसपा के नेताओं की मीटिंग शुरू हुई. सपा के 100 से अधिक विधायक और तमाम नेता गैस्ट हाउस आ गए. उन लोगों में अतीक अहमद जैसे माफिया भी थे. उन लोगों ने बसपा के विधायकों को बंधक बना लिया. वे उन से जबरन सादे कागज पर मुलायम सिंह यादव को समर्थन देने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कराने लगे.

सपा के कुछ नेताओं ने मायावती के कमरे का दरवाजा तोड़ना शुरू कर दिया. बचाव में कमरे के अंदर से दरवाजा बंद कर के सोफासैट और पलंग व कुरसी को दरवाजे के आगे लगा दिया गया जिस से दरवाजा टूटे नहीं. उस समय मोबाइल का दौर नहीं था. पुलिस गैस्ट हाउस में आ चुकी थी लेकिन वह सरकार के दबाव में कुछ कर नहीं रही थी.

नतीजतन, कुछ सपा नेता कमरे का दरवाजा तोड़ कर मायावती तक पहुंच उन से बदसलूकी करने लगे. गैस्ट हाउस में भगदड़ मच गई. यह बात जैसे ही भाजपा के नेताओं को पता चली, वे मायावती की मदद के लिए आ गए. उत्तर प्रदेश की राजनीति का सब से काला पन्ना गैस्ट हाउस कांड के नाम से जाना जाता है.

इस के बाद मायावती काफी डर गईं. समाजवादी पार्टी से वे नफरत करने लगीं. इस घटना के बाद से ही मायावती ने साड़ी पहनना बंद कर दिया. इस के बाद वे सलवारसूट पहनने लगीं. 1996 में जब वे दोबारा मुख्यमंत्री बनीं, उस के बाद उन का हेयरस्टाइल बदल गया. लंबी चोटी की जगह बौबकट बाल हो गए. पैरों में मोजे पहनने के बाद सैंडल और इस के साथ ही साथ हैंडबैग उन की लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया.

मुख्यमंत्री बन गईं मायावती

सपा-बसपा गठबंधन टूटने के बाद भाजपा की मदद से 1995 में पहली बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं. कांशीराम ने जो बात मायावती से कही थी वह पूरी हो गई. मायावती को तमाम आईएएस अफसर सलाम करने लगे. अब दलित और पिछड़ा वर्ग एकदूसरे का जानी दुश्मन बन चुका था.

दलितपिछड़ा गठजोड़ टूटने से हिंदुत्व की राजनीति को विस्तार देने का काम सहज हो गया. इस के बाद भी भाजपा मायावती का साथ देती रही.

इस के बाद 1997 और 2002 में मायावती भाजपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री चुनी गईं. भाजपा के सहयोग के बाद भी दलित वोट बसपा के साथ थे. ब्राह्मणवादियों का काम अभी पूरा नहीं हुआ था. कांशीराम बीमार चल रहे थे. मायावती को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बना कर बसपा की पूरी कमान उन को सौंप दी.

कांशीराम के बाद मायावती को ब्राह्मणवादी लोग यह सम   झाने लगे कि दलित अकेले सरकार नहीं बना सकते. ऐसे में बसपा ब्राह्मणों को साथ ले कर चुनाव लड़े. अब तक कांशीराम की मृत्यु हो चुकी थी. मायावती पार्टी की सुप्रीमो थीं. उन्होंने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला तैयार किया.

साल 2007 में बसपा ने ‘बहुजन से सर्वजन’ की बात शुरू की. असल में इस के जरिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था और सोच ने बसपा पर कब्जा कर लिया. अब मायावती की दलित राजनीति हाशिए पर जा चुकी थी. दलित आंदोलन से शुरू हुआ सफर सत्ता की कुरसी के लिए बन कर रह गया.

