रेटिंग : 5 में से 2 स्टार

लेखक व निर्देशक : विवेक अग्निहोत्री

निर्माता : पल्लवी जोशी, अभिषेक अग्रवाल

कलाकार : नाना पाटेकर, पल्लवी जोशी, निवेदिता भट्टाचार्य, अनुपम खेर, राइमा सेन, गिरिजा ओक

अवधि : 2 घंटे 41 मिनट

प्रदर्शन : 28 सितंबर से सिनेमाघरों में

2005 में असफल फिल्म ‘चाकलेट’ से फिल्म निर्देशक बने विवेक रंजन अग्निहोत्री उस के बाद फिल्म ‘धन धना धन गोल’, ‘हेट स्टोरी’, ‘जिद’, ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’, ‘जुनूनियत’ तक बौक्स औफिस पर बुरी तरह से घुटने टेकने वाली फिल्में निर्देशित करते रहे क्योंकि उन्हें सिनेमा के क्राफ्ट की समझ ही नहीं रही.

मगर ‘ताशकंद फाइल्स’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ से वे अचानक महान निर्देशक बन गए. अब विवेक रंजन अग्निहोत्री कोरोना महामारी से निबटने के लिए ‘कोवैक्सीन’ के निर्माण की कहानी पर साइंस ड्रामा फिल्म ‘द वैक्सीन वार’ ले कर आए हैं जोकि पहली बेहतरीन साइंस ड्रामा फिल्म बनतेबनते रह गई. उन की यह फिल्म ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ के पूर्व महानिदेशक बलराम भार्गव के 2021 के संस्मरण ‘गोइंग वायरल : मेकिंग औफ कोवैक्सिन’ पर आधारित है.

वैसे, विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म की शुरुआत में ही डा. बलराम भार्गव की इस किताब के साथ ही वैज्ञानिकों के इंटरव्यू लेने की भी बात कही है.

कहानी : ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ के पूर्व महानिदेशक बलराम भार्गव सर्तक हो जाते हैं. जिद्दी स्वभाव और इंसानी रिश्तों से परे डा. बलराम भार्गव ‘कोरोना बीमारी’ से छुटकारा पाने के लिए ‘कोवैक्सीन’ बनाने की दिशा में काम करना शुरू कर देते हैं. भार्गव को महिलाओं के प्रभुत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम प्रिया अब्राहम (पल्लवी जोशी), निवेदिता गुप्ता (गिरिजा ओक) और प्रज्ञा यादव (निवेदिता भट्टाचार्य) का समर्थन मिलता है.

कोवैक्सीन के निर्माण के असंभव कार्य के साथ सभी वैज्ञानिक ऐड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं, जिस के चलते उन की पारिवारिक जिंदगी भी सफर करती है. पर ऐसा करते हुए हर वैज्ञानिक के अंदर भारत को आत्मनिर्भर बनाने का जनून भी है लेकिन इन वैज्ञानिकों के प्रयास में रोड़ा अटकाने वाली ‘द डेली वायर’ की साइंस एडीटर व पत्रकार रोहिणी सिंह धूलिया (राइमा सेन) हैं, जो जीवन बचाने के लिए कोवैक्सिन बनाने के महान कार्य को विफल करने की हर मोड़ पर कोशिश करती हैं.

रोहिणी सिंह डा. भार्गव व अन्य वैज्ञानिकों से बात करना चाहती हैं मगर डा. भार्गव पत्रकारों को सुअर संबोधित करते हुए उन से बात नहीं करना चाहते और अपनी टीम को भी बात करने से मना करते हैं.

‘कोवैक्सीन’ बनाने की कहानी आखिरकार ‘कोवैक्सीन’ बनने के बाद भी खत्म नहीं होती। उस के बाद मीडिया को खलनायक बताने की कहानी है. कोवैक्सीन बनने के बाद सभी वैज्ञानिकों के साथ ही डाक्टर बलराम भार्गव भी प्रेस कौन्फ्रैंस में पत्रकारों से मुखातिब होते हैं और पत्रकारों को आतंकवादी बताते हैं.

