जुलाई महीने में समय पर कोरियर न पहुंचाने के एक मामले में फतेहाबाद के उपभोक्ता फोरम ने कोरियर कंपनी के स्थानीय डीलर व कंपनी दोनों पर 22 हजार रुपए का जुर्माना ठोंक दिया. इस मामले में राजीव जैन निवासी पालिका बाजार ने उपभोक्ता फोरम में दावा दायर किया था.

राजीव जैन ने बताया था कि उस ने फर्स्ट फ्लाइट कोरियर के माध्यम से 50 हजार रुपए का चैक दिल्ली की एक फाइनैंस फर्म को भेजा था. यह चैक उस ने शेयर खरीदने के लिए भेजा था. कोरियर भेजने के एवज में उस से कंपनी के स्थानीय डीलर ने 50 रुपए लिए थे और यह कोरियर 6 जुलाई, 2018 को दिल्ली बताए गए पते पर पहुंच जाना था, लेकिन कोरियर 19 जुलाई को पहुंचा, जिस कारण वह समय पर शेयर नहीं खरीद पाया.

उस ने बताया कि कंपनी द्वारा समय पर कोरियर न पहुंचाने के कारण उसे भारी नुकसान हुआ. इस मामले की सुनवाई करते हुए उपभोक्ता फोरम के अध्यक्ष राजबीर सिंह ने कंपनी के डीलर सुनील व कंपनी पर 22 हजार रुपए का जुर्माना लगाया.

ऐसा ही एक मामला रोहतक के जिला उपभोक्ता फोरम में देखने को मिला. वहां एक रिटायर्ड सूबेदार ने बैंक के खिलाफ उपभोक्ता फोरम का दरवाजा खटखटाया. उन के खाते से बैंक ने 735 रुपए अधिक काट लिए थे. कारण पूछने पर बैंक इन में से 36 रुपए का हिसाब नहीं दे पाया. रिटायर्ड सूबेदार को न केवल 36 रुपए रिफंड दिलाए गए, बल्कि फोरम के निर्णय के आधार पर बैंक को 5 हजार रुपए का मुआवजा भी बुजुर्ग को देना पड़ा.

बचपन में सभी ने सुना होगा कि उपभोक्ता यदि एक माचिस की डबिया से ले कर गाड़ी तक कुछ भी खरीदता है तो उस का एक हिस्सा टैक्स के रूप में कटता है जो कि सरकार के पास जाता है और इसे ही सेल टैक्स कहा जाता है. यानी किसी माल की बिक्री व खरीद पर लगाए जाने वाले कर को सेल टैक्स कहा जाता है.

लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि सरकार के इस टैक्स लेने के साथ, हमारा संविधान, न्याय हर उपभोक्ता को यह गारंटी भी देता है कि जो सामान उस ने खरीदा है या जो सेवा उस ने ली है, उस के साथ किसी भी तरह की धोखाधड़ी न की गई हो और सरकार द्वारा तय मानकों के आधार पर वह सेवा व सामान उपभोक्ता तक पहुंचे हों. जैसा कि ऊपर दिए मामलों में हुआ.

उपभोक्ता के इन्हीं मामलों को निबटाने व सुल?ाने के लिए स्पैशल अदालत बनाई गई हैं. इन अदालतों को एक सिविल कोर्ट को दी गई शक्तियों के बराबर शक्तियां दी गई हैं कि वे किसी मामले का निबटान अपने स्तर पर कर सकें, जिसे उपभोक्ता अदालत या उपभोक्ता फोरम कहा जाता है.

उपभोक्ता अदालतें उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के बाद वजूद में आईं. इस अधिनियम के साथ उपभोक्ता फोरम की शुरुआत हुई. उपभोक्ता का मतलब ग्राहक होता है. पहले इंडिया में उपभोक्ता के लिए कोई परफैक्ट या सीधे कानून नहीं थे जो सिर्फ ग्राहकों से जुड़े हुए मामले ही निबटाएं, लेकिन इस अधिनियम के बाद ग्राहकों को अधिकार मिले.

पहले, किसी भी ग्राहक के ठगे जाने पर उसे सिविल कोर्ट में मुकदमा लगाना होता था. मसलन, भारत में सिविल कोर्ट पर काफी कार्यभार है, ऐसे में ग्राहकों को परेशानी का सामना करना पड़ता था, फिर सिविल कोर्ट में मुकदमा लगाने के लिए कोर्ट फीस भी अदा करनी होती थी. इस तरह ग्राहकों पर दुगनी मार पड़ती थी. एक तरफ वे ठगे जाते थे, दूसरी तरफ उन्हें अपने रुपए खर्च कर के अदालत में न्याय मांगने के लिए मुकदमा लगाना पड़ता था.

इन सभी बातों को ध्यान में रख कर भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 बनाया गया जिसे कंज्यूमर प्रोटैक्शन एक्ट 1986 कहा जाता है. अभी हाल ही में इस एक्ट में 2019 में काफी सारे संशोधन किए गए, जिस से यह कानून ग्राहकों के हित में और ज्यादा आसन हो गया है.