सत्ता का यह लालच मायावती पर भारी पड़ा. 2007 में बसपा के दलित, ओबीसी, मुसलिम और ब्राह्मण वोटबैंक ने उत्तर प्रदेश में पहली बार बहुमत के साथ मायावती को सत्ता दिला दी. सत्ता मिलते ही दलित आंदोलन खत्म हो गया. ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने मायावती को हमेशा के लिए अपने अधीन कर लिया.

दलित की बेटी से दौलत की बेटी बन गईं मायावती

मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती में बदलाव आ गया. वे दलित समाज के लिए सोचने की जगह पर खुद के लिए सोचने लगीं. उन का पूरा प्रयास सत्ता में बने रहने का होने लगा. इस प्रयास में कांशीराम के साथ रहे दूसरे नेताओं को मायावती ने बसपा से दूर करने का काम शुरू किया.

अब उन के सहयोगी सतीश मिश्रा हो गए. 2002 में मायावती सरकार में सतीश मिश्रा को महाधिवक्ता बनाया गया. इस के बाद से वे मायावती के प्रमुख सलाहकार हो गए. सतीश मिश्रा ने बसपा पर ब्राह्मणों और अपने परिवार का राज स्थापित करने का काम शुरू किया.

मायावती और बसपा की ताकत रहा दलित अलगअलग जातियों में बिखर गया. उसे यह सम   झ आ गया कि अब बसपा में दलित का हित सुरक्षित नहीं है. इसी दौर में मायावती को दलित की बेटी की जगह पर दौलत की बेटी का नाम दिया गया. मायावती को राजसी विलासिता के शौक डलवाए गए. मायावती को यह सम   झाया गया कि वे दलितों से मिलेंगी तो उन को खतरा है. सत्ता में आ कर जो भ्रष्टाचार मायावती ने किया था उस का फंदा उन के गले में डाल कर मजबूर कर दिया गया.

मायावती के पास अकेले दिल्ली लुटियन में करोड़ों रुपए की संपत्ति है. साथ ही, दिल्ली में उन का आधिकारिक निवास व कार्यालय भी है. मायावती की गणना देश के आर्थिक रूप से समृद्ध नेताओं में होती है. मायावती द्वारा 2012 के राज्यसभा चुनावों के समय नामांकनपत्र दाखिल करने के समय की गई घोषणा के अनुसार, उन की लखनऊ व दिल्ली में दोनों जगह आवासीय व वाणिज्यिक संपत्तियां हैं. बैंक में नकदी व आभूषण हैं. यह सब 111 करोड़ रुपए से ज्यादा की हैं.

मायावती ने 2017 में राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था. साल 2010 में बसपा सुप्रीमो मायावती जब उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के लिए निर्वाचित हुई थीं तो उन की कुल संपत्तियों की कीमत करीब 88 करोड़ रुपए व 2007 में 52.27 करोड़ रुपए आंकी गई थी. मायावती की ज्यादातर संपत्ति रियल एस्टेट में है और उन की दिल्ली व लखनऊ में पौश इलाके में आवासीय इमारतें हैं.

दिल्ली में बंगला रकाबगंज गुरुद्वारा के नजदीक बंगला नंबर 12, 14 व 16 को मिला कर सुपर बंगला बनाया गया है और इस का इस्तेमाल निवास और कार्यालय के रूप में होता है. मायावती यहां अपनी प्रैस कांफ्रैंस व पार्टी की दूसरी महत्त्वपूर्ण बैठकें करती हैं. इसे मिला कर बनाए गए सुपर बंगले में से एक इकाई को बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट के नाम से आवंटित किया गया है.

इस के अलावा मायावती की दिल्ली की अचल संपत्तियों में दिल्ली के कनाट प्लेस (बी-34 भूतल व बी-34 प्रथम तल, इन का क्षेत्र क्रमश: 3628.02 व 4535.02 वर्गफुट है) में 2 वाणिज्यिक इमारतें शामिल हैं. इन वाणिज्यिक संपत्तियों का 2012 में अनुमानित बाजार मूल्य क्रमश: 9.39 करोड़ व 9.45 करोड़ रुपए था.