लेखन व निर्देशन : फिल्मकार विवेक रंजन अग्निहोत्री लिखित पटकथा की कमजोरी के चलते यह फीचर फिल्म की बजाय डाक्यूमैंट्री ज्यादा लगती है. फिल्मकार ने अपनी सोच थोपने के लिए किताब से इतर जा कर फिल्म का बंटाधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कोवैक्सीन बनाने के लिए वैज्ञानिकों का साहस जरूर महत्त्वपूर्ण है मगर यह फिल्म वैज्ञानिकों के संघर्ष, उन के देशप्रेम को भी ठीक से चित्रित करने में विफल रही. फिल्मकार का सारा ध्यान पत्रकारिकता को कोसने में रही है.

जब 2 घंटे 41 मिनट लंबी फिल्म ‘द वैक्सीन वार’ की कहानी वैक्सीन के निर्माण के बाद खत्म होती नजर आती है, तभी मीडिया से युद्ध छेड़ दिया जाता है. फिल्म में पूरी तरह से ‘द डेली वायर’ की साइंस पत्रकार रोहिणी वालिया को एक विदेशी एजेंट के रूप में चित्रित किया गया है, जो तथ्यों पर टिके रहने से इनकार करने में क्रूर है और साथ ही ‘टूलकिट’ के लिए संदेह की वस्तु है जो उस की रिपोर्ट को सूचित करती है.

फिल्म में जब तक कोवैक्सीन बनने की कहानी चलती है, जब तक कहानी के केंद्र में डा. बलराम भार्गव व उन के वज्ञानिकों की टीम रहती है, तब तक फिल्म में रोचकता बनी रहती है. इस में भी सब से बड़ी कमी यह है कि वैज्ञानिकों के तमाम शब्द हर दर्शक के सिर के ऊपर से गुजरते हैं, जिस के चलते दर्शकों की फिल्म से रूचि खत्म हो जाती है.

डा. बलराम भार्गव जिद्दी हैं, पूरी तरह से मिशन के प्रति समर्पित हैं. उन के लिए इंसानी रिश्ते व भावनाएं कोई मूल्य नहीं रखते, यह खासियत फिल्म को नाटकीय जरूर बनाती है.

इंसान के तौर पर हम किसी इंसान को नापसंद करने का हक रखते हैं, मगर इस का यह अर्थ तो नहीं है कि हम उस इंसान के प्रति इंसानियत से परे जा कर शब्दों का उपयोग करें.

फिल्म के अंदर एक संवाद है जहां ‘भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ के महानिदेशक डा. बलराम भार्गव पत्रकारों को ‘सुअर’ कहते हैं. पहला सवाल यह है कि जिस पद पर डा. भार्गव आसीन हैं, उन्हें यह शब्द शोभा देता है? दूसरा सवाल क्या डाक्टर भार्गव ने अपनी किताब में भी पत्रकारों को ‘सुअर’ शब्द से संबोधित किया है?

यदि नहीं और यह शब्द फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री की दिमागी उपज है तो डा. भार्गव ने इस का विरोध क्यों नहीं किया? मालूम हो कि डा. भार्गव दावा कर चुके हैं कि उन्होंने यह फिल्म देखी है. सब से बड़ा आश्चर्य यह है कि खुद को ‘सुअर’ व आतंकवादी कहे जाने के बावजूद हमारे पत्रकार विवेक रंजन का गुणगान करने मे अपनी सारी उर्जा का निवेश कर रहे हैं.

वास्तव में फिल्मकार अपने विषय से भटक गए हैं. फिल्मकार भारत सरकार का गुणगान करने, डीएवीपी के लिए आवश्यक फिल्म बनाने, देश के प्रधानमंत्री की कार्यशैली की प्रशंसा करने, भारतीय परंपरा व सनातन धर्म की बात करने, मीडिया व पत्रकारों को कोसने की जिम्मेदारी निभाते हुए ‘साइंस ड्रामा’ बनाने में विफल रहे हैं. फिल्म में संवाद है, ‘स्वयं पर विश्वास ही सनातन है.’

फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं, जहां लगता है कि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति को दोहराया गया हो. ‘द वैक्सीन वार’ इस बात में यकीन करती है कि कोरोना वायरस चीन के वुहान शहर की एक प्रयोगशाला से लीक हुआ.

कोवैक्सीन निर्माण पर विवेक अग्निहोत्री फिल्म ‘द वैक्सीन स्टोरी’ ले कर आए हैं, जिस में विलेन कोरोना महामारी नहीं बल्कि भारत देश के पत्रकार हैं. उन का मानना है कि इन पत्रकारों को विदेश से धन मुहैया हो रहा है. परिणामतया फिल्म की कहानी वैक्सीन निर्माण बनाम भारतीय मीडिया पर ही केंद्रित हो कर रह गई है.