उपभोक्ता को मिलने वाले अधिकार

कानून के तहत एक ग्राहक को यह अधिकार है कि वह किसी सामान को खरीदने पर उस की गुणवत्ता, शुद्धता, क्षमता, कीमत और मानकों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकता है.

ग्राहक को सुरक्षा का अधिकार होता है. यानी माल और सेवाओं को उपयोग करते हुए सुरक्षा का अधिकार. यह अधिनियम स्वास्थ्य सेवा, फार्मास्यूटिकल्स और फूड इंडस्ट्री जैसे क्षेत्रों में लागू है.

ग्राहक को अपनी पसंद का कोई प्रोडक्ट चुनने का अधिकार शामिल है. चुनने का अधिकार का मतलब है कोई भी विक्रेता ग्राहक की पसंद को गलत तरीके से प्रभावित नहीं कर सकता और यदि कोई भी विक्रेता ऐसा करता है तो उसे चुनने के अधिकार के साथ हस्तक्षेप माना जाएगा.

इस के अलावा सुने जाने का अधिकार है. यानी उपभोक्ता के हितों की उचित मंचों पर सुनवाई होगी. इस के साथ निवारण का अधिकार मिलता है. अनुचित व्यापार या उपभोक्ताओं के साथ बेईमानी, शोषण के विरुद्ध के खिलाफ यह अधिकार है.

केस की प्रक्रिया

एक ग्राहक खुद के ठगे जाने या धोखाधड़ी के मामले में उपभोक्ता अदालत का रुख कर सकता है. ऐसे में ग्राहक इस केस को एक ग्राहक, दुकानदार या फिर सेवा देने वाले व्यक्ति, कंपनी पर लगा सकता है. जैसे ग्राहक एक वाशिंग मशीन खरीदता है और वह खराब निकलती है या वह तय मानकों पर काम नहीं करती है, तब दुकानदार के खिलाफ मुकदमा लगा सकते हैं और उस कंपनी को पार्टी बना सकते हैं जिस ने उस प्रोडक्ट को बनाया है.

ऐसा मुकदमा ग्राहक उस शहर में लगा सकता है जहां पर वह रहता है और जहां से उस ने वह प्रोडक्ट खरीदा है. इस के लिए ग्राहक को कंपनी के शहर में जाने की जरूरत नहीं है. 2019 के कानून के तहत उपभोक्ताओं की मदद के लिए 3 स्तरीय प्रणाली है, यानी वह जिला आयोग, राज्य आयोग व राष्ट्रीय आयोग में अपनी बात रख सकता है.

सेवा में भी अधिकार

बहुत बार उपभोक्ता सम?ा नहीं पाता कि उसे किसकिस की धोखाधड़ी के खिलाफ अधिकार प्राप्त हैं. उपभोक्ता उन के खिलाफ भी मुकदमा दायर कर सकता है जो उस से सेवा के बदले फीस लेते हैं, जैसे डाक्टर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटैंट. हालांकि पहले वकीलों को ले कर संशय था क्योंकि इसे सामाजिक काम से जोड़ा जा रहा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वकील अगर सेवा में कमी करता है तो उस के खिलाफ मुकदमा किया जा सकता है.

इस के अलावा सर्विस क्षेत्र में कार्य करने वाली किसी भी कंपनी के विरुद्ध उपभोक्ता कानून में मुकदमा लगाया जा सकता है, जैसे किसी टैलीकौम कंपनी या फिर कोई इंश्योरैंस कंपनी. मोटर व्हीकल में ऐक्सिडैंट होने पर मुकदमा कंज्यूमर फोरम में नहीं सुना जाता बल्कि उस के लिए अलग से ट्रिब्यूनल है. हालांकि वाहन चोरी होने पर कंपनी द्वारा क्लेम नहीं दिए जाने पर मुकदमा कंज्यूमर फोरम में ही लगाया जाता है.

हैल्थ इंश्योरैंस करने वाली कंपनियों के विरुद्ध भी मुकदमा कंज्यूमर फोरम में लगाया जाता है. ऐसा मुकदमा तब लगाया जाता है जब हैल्थ इंश्योरैंस कंपनी अपने ग्राहक को क्लेम देने से इनकार कर देती है. यदि इनकार करने के कारण उचित नहीं हैं तो मुकदमा फोरम के समक्ष लगाया जा सकता है. बैंकों के विरुद्ध भी सेवा में कमी के आधार पर मुकदमा लगाया जा सकता है. एक ग्राहक सेवा ले या फिर कोई उत्पाद खरीदे- दोनों ही स्थितियों में उस के द्वारा मुकदमा कंज्यूमर फोरम के समक्ष लगाया जा सकता है.

बेहतर पक्ष

अच्छी बात यह है कि मुकदमा दायर करते हुए इन अदालतों में नाममात्र की फीस होती है. अब इस तर्क को सम?ाने की जरूरत है कि एक तो फरियादी पहले ही खुद के साथ धोखाधड़ी किए जाने से परेशान है, उस के बाद अगर फीस का बो?ा उस पर पड़े तो यह दोगुनी मार होगी, ऐसे में यहां फीस कम होती है.