इस की जानकारी 2012 के राज्यसभा चुनावों के दौरान दाखिल किए गए नामांकनपत्र में है. साल 2009 में मायावती ने नई दिल्ली के डिप्लोमैटिक एनक्लेव के 23, 24 सरदार पटेल मार्ग पर एक संपत्ति एक उर्दू प्रकाशक से खरीदी. इस का कुल क्षेत्रफल 43,000 वर्गफुट है. 2012 में इस की कीमत 61 करोड़ रुपए आंकी गई थी.

लखनऊ में मायावती के पास 9 माल एवेन्यू पर एक आवासीय इमारत है जिस का क्षेत्रफल 71,282.96 वर्गफुट है, जिस का निर्माण क्षेत्र 53,767.29 वर्गफुट है. इसे 3 नवंबर, 2010 में खरीदा गया और इस की अनुमानित कीमत 2012 में 16 करोड़ रुपए थी.

मूर्तियों के खर्च पर उठे सवाल

मायावती ने अपने शासनकाल में पार्क और मूर्तियों पर बहुत खर्च किया. मूर्तियों पर करीब 59 करोड़ रुपए का खर्च आया था जिस में उन की खुद की प्रतिमाओं पर 3 करोड़ 49 लाख रुपए कांशीराम की प्रतिमा पर 3 करोड़ 77 लाख रुपए और चुनावचिह्न हाथी की मूर्ति पर 52 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे.

ब्राह्मणों के निकट आने पर भी मायावती मूर्तिपूजा और धार्मिक आडंबर के हमेशा खिलाफ रहीं. सत्ता हासिल करने के लिए ब्राह्मणदलित गठजोड़ करने के बाद भी वे अखिलेश यादव और राहुल गांधी की तरह मंदिरों में पूजापाठ करती कभी नहीं दिखीं.

पार्कों में मायावती ने दलित महापुरुषों की मूर्तियां इसलिए लगवाई थीं कि जिस से उन के इतिहास और योगदान को आने वाली पीढि़यां सम   झ सकें. इन पार्कों में लगी मायावती और कांशीराम की मूर्तियों पर सवाल उठे तो मायावती ने कहा था कि यह अंधविश्वास है कि जिंदा आदमी की मूर्तियां नहीं लगतीं. इस को तोड़ने के लिए मूर्तियां लगवाई हैं. पार्कों में लगी ये मूर्तियां मंदिरों में लगी मूर्तियों जैसी नहीं हैं. यहां इन की पूजा नहीं होती. इस कारण से मायावती ने इन मूर्तियों को धर्म से नहीं जोड़ा.

मुद्दों से भटकीं मायावती

सत्ता और दौलत को साधने के चक्कर में मायावती अपने मुद्दे से भटक गईं.  1993 में ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ का नारा देने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने 2023 में इस नारे को अपनी पार्टी का नारा नहीं मानते हुए इस से पीछा छुड़ाती दिखीं. मायावती ने इस को लगाने का काम समाजवादी पार्टी के माथे पर मढ़ दिया. इस से साफ सम   झा जा सकता है कि तब और अब की मायावती में कितना बदलाव आ चुका है.

ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करने वाली बसपा अब अपना जनाधार खो चुकी हैं. अपनी विचारधारा से भटकने के कारण ही राजनीति में बसपा सब से खराब दौर में पहुंच चुकी है.

बसपा के जनाधार खत्म होने और मायावती के एजेंडे में आए बदलाव का सब से बड़ा प्रभाव दलित आंदोलन पर पड़ा. आज के दौर में उस पर बात करने वाले लोग नहीं मिलते. नई पीढ़ी को यह पता ही नहीं कि दलित आंदोलन क्या था? इस की क्यों जरूरत है?

‘दलित’ शब्द इंग्लिश के ‘डिप्रैस्ड क्लास’ का हिंदी अनुवाद है. दलित शब्द का अर्थ पीडि़त, शोषित, दबाया हुआ या जिन का हक छीना गया हो होता है. जिन को दलित सम   झा जाता है उन में से अनेक वर्गों को पहले ‘अछूत’ या ‘अस्पृश्य’ माना जाता था. यह वर्ग छुआछूत का शिकार था.

दलितों को हिंदू समाज की व्यवस्था में सब से निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता जैसे तमाम मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया. उन्हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्पृश्य माना गया. उन का शोषण किया गया. बिहारी लाल हरित ने दलितों की पीड़ा को कविता के माध्यम से लोगों के सामने रखा ‘‘एक रुपए में जमींदार के, सोलह आदमी भरती. रोजाना भूखे मरते, मु   झे कहे बिना ना सरती, दादा का कर्जा पोते से, नहीं उतरने पाया, तीन रुपए में जमींदार के, सत्तर साल कमाया.’’

प्रेमचंद की एक कहानी है. ‘ठाकुर का कुआं’ जिस का विषय छुआछूत पर केंद्रित है. कहानी की मुख्यपात्र गंगी अपने बीमार पति के लिए कुएं का साफ पानी नहीं ला पाती है क्योंकि उच्च जाति के लोग दलितों को अपने कुएं से पानी नहीं लाने देते हैं.

जो काम पहले गांवों में ठाकुर करते थे अब दबंग शूद्रों की ऊंची जातियां करने लगी हैं. एक तरह से ये जातियां ब्लफ की तरह ब्राह्मणवाद को समर्थन दे रही हैं पर दिलों के घोर खिलाफ है.

भेदभाव का शिकार थे दलित

डाक्टर अंबेडकर की अगुआई में दलित आंदोलन से तो दलितों को कई फायदे हुए. उन में आरक्षण और कानूनी संरक्षण जैसी सुविधाएं शामिल हैं. इस से शासन व्यवस्था के हर दर्जे में कुछ सीटें दलितों के लिए आरक्षित हो पाईं. इसी तरह सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भी दलितों के लिए आरक्षण होता है. ऐसा कोई फायदा मायावती बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से नहीं दिलवा पाईं.

चुनाव दर चुनाव खत्म होता प्रभाव

कांशीराम की तरह ही मायावती भी बसपा को सेना जैसे अनुशासन से चलाने लगी थीं. मायावती का अनुशासन कब तानाशाही में बदल गया, यह पता ही नहीं चला. मायावती ने पार्टी नेताओं से सलाह करना बंद कर दिया. कांशीराम के जमाने के नेताओं की पूरी पीढ़ी को पार्टी से बाहर कर दिया.

मायावती ने खुद लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ना बंद कर दिया. जब उत्तर प्रदेश में उन की पार्टी सरकार बनाने की हालत में आती तो वे विधानपरिषद सदस्य के रूप में मुख्यमंत्री बनती थीं. सरकार जाने के बाद वे राज्यसभा सदस्य के रूप में दिल्ली चली जाती थीं. 2004 के बाद से मायावती ने लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा.

इस के बाद चुनावदरचुनाव बसपा का ग्राफ गिरता ही गया. 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 में से केवल 2 सीटें बसपा के पाले में गईं. पार्टी को केवल 19.60 फीसदी वोट ही मिले. 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 22-24 फीसदी वोट तो मिले पर वह 19 सीटों पर सिमट गई.

2019 के चुनाव में बसपा और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ. इस के बाद भी बसपा को केवल 10 सीटें ही मिल सकीं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर सपा से गठबंधन के बाद भी 19.3 फीसदी ही रहा. सपा के लेटरों ने बसपाई उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया. विधानसभा चुनाव 2022 में भी बसपा के लिए मुश्किलोंभरा रहा है. उत्तर प्रदेश में 4 बार सरकार बनाने वाली बसपा केवल 12.88 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई.

मायावती अपने पुराने ‘दलित ब्राह्मण’ के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को त्याग चुकी हैं. दिक्कत की बात यह है कि ओबीसी राजनीति के इस बढ़ते दौर में वे अपना मुकाम पाते नहीं देख पा रही हैं. उत्तर प्रदेश में ओबीसी जातियों का 50 फीसदी से ज्यादा वोटबैंक है. प्रदेश में 79 ओबीसी जातियां हैं, इन में भी गैरयादव जातियों की बात करें तो करीब 40 फीसदी का वोट प्रतिशत बैठता है.

कभी बसपा के साथ रही ये जातियां अब भाजपा और सपा के साथ हैं. इस में सेंधमारी करना बसपा के लिए टेढ़ी खीर है. तमाम ओबीसी नेता बसपा से बाहर जा चुके हैं. नए नेता ऐसे नहीं हैं जिन का बड़ा जनाधार हो.

मायावती अब ब्राह्मणवाद से बाहर निकलने को बेचैन हैं. सतीश चंद्र मिश्रा का पार्टी में प्रभाव खत्म होता दिख रहा है. वे लंबे समय से मायावती के साथ किसी भी सार्वजनिक मंच पर दिखाई नहीं दिए हैं. निकाय चुनाव में भी वे कहीं नहीं दिखे हैं. मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद को पार्टी में बड़े पद दे कर उन के महत्त्व को बढ़ा दिया है.

पार्टी के पुराने कार्यकर्ता अशोक सिद्धार्थ की बेटी डाक्टर प्रज्ञा सिद्धार्थ के साथ अपने भतीजे आकाश आनंद की शादी करा दी है. मायावती ने इस शादी में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी की. शादी में आने वालों में बसपा के तमाम नेता और कार्यकर्ता थे.

पार्टी के विभिन्न पदों पर मायावती पूरे अलोकतांत्रिक तरह से लोगों को नियुक्त कर रही हैं.

बहुजन समाज पार्टी लोकसभा चुनाव 2024 में अब दलित ओबीसी, मुसलिम समीकरण को साधने की कोशिश में है. इस की रिहर्सल के लिए बसपा ने उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में हिस्सा लिया. राजनीतिक लोग यह मानते हैं कि मायावती का यह कदम खुद को सत्ता में वापस लाने से ज्यादा समाजवादी पार्टी को सत्ता में आने से रोकने का है. मायावती ने निकाय चुनावों में सब से अधिक मुसलमानों को टिकट दिए थे.

मायावती के इस कदम से न केवल समाजवादी पार्टी को नुकसान हो रहा है बल्कि कांग्रेस को भी नुकसान हो रहा है. इस का लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल रहा है. ऐसे में यह साफ हो जाता है कि ब्राह्मणवादी योजना में मायावती घिर चुकी हैं. अब वे वही कर रही हैं जिस के खिलाफ कभी दलित आंदोलन शुरू हुआ था.

साकार नहीं हुई अंबेडकर की कल्पना

डाक्टर अंबेडकर ने कल्पना की थी कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित अपनी बिरादरी के दूसरे लोगों को भी समाज के दबेकुचले वर्ग से बाहर लाने में मदद करेंगे मगर यह नहीं हो सका. आगे बढ़ने वाला दलितों का यह तबका दलितों में भी सामाजिक तौर पर खुद को ऊंचे दर्जे का सम   झने लगा है. इस वजह से दलितों का सारा लाभ दलित आबादी के भी केवल 10 फीसदी लोगों तक ही पहुंच पाया. यही वजह ऐसी थी जिस ने दलित आंदोलन के बीच दरार डालने का काम किया जिस का लाभ व्यवस्था ने उठाया और दलितों को संगठित नहीं होने दिया.

मायावती और मायावती का दलित आंदोलन अब केवल सोशल मीडिया पर ट्विटर पर संदेश तक सीमित रह गया है. डाक्टर अंबेडकर और कांशीराम की सोच कहीं गहरे दब गई है.

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