लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को जो अधिकार देश के मामले में होता है वही अधिकार राज्यों के मामलों में मुख्यमंत्रियों को होता है. भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकारों के सभी 10 भाजपाई मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चंगुल में हैं. एक दौर वह था कि कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद पर किस को बैठाया जाए, इस का फैसला कांग्रेसशासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के वोटों से हुआ था.

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के लिए प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं था. जवाहर लाल नेहरू ने इंदिरा को अपने जीतेजी सक्रिय राजनीति से दूर रखा था. अपने उत्तराधिकारी के तौर पर नेहरू ने कभी अपनी बेटी का नाम नहीं लिया. यही कारण था कि जवाहर लाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बन गए. 11 जनवरी, 1966 की रात ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया. गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना दिया गया.

इस के बाद नए प्रधानमंत्री की तलाश शुरू हो गई. प्रधानमंत्री बनाने की जिम्मेदारी कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज के कंधों पर आ गई. पार्टी के सामने प्रधानमंत्री बनने लायक 4 नाम थे- के कामराज, गुलजारी लाल नंदा, इंदिरा गांधी और मोरारजी भाई देसाई. गुलजारी लाल नंदा चाहते थे कि 1967 के आम चुनाव तक वे प्रधानमंत्री पद पर बनें.

इंदिरा गांधी को मिले 12 वोट

प्रधानमंत्री बनने की रेस में इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई और गुलजारी लाल नंदा आगे बढ़ रहे थे. के कामराज कांग्रेस संगठन मे ही बने रहना चाहते थे.

14 जनवरी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को ले कर कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक हुई. उस बैठक में उम्मीदवारों को ले कर कोई निष्कर्ष नहीं निकला. तब कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्रियों को दिल्ली बुलाया. सभी 14 मुख्यमंत्रियों की बैठक हुई जिस में से 12 ने इंदिरा गांधी को समर्थन देने की बात कही.

पीएम बनने के लिए जितने नाम थे, उन में बेहतर इंदिरा थीं. इंदिरा भारतीयता और आधुनिकता दोनों को बैलेंस करना जानती थीं. मोरारजी देसाई के पक्ष में गुजरात और यूपी के मुख्यमंत्रियों को छोड़ कर कोई नहीं था. इस तरह इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव हुआ. मोरारजी देसाई भारत के उपप्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बने.

राजनीतिक दलों में उन की विचारधारा सब से प्रमुख होती है. कांग्रेस की विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की है. वह धर्मनिरपेक्ष राजनीति को मानने वाली है. देश में 2 और विचारधाराएं हैं जिन में से एक वामपंथी यानी लैफ्ट विंग और दूसरी दक्षिणपंथी यानी राइट विंग है. अलगअलग दल इन विचारधाराओं को मानते हैं.

क्या हैं वामपंथ और दक्षिण पंथ

जब भी राजनीति की बात होती है, वामपंथ और दक्षिणपंथ ये दोनों शब्द बहुत सुनाई देते हैं. भारत में मार्क्सवादी पार्टियों को वामपंथी पार्टियां और हिंदुत्व की विचारधारा वाली पार्टियों को दक्षिणपंथी पार्टियां कहा जाता है. विश्व स्तर पर बात की जाए तो उदार कहे जाने वाले विचारों के लिए वामपंथी यानी लैफ्ट विंग और रूढि़वादी यानी कंजर्वेटिव के लिए दक्षिणपंथी यानी राइट विंग शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है. शुरुआत में वामपंथ और दक्षिणपंथ का विचारधारा से कोई मतलब नहीं था. यह सिर्फ असैंबली में बैठने की एक व्यवस्था थी.

साल 1789 था और गरमी का मौसम था. फ्रैंच नैशनल असैंबली के सदस्य संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए जमा हुए. 16वें किंग लुई को कितना अधिकार मिलना चाहिए, इस को ले कर सदस्यों के बीच काफी मतभेद था. सदस्य 2 हिस्सों में बंट गए. एक हिस्सा उन लोगों का था जो राजशाही के समर्थक थे और दूसरे वे सदस्य थे जो राजशाही के खिलाफ थे. उन्होंने अपने बैठने की जगह भी बांट ली.

राजशाही के विरोधी क्रांतिकारी सदस्य पीठासीन अधिकारी की बाईं ओर बैठ गए जबकि राजशाही के समर्थक कंजर्वेटिव सदस्य पीठासीन अधिकारी के दाईं ओर बैठ गए. इस तरह वहां से लैफ्ट विंग और राइट विंग का कौन्सेप्ट वजूद में आ गया. दोनों विंग की सोच अलगअलग है. दोनों के अपने तर्क हैं.

वामपंथी विंग से ताल्लुक रखने वाले लोगों का मानना है कि समाज के हर इंसान के साथ एकजैसा व्यवहार होना चाहिए, भेदभाव नहीं होना चाहिए. यह विचारधारा बराबरी, बदलाव और प्रगति को बढ़ावा देने पर फोकस करती है. इस के अलावा, यह अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलने की बात कहती है, ताकि बराबरी का लक्ष्य हासिल किया जा सके. वामपंथी विचार में राष्ट्रवाद का मतलब है सामाजिक बराबरी.

दक्षिणपंथी विचारधारा रूढि़वादी मानी गई है. इस विचारधारा की आर्थिक नीति में कम टैक्स वसूलने की बात कही गई है. इस में अधिकारियों, परंपराओं और राष्ट्रवाद को अहम दरजा दिया गया है. इस विचारधारा वाले अपने मूल विचारों से अलग नहीं होते हैं.

कुछ समय तक समाचारपत्रों ने लैफ्ट और राइट विंग का इस्तेमाल किया. 1790 तक करीब यह टर्म चलता रहा. फिर जब नेपोलियन बोनापार्ट का फ्रांस में शासन आया तो कई सालों तक लैफ्ट और राइट का कौन्सैप्ट गायब रहा और साथ ही, फ्रैंच असैंबली के अंदर दाएं व बाएं बैठने की कोई व्यवस्था नहीं रही. फिर 1814 में संवैधानिक राजशाही के शुरू होने के साथ ही लिबरल और कंजर्वेटिव असैंबली में दाएं और बाएं बैठने लगे. इस के बाद 19वीं सदी के मध्य तक फ्रांस के स्थानीय अखबारों में विपरीत राजनीतिक विचारधाराओं के लिए लैफ्ट और राइट का इस्तेमाल होने लगा.

राजाओं सा व्यवहार करते प्रधानमंत्री

भारत की राजनीति में दक्षिणपंथी विचारधारा का युग चल रहा है यानी सत्ता पर इसी विचारधारा वालों का कब्जा है. यही वजह है कि सारे फैसले रूढि़वादी विचारधारा के हिसाब से लिए जा रहे हैं. परंपराओं और राष्ट्रवाद को महत्त्व दिया जा रहा है. लोकतंत्र राजशाही में बदल सा गया है. संसद के नए भवन के उद्घाटन के समय ‘सिगोंल’ को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक माना गया. जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई संसद का उद्घाटन किया वह किसी राजा के राज्याभिषेक जैसा ही था. संविधान की जगह पर परंपरा और राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा ही व्यवहार अपने मुख्यमंत्रियों से कर रहे हैं.

इस समय देशभर में भाजपा के 10 मुख्यमंत्री हैं. इन में अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू, असम में हिमंत बिस्वा सरमा, गोवा में प्रमोद सावंत, गुजरात में भूपेंद्रभाई पटेल, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, मणिपुर में एन बीरेन सिंह, त्रिपुरा में माणिक साहा, उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ शामिल हैं. इन सभी के साथ प्रधानमंत्री का व्यवहार केंद्र और राज्य वाला नहीं है.

प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी के मुख्यमंत्रियों पर हावी हैं. इस का एक बुरा प्रभाव पार्टी पर यह पड़ रहा है कि मुख्यमंत्री क्षेत्रीय ताकत नहीं बन पा रहे. कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा का मातृ संगठन आरएसएस द्वारा यह कहा जा रहा है कि प्रदेश स्तर पर नेताओं का विकास नहीं हो पा रहा.

साल 2014 के बाद से हालात और भी अधिक बदले हैं. वैसे जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के साथ उन का छत्तीस का आंकड़ा बन गया था. हालात इस कदर खराब हुए कि अयोध्या के नायक कहे जाने वाले कल्याण सिंह को भाजपा छोड़नी पड़ी. कुछ सालों के बाद भाजपा में उन की वापसी हो पाई.

कभी प्रधानमंत्री उम्मीदवार की रेस में थे शिवराज सिंह चौहान

भाजपा के 10 मुख्यमंत्रियों में सब से सीनियर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं. 2014 लोकसभा चुनाव के लिए जब भारतीय जनता पार्टी जिन नेताओं में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का नाम तलाश रही थी, शिवराज सिंह चौहान उन में से एक थे. 2023 में शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश में सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहने वाले भाजपा के नेता बन गए. शिवराज सिंह चौहान 15 साल से अधिक समय से मुख्यमंत्री हैं. वे 4 बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करने वाले पहले भाजपा नेता हैं.

शिवराज सिंह चौहान एकमात्र नेता भी हैं जो भाजपा के ‘वाजपेयी-आडवाणी’ युग के दौरान मुख्यमंत्री बने और अभी भी सत्ता में हैं. भाजपा के संसदीय बोर्ड द्वारा पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुने जाने के बाद चौहान ने नवंबर 2005 में पहली बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. भाजपा नेता बाबूलाल गौर के स्थान पर उन को मुख्यमंत्री बनाया गया था. 2018 में भाजपा के विधानसभा चुनाव हारने की वजह से कांग्रेस की सरकार बनी, शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा. 2020 में कांग्रेस की सरकार गिर गई. भाजपा ने वापस सरकार बनाई तो शिवराज सिंह चौहान फिर से मुख्यमंत्री बन गए.

साल 2013 में मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव था. शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के लिए यह चुनाव बेहद महत्त्वपूर्ण था. एक तो शिवराज सिंह चौहान खुद को मध्य प्रदेश में बीजेपी के सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित करने की चाहत के साथ इस चुनाव में उतर रहे थे, दूसरे, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में बड़े बदलाव की तैयारी शुरू हो गई थी. नरेंद्र मोदी भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश कर रहे थे. उस समय शिवराज सिंह चौहान का कद नरेंद्र मोदी से कम नहीं था. भाजपा में मोदी बनाम शिवराज का माहौल था. इस को हवा देने का काम भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने किया.

लालकृष्ण आडवाणी ने ग्वालियर की एक सभा में शिवराज सिंह चौहान को भाजपा का नंबर एक मुख्यमंत्री बता दिया. इस से शिवराज के लिए मुश्किल खड़ी हो गई. उस समय तक भाजपा का एक बड़ा तबका मोदी के समर्थन में खड़ा हो चुका था. शिवराज ने सफाई देने के लिए कह दिया कि भाजपा के नंबर वन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.

2013 में मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव किस के चेहरे पर लड़ा जाए, यह भी विवाद रहा. शिवराज सिंह चौहान को लग रहा था कि ये लोग उन्हें मोदी के मुकाबले खड़ा करने की योजना में हैं. मोदी बनाम शिवराज का विवाद तब खत्म हुआ जब 2014 में मोदी को बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार औपचारिक रूप से घोषित किया गया. असल में गुजरात में मोदी ने अपने नेतृत्व में भाजपा को लगातार जीत दिलाई है तो शिवराज ने मध्य प्रदेश में यही किया है. मोदी के आक्रामक चेहरे के मुकाबले शिवराज के सौम्य चेहरे को आगे करने की कोशिश भाजपा का एक बड़ा तबका कर रहा था. शिवराज सिंह चौहान खुद ही किसी दौड़ में नहीं रहते.

2023 के आखिर में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. भाजपा उन के स्थान पर कोई नया चेहरा खोजने का काम कर रही थी. उसे कोई नाम मिला नहीं. लिहाजा, वापस शिवराज सिंह चौहान को आगे कर के ही चुनाव लड़ा जाएगा. इस तरह के सीनियर मुख्यमंत्री को भी प्रधानमंत्री के पीछे चलना पड़ता है. 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में प्रचार में सब से बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री का प्रयोग किया जाता था. जब भाजपा चुनाव हार गई तो पूरी जिम्मेदारी शिवराज सिंह चौहान पर डाल दी गई.

प्रदेश की विकास योजनाओं में मुख्यमंत्री से बड़ी फोटो प्रधानमंत्री की लगती है. उज्जैन के महाकाल के कौरिडोर बनने पर हर तरफ प्रधानमंत्री ही दिखाई देते रहे. राज्य की कल्याणकारी योजनाओं में शिवराज सिंह चौहान का कद प्रधानमंत्री के बाद दिखाई देता है.

15 साल से अधिक समय तक मुख्यमंत्री की कुरसी पर रहने के बाद भी शिवराज सिंह चौहान राज्य के राजनीतिक फैसले खुद नहीं ले सकते. उन का उत्तराधिकारी कौन होगा, इस का फैसला वे नहीं ले सकते.

जिस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया को केंद्र में मंत्री बनाया गया, शिवराज सिंह चौहान की राय नहीं ली गई. इसी वजह से शिवराज सिंह चौहान की टीम के साथ ज्योतिरादित्य की टीम का स्थानीय स्तर पर बहुत समन्वय नहीं है. इस का नुकसान विधानसभा चुनाव में भाजपा को चुकाना पड़ सकता है. जब शिवराज सिंह चौहान जैसे सीनियर मुख्यमंत्री की यह हालत है तो बाकी का हाल सम?ा जा सकता है.

योगी सरकार को नहीं मिला पूर्णकालिक डीजीपी

शिवराज सिंह चौहान सब से सीनियर मुख्यमंत्री हैं तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सब से बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, जहां से लोकसभा की 80 सीटें हैं. इस के बाद भी वे प्रधानमंत्री के चंगुल में ही हैं. 2022 में देवेंद्र सिंह चौहान उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक डीजीपी बने थे.

31 मार्च, 2023 तक वे कार्यवाहक डीजीपी ही बने रहे. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चाहते थे कि देवेंद्र सिंह चौहान का रिटायरमैंट बढ़ा दिया जाए लेकिन ऐसा नहीं हो सका. देवेंद्र सिंह चौहान को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का चहेता माना जाता था. जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्रा को सेवा विस्तार दिया गया.

इसी तरह से मुख्यमंत्री के एक और करीबी अवनीश अवस्थी को भी सेवा विस्तार नहीं दिया गया. निकाय चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 17 नगरनिगम सीटों पर जीत हासिल की. भाजपा के ट्विटर से जो बधाई संदेश दिया गया उस में प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा की तसवीरें ही लगी थीं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की फोटो और नाम तक नहीं था.

ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिन में प्रधानमंत्री की छवि को आगे करने का काम किया गया है. 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद से हटाने की योजना थी. प्रधानमंत्री के करीबी नौकरशाह को एमएलसी बना कर उत्तर प्रदेश भाजपा संगठन में लाया गया, बाद में वे मंत्री भी बने. 2022 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी योगी आदित्यनाथ के साथ 2 डिप्टी सीएम बनाए गए.

योगी आदित्यनाथ की कहानी 2017 से शुरू होती है. भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुमत मिला. करीब 15 साल बाद बीजेपी ने सत्ता में वापसी की थी. मुख्यमंत्री कौन बनेगा, यह बड़ा सवाल सब के सामने था. कई नाम सामने थे. लेकिन मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ. यह फैसला भी भाजपा पार्टी का नहीं था. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुत्व को आगे लाने के लिए इस नाम को सामने लाए थे. 6 वर्षों बाद हालात बदल गए. अब लोग योगी आदित्यनाथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उत्तराधिकारी तलाशने लगे. यह बात योगी आदित्यनाथ के खिलाफ जा रही है. इस कारण ही उन को दबाने का काम किया जा रहा है.

मुख्यमंत्री की कुरसी संभालने के पहले योगी आदित्यनाथ 5 बार लोकसभा के सांसद चुने जा चुके थे. तब उन का प्रभाव क्षेत्र सीमित था. मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ भाजपा में सब से लोकप्रिय नेताओं में नंबर दो पर हैं. पहले पार्टी में गुजरात मौडल की चर्चा होती थी, अब उत्तर प्रदेश मौडल की चर्चा होती है. योगी आदित्यनाथ 2017 में सत्ता में आए. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में अच्छा रिजल्ट दिया. भाजपा ने लोकसभा में 64 सीटें जीतीं. 2022 का विधानसभा चुनाव आया तो योगी ने दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में भाजपा ने सभी मेयर के चुनाव जीते.

योगी के विकास कामों की जगह पर बुलडोजर को ही उन की पहचान मान कर सीमित किया जा रहा है. देश के कानून को ताक पर रख कर अपना कानून चलाने में कुछ दिन तो अच्छा लगता है. आगे के लिए यह छवि ठीक नहीं होती है. योगी चाहते थे कि उन के काम में केंद्र का हस्तक्षेप न हो. इस के बाद कई ऐसे उदाहरण हैं जब दिल्ली और लखनऊ के बीच में टैंशन हुई है. अरविंद शर्मा गुजरात में मोदी के पसंदीदा अधिकारी थे. उन्होंने इस्तीफा दिया और उन्हें उत्तर प्रदेश में एमएलसी बनाया गया.

केंद्र की तरफ से बहुत प्रयास हुआ कि 2022 विधानसभा चुनाव के पहले अरविंद शर्मा को मंत्री बनाया जाए लेकिन योगी सरकार के मंत्रिमंडल में तब उन्हें शामिल नहीं किया जा सका. अभी वे मंत्री हैं. केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक को डिप्टी सीएम बना कर योगी के समानांतर खड़ा करने का प्रयास हुआ. बात केवल 2 मुख्यमंत्रियों की ही नहीं है.

गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्रभाई पटेल का नाम कम ही चर्चा में रहता है. उन की दिक्कत यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह दोनों ही गुजरात से आते हैं.

वैसे तो हरियाणा बड़ा प्रदेश है. दिल्ली के पास होने के कारण केंद्र सरकार के दबाव में रहता है. वहां के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर हैं. वे 2014 से हरियाणा के 10वें और वर्तमान मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत हैं. वे भारतीय जनता पार्टी के सदस्य और पूर्व आरएसएस प्रचारक हैं. एक प्रचारक के रूप में, वे आजीवन अविवाहित हैं. 1994 में बीजेपी में जाने से पहले उन्होंने 14 साल तक पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में काम किया. यह उन का दूसरा कार्यकाल है. उन की सब से बड़ी खासीयत यह है कि वे संघ के प्रचारक रहे हैं. वे मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहचान बनाने लायक कोई बड़ा काम नहीं कर पाए हैं.

अब नहीं होती गुजरात मौडल की चर्चा

गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद से तब हटाया गया जब एक साल के बाद गुजरात विधानसभा के चुनाव होने थे. विजय रूपाणी को साल 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को हटा कर गुजरात के सत्ता की कमान सौंपी गई थी. 2017 का विधानसभा चुनाव भाजपा ने विजय रूपाणी के नेतृत्व में लड़ा था. भाजपा ने यह चुनाव बड़ी मुश्किल से जीता था. इस के बाद भी विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया.