यहां तक कि क्लाइमैक्स पर पहुंचतेपहुंचते प्रैस कौन्फ्रैंस में विवेक रंजन अग्निहोत्री मीडिया को आतंकवादी तक घोषित कर देते हैं। वे अपने इस कृत्य से देश के सभी वैज्ञानिकों की मेहनत पर पानी फेरते हुए ‘कोवैक्सीन’ के निर्माण पर बनी इस फिल्म को एक यादगार फिल्म बनने से रोक देते हैं.

विवेक अग्निहोत्री फिल्म की विषयवस्तु के प्रति कितना ईमानदार हैं, इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि ‘कोवैक्सीन’ का उत्पादन कृष्णा एला की निजी कंपनी ‘भारत बायोटेक’ ने किया, मगर फिल्म में इस का उल्लेख बमुश्किल से किया गया है. फिल्म में एला का किरदार भी नहीं है और न ही एला को टेलीफोन के दूसरे छोर पर आवाज के रूप में चित्रित किया गया. इतना ही नहीं, फिल्म में डा. प्रिया का एक संवाद है जोकि अदालत पर भी कटाक्ष करता है.

जहां तक सिनेमा के क्राफ्ट का सवाल है तो इस कसौटी पर विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी पिछली फिल्मों ‘ताशकंद फाइल्स’ व ‘द कश्मीर फाइल्स’ की ही तरह ‘द वैक्सीन वार’ में भी बहुत कमजोर साबित हुए हैं. वैसे सिनेमा क्राफ्ट से इतर विवेक अग्निहोत्री अपने विचारों को अपने हिसाब से रखना अधिकार समझते हैं.

अभिनय : कलाकारों का चयन भी सही नहीं किया गया. ‘नेपोटिज्म’ के खिलाफ बात करने वाले विवेक रंजन अग्निहोत्री की हर फिल्म में उन की पत्नी व अभिनेत्री पल्लवी जोशी का होना अनिवार्य शर्त है.

विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म में जिन सरकारी संस्थाओं का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए फिल्म में हर वैज्ञानिक के असली नाम पर ही हर किरदारों के नाम रखे हैं, उस से यह संकेत मिलता है कि संभव है कि इस फिल्म के निर्माण में सरकारी खजाने का उपयोग किया गया हो.

महिला सशक्तिकरण का संदेश देते हुए यह फिल्म इस बात को भी रेखांकित करती है कि हमारे देश की महिला वैज्ञानिक ‘कोवैक्सीन’ बनाने के असंभव कार्य करते हुए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी अच्छे से संभालती हैं, खाना भी बनाती हैं और अपने पति से लिपस्टिक को ले कर प्रशंसा भी बटोरती हैं.

विवेक रंजन अग्निहोत्री की विवशता इस फिल्म में कोविड के समय छपे 12 लेखों, मीडिया व मीडिया के ईको सिस्टम को अपनी सोच के मुताबिक फिल्म की कहानी में पिरोना रही है. उन की विवशता यह रही कि उन्हें मीडिया को ‘आत्मनिर्भर भारत’ के खिलाफ चित्रित करना है. मीडिया को विलेन बताने वाले फिल्मकार विवेक रंजन अग्निहोत्री की उन पत्रकारों के बारे में क्या राय है जो कि उन्हें ‘स्टार निर्देशक ’साबित करने में जुटे हुए हैं, क्या यह पत्रकार भी उन की नजर में सुअर और आतंकवादी हैं?

फिल्म में करोना महामारी को ले कर बात नहीं की गई है. करोना के वक्त मौत की नींद सो चुके लोगों के दाह संस्कार की जो तसवीरें उस वक्त मीडिया ने दिखाया था, वह कुछ दिखा कर पत्रकार के घर काम करने वाली बाई के संवाद के माध्यम से यह कहा गया है कि उस वक्त इटली जैसे देश में इस से भी बड़ी दुर्दशा थी पर भारतीय मीडिया ने उस पर गौर नहीं किया.

कोवैक्सीन निर्माण की कहानी बयां करने वाली फिल्म में औक्सीजन की कमी, बीमारी के वक्त सरकारी प्रबंधन, कोविड के मरीजों को बचाने में जुटे डाक्टरों आदि पर कोई बात नहीं की गई.

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