एक करोड़ रुपए तक के मामले डिस्ट्रिक्ट आयोग तक ही लगाए जाते हैं. इस के ऊपर के मामले राज्य आयोग के समक्ष जाते हैं. 5 लाख रुपए तक के दावे के लिए कोर्ट फीस नहीं होती. इस के ऊपर के दावे के लिए भी नाममात्र की कोर्ट फीस होती है. 5 लाख रुपए के बाद 5 लाख से 10 लाख रुपए तक मात्र 200 रुपए की कोर्ट फीस है, 10 लाख से 20 लाख रुपए तक 400 रुपए की कोर्ट फीस है, 20 लाख से 50 लाख रुपए तक 1,000 रुपए कोर्ट फीस है, 50 लाख से एक करोड़ रुपए तक 2,000 रुपए की कोर्ट फीस है.

राज्य आयोग में एक करोड़ रुपए से अधिक और 2 करोड़ रुपए तक 2,500 रुपए, 2 करोड़ रुपए से अधिक और 4 करोड़ रुपए तक 3,000 रुपए, 4 करोड़ रुपए से अधिक और 6 करोड़ रुपए तक 4,000 रुपए, 6 करोड़ से 8 करोड़ रुपए तक 5,000 रुपए और 8 करोड़ से 10 करोड़ रुपए तक 6,000 रुपए कोर्ट फीस है. इस के बाद 10 करोड़ रुपए से अधिक वाले मामले राष्ट्रीय आयोग में जाते हैं जिस की फीस 7,500 रुपए होती है.

लेकिन यह भी सच है कि ऐसी अदालतों में निचले तबके के पीडि़त बेहद कम ही पहुंचते हैं. इस में बहुत हद तक, जानकारी की कमी, समय और कोर्ट के पचड़ों में न पड़ना कारण होते हैं. अकसर ऐसे मामले मध्यवर्गीय लोगों द्वारा पेश किए जाते हैं. द्य

शिकायत दर्ज कैसे करें

  • आप को अपने केस के अनुसार, जिला फोरम, राज्य आयोग और राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपनी शिकायत के साथ एक निर्धारित शुल्क का भुगतान करना होगा.
  • अपनी शिकायत का ड्राफ्ट तैयार करना होगा जिस में यह बताना जरूरी होगा कि आप केस क्यों दाखिल करना चाहते हो.
  • शिकायत में यह बताना भी शामिल है कि मामला इस मंच या फोरम के क्षेत्राधिकार में कैसे आता है.
  • शिकायतपत्र के अंत में आप को अपने हस्ताक्षर करने जरूरी हैं. यदि आप किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से शिकायत दर्ज कराना चाहते हैं तो शिकायतपत्र के साथ एक प्राधिकरण पत्र यानी औथोराइजेशन लैटर लगाना होगा.
  • शिकायतकर्ता का नाम, पता, शिकायत का विषय, विपक्षी पक्ष या पार्टियों के नाम, उत्पाद का विवरण, पता, क्षतिपूर्ति राशि का दावा इत्यादि का उल्लेख जरूरी है.
  • अपने आरोपों का समर्थन करने वाले सभी दस्तावेजों की प्रतियां, जैसे खरीदे गए सामानों के बिल, वारंटी और गारंटी दस्तावेजों की फोटोकौपी, कंपनी या व्यापारी को की गई लिखित शिकायत की एक प्रति और उत्पाद को सुधारने का अनुरोध करने के लिए व्यापारी को भेजे गए नोटिस की कौपी भी लगा सकते हैं.
  • आप अपनी शिकायत में क्षतिपूर्ति के अलावा, धनवापसी, मुकदमेबाजी में आई लागत और ब्याज, उत्पाद की टूटफूट व मरम्मत में आने वाली लागत का पूरा खर्चा मांग सकते हैं. आप इन सभी खर्चों को अलगअलग मदों के रूप में लिखना न भूलें और कुल मुआवजा शिकायत फोरम की कैटेगरी के हिसाब से ही मांगें.
  • अधिनियम में शिकायत करने की अवधि घटना घटने के बाद से 2 साल तक है.  अगर शिकायत दाखिल करने में देरी हो तो देरी की व्याख्या करें जो कि ट्रिब्यूनल द्वारा स्वीकार की जा सकती है.
  • आप को शिकायत के साथ एक हलफनामा पेश करने की भी आवश्यकता है कि शिकायत में बताए गए तथ्य सही हैं.
  • शिकायतकर्ता किसी भी वकील के बिना किसी व्यक्ति या उस के अपने अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा शिकायत पेश कर सकता है. शिकायत पंजीकृत डाक द्वारा भेजी जा सकती है. शिकायत की कम से कम 5 प्रतियों को फोरम में दाखिल करना है. इस के अलावा, विपरीत पक्ष के लिए अतिरिक्त प्रतियां भी जमा करनी होंगी.
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