विजय रूपाणी खामोशी के साथ काम करना पसंद करते थे. 5 साल से बिना प्रचार और विवाद में आए काम किया. रूपाणी की यही ताकत उन की सियासी कमजोर कड़ी के रूप में साबित हुई. विधानसभा चुनाव के पहले विजय रूपाणी को हटा कर सत्ताविरोधी लहर को खत्म करने का प्रयास किया गया. इस का एक कारण यह भी था कि विजय रूपाणी सरकार और भाजपा के प्रदेश संगठन के बीच बेहतर तालमेल नहीं था. प्रदेश अध्यक्ष सी आर पाटिल और सीएम रूपाणी के बीच छत्तीस के आंकड़े थे. रूपाणी केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के करीबी माने जाते हैं तो प्रदेश अध्यक्ष पीएम मोदी से नजदीक.

विजय रूपाणी के गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद 12 सितंबर, 2021 को गांधीनगर में पार्टी विधानमंडल की बैठक में भूपेंद्र पटेल को भाजपा विधायक दल के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया. उन्होंने 13 सितंबर, 2021 को गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. 59 साल के भूपेंद्र पटेल पहली बार ही विधायक बने और सीधे मुख्यमंत्री हो गए. भूपेंद्रभाई पटेल ने अप्रैल 1982 में गवर्नमैंट पौलिटैक्निक, अहमदाबाद से सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया है.

वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे. वे पेशे से बिल्डर हैं. वे सरदारधाम विश्व पाटीदार केंद्र के ट्रस्टी और विश्व उमिया फाउंडेशन की स्थायी समिति के अध्यक्ष हैं. पटेल 1995 से 2006 तक मेमनगर नगरपालिका के सदस्य थे. वे 2008 से 2010 तक अहमदाबाद नगरनिगम (एएमसी) के स्कूल बोर्ड के उपाध्यक्ष थे.

मूल कांग्रेसी हैं भाजपा के यह मुख्यमंत्री

इन बड़े राज्यों के मुख्यमंत्रियों की कहानी से सम?ा जा सकता है कि छोटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों की हालत कैसी होगी. बहुत सारे ऐसे नाम हैं जो शायद ही कभी चर्चा में रहते हों. अरुणाचल के मुख्यमंत्री पेमा खांडू हैं. वे अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दोरजी खांडू के बेटे हैं. पेमा खांडू कांग्रेस, अरुणाचल की पीपुल्स पार्टी में रहने के बाद दिसंबर 2016 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए. खांडू बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं. 17 जुलाई, 2016 को खांडू 36 साल की उम्र में अरुणाचल के मुख्यमंत्री बने. खांडू ने 29 मई, 2019 को अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में दूसरी बार शपथ ली. 2 बार मुख्यमंत्री रहने के बाद भी पेमा खांडू चर्चा में कम ही रहते हैं.

असम के हिमंता बिस्वा शर्मा भी कांग्रेस के नेता थे, बाद में भाजपा में शामिल हुए. वे अपने बयानों से चर्चा में रहते हैं. उन को कोई अलग अधिकार हासिल है, ऐसा नहीं है. 54 साल के डा. हिमंता बिस्वा शर्मा ने कांग्रेस के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की. वे 2001 से 2015 तक जालुकबारी विधानसभा क्षेत्र से विधायक रह चुके हैं. उस वक्त वे कांग्रेस में थे. अगस्त 2015 में वे भाजपा में शामिल हुए. 2016 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद वे कैबिनेट मंत्री बने. 2021 में वे असम के मुख्यमंत्री बने.

मणिपुर के 12वें मुख्यमंत्री हैं नोंगथोम्बम बीरेन सिंह. वे नेता, पूर्व फुटबौलर और पत्रकार हैं. एन बीरेन सिंह को राष्ट्र के असाधारण कार्य के लिए 2018 में चैंपियंस औफ चेंज से सम्मानित किया गया था. यह पुरस्कार भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू द्वारा प्रदान किया गया था. 2002 में राजनीति की ओर रुख करते हुए वे डैमोक्रेