मध्य प्रदेश के एकएक गांव, जिन में अधिकतर लोग छोटी जाति के रहते हैं, जुलूस की शक्ल में दशा माता का विसर्जन करने जा रहे थे. तभी हाइवे पर तेज रफ्तार से आते एक ट्रक ने बेकाबू हो कर जुलूस को रौंद दिया. जिस से मौके पर ही 3 लोगों की मौत हो गई और कई श्रद्धालु घायल हो गए.

पहली नजर में गलती बेशक ट्रक ड्राइवर की है जो ट्रक की रफ्तार काबू में नहीं रख सका. पर धर्म के नाम पर सड़क को घेर कर भीड़ जमा कर कर मूर्ति विसर्जन के लिए नाचतेगाते जाना किस की गलती है. सड़कें धार्मिक कार्यक्रमों के प्रचार के लिए हैं या वाहनों के लिए. लोग खुद के जनून को काबू में नहीं रख पाते और बेवक्त मारे जाते हैं. कहने को तो दशा माता या कोई और मूर्ति, जिस का विसर्जन होने वाला है, भक्तों की जिंदगी संवारती है, पर वह भी ट्रक ड्राइवर जैसी लापरवाह और बेरहम ही निकले तो सोचना जरूरी है कि आखिर क्यों बचाने वाला भगवान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहता है.

झांकियों का सच

पिछले दशकों में धार्मिक कार्यक्रमों की गिनती अचानक बढ़ी और कई गुना होने लगी है. आएदिन गणेश, दुर्गा, राम और कृष्ण की झांकियां लगती रहती हैं. कुछ जगह ये झांकियां 8-9 दिनों तक चलती हैं. इन में जम कर पूजापाठ और नाचगाना होता है. भीड़ भी ऐसी उमड़ती कि पांव रखने की जगह नहीं मिलती और धक्कामुक्की में ही लोगों को आनंद आने लगता है.

झांकियों के दौरान हर कभी, हर कहीं सड़कें घेर ली जाती हैं. जाम होता है जिस से आम लोगों को परेशानी होती है. इन झांकियों में अरबों नहीं, खरबों रुपए फूंके जाते हैं. इस से चंदे की शक्ल में आम लोगों को जरूर जम कर आमदनी होती है.

लोग पहले 8-10 के गुट में पंडाल में रखी मूर्ति के सामने 8-9 दिन खूब चढ़ावा व प्रसाद चढ़ाते हैं. इस बाबत उन्हें कैसेकैसे उकसाया जाता है, यह वे खुद भी नहीं समझ पाते. गणेश और दुर्गा की झांकियां अब ब्रैंडेड हो चली हैं, जिन में मूर्ति ही करोड़ों रुपए की रखी जाती हैं और इस से भी ज्यादा रकम बिजली, सजावट व नाचगाने पर खर्च किया जाता है. भोपाल के न्यू मार्केट में गणेश की सोने की भी मूर्ति रखी गई तो सहज लगा कि देश में कोई गरीबी या महंगाई नहीं है.

यही हाल दुर्गा की झांकियों का है. नवरात्र के दिनों में भक्तों और भक्ति दोनों का जनून देखते ही बनता है. मामला इस तरह का गंभीर है कि एक राज्य के पीओपी बोर्ड ने पीओपी की मूर्तियों को बनाने पर बैन लगाया क्योंकि विसर्जन के बाद पीओपी जमीन में घुलती नहीं है. इस पर भक्त सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए. गनीमत है सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2023 में इस पागलपन को धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं माना और भक्तों को भगा दिया.

फिर होता है विसर्जन

8-9 दिन तबीयत से पैसा और वक्त बरबाद करने के बाद होता है इन झांकियों की मूर्तियों का विसर्जन, जिन में लोग पागलों की तरह झूमतेनाचतेगाते मूर्ति को ट्रक, ठेके या दूसरे किसी वाहन में सजा कर नदियों, तालाबों और समुद्रों के किनारे ले जाते हैं. डोल ग्यारस, अनंत चतुर्दशी और नवरात्र में नवमी व दशहरे के दिन देश की जिंदगी झाकियों में ठहर सी जाती है.

विसर्जन के पहले चल समारोह होता है, जो अब गांवदेहातों में भी इफरात से होने लगे हैं. लोग बैंडबाजे के साथ मूति को सजा कर नदी, तालाब या समंदर किनारे ले जाते हैं और बड़े जज्बाती हो कर, गला फाड़ कर जयकारे से मूर्ति को पानी में बहा देते हैं.

जानलेवा जनून

विसर्जन जलसों के दौरान भक्तों का जनून देखते ही बनता है और मूर्ति को पानी में बहाने के दौरान कितने लोग पानी में डूब कर मर जाते हैं. इस का ठीकठाक आंकड़ा तो किसी के पास नहीं क्योंकि ऐसे लोग इसे दुर्घटना मान कर चुप हो कर मृत का दाह कर देते हैं.

राजधानी दिल्ली में बहुत तरह के इंतजाम, वरदी में नियुक्त गार्डों के बावजूद अब भी कई लोग मूर्ति विसर्जन के दौरान डूब कर मरते हैं. यमुना नदी में मूर्ति के साथ डूब कर मरने वालों की तादाद भी रहती है जबकि यमुना में विसर्जन पर बैन है.

गणेश प्रतिमा के विसर्जन के दौरान नदियों के अलगअलग घाटों पर मूर्ति गहरे पानी में ले जाने से भक्त लोग डूब कर मरते रहते हैं, जबकि, हरेक घाट पर चाकचौबंद इंतजाम पुलिस के होते हैं और गोताखोर भी तैनात रहते हैं. इस के बाद भी हादसे हो ही जाते हैं क्योंकि धर्म और दूसरे नशों में डूबे उन्मादी भक्त किसी की सुनते नहीं. आइए देखें ऐसे ही कुछ ताजा हादसे-

– आगरा में गणेश विसर्जन के दौरान पोइया घाट पर 5 युवक डूब गए जिन में से संभवत 3 की मौत हो गई क्योंकि 28 सितम्बर की देर रात तक पुलिस को उन की कोई खबर नहीं मिली थी.

– इसी दिन दिल्ली में गणेश विसर्जन के दौरान यमुना नदी में डूबने से 2 सगे भाइयों की मौत हो गई. निठारी में रहने वाला 6 साल का कृष्णा और 15 साल का धीरज मूर्ति विसर्जित करते करते खुद ही विसर्जित हो गए.

– 26 सितम्बर को मध्यप्रदेश के दतिया के सिद्ध बाबा मंदिर कैंपस में हुए एक बड़े हादसे में 10 बच्चे विसर्जन कुंड में डूब गए, जिन में से 3 मासूम बच्चियां और एक बच्चा बेवक्त काल के गाल में समा गए. कोई भगवान या मूर्ति इन्हें नहीं बचा पाए. ये सभी छोटी जाति के थे.

– उत्तर पूर्वी दिल्ली के न्यू उस्मानपुर इलाके में सपरिवार गणेश विसर्जन के लिए गए 18 वर्षीय युवक सूरज की मौत 28 सितम्बर को यमुना खादर में डूबने से हो गई. सूरज 4 बहनों का इकलौता भाई था.

– इसी दिन उत्तर प्रदेश के उन्नाव में गणेश विसर्जन के दौरान एक छात्र और शिक्षक की डूबने से मौत हो गई. हर बार की तरह देश भर में सैकड़ों ऐसे हादसे हुए जिन की लिस्ट बहुत लम्बी है.

पिछले साल बिहार के गया में सरस्वती की मूर्ति का विसर्जन करने गए 2 युवक नदी में डूब कर मर गए थे, जबकि 3 नौजवानों को गोताखोरों ने वक्त रहते बचा लिया था. इस पर भी भक्तों ने जम कर प्रशासन को कोसा था. बात समझ से परे है कि प्रशासन की इस में क्या गलती है. बारबार अपील करने के बाद भी ये नौजवान भक्त गहरे पानी में जा कर मूर्ति बहाने की जिद पर खड़े थे. ऐसे में सरस्वती माता ने इन्हें बुद्धि नहीं दी, उलटे जान ले ली.

कौन है जिम्मेदार

ये तो कुछ ही उदाहरण थे, वरना तो हर साल गणेश चतुर्थी और नवरात्र के दौरान मूर्ति विसर्जन में हजारों की तादाद में लोग मारे जाते हैं. आजकल मरने वालों में अधिकांश लोग दलित और छोटी जाति के होते हैं क्योंकि मूर्ति ढोने का मेहनतभरा काम बड़ी चालाकी से उन के सिर पर ही थोप दिया गया है. वैसे वे अछूत हैं पर चूंकि ऊंची जातियों के युवाओं में इस तरह काम की आदत नहीं रही तो दलितों को स्थान मिलने लगा है.

जिम्मेदार प्रशासन नहीं, सरकार नहीं, असल में वह पुजारी जो 8-10 दिन झांकी में बैठ कर पूजापाठ, आरती और यज्ञ, हवन करता है लेकिन मूर्ति विसर्जन के लिए जाता नहीं है. दूसरे जिम्मेदार छोटी जाति वालों का मान लिया गया है जिन्हें जान से खेलने में डर नहीं लगता. उन्हें लगता कि इस से उन की जाति सुधर रही है.

इन लोगों के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भर दी गई कि झांकी की मूर्ति जो भी विसर्जित करता है उस पर भगवान ज्यादा खुश होता है. यह खुशी किस तरह ही होती है, यह मौतों से समझ आता है.

विसर्जन के दौरान भक्ति का ढोंग करने वाले लोग छक कर शराब भी पीते हैं और खूब हुड़दंग मचाते हैं. जैसे बिना शराब पिए हिंदुओं की बरातों में डांस नहीं होता, ठीक वैसे ही बगैर नशा किए विसर्जन समारोह में मजा नहीं आता. एक झांकी संचालक की मानें तो खुद झांकी समिति वाले ही विसर्जन के दिन मूर्ति ढोने वालों को शराब मुहैया कराते हैं जिस से उन्हें होश न रहे और वे मुफ्त की हम्माली करते रहें.

मूर्ति विसर्जन के दौरान मरने वालों में 80 फीसदी बच्चे और नौजवान होते हैं. बेरहम भगवान क्यों इन्हें अपने पास बुला लेता है, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. मरने वालों के घर वाले रोतेबिलखते रहते हैं और उस घड़ी को कोसते नजर आते हैं जब उन्होंने बच्चों को विसर्जन में जाने की इजाजत दी थी.
सरकार को चाहिए कि वह झांकियों के शोर, अनापशनाप पैसों की बरबादी और विसर्जन पर रोक लगाने की पहल करे जिस के चलते हजारों लोग हर साल बेमौत मारे जाते हैं.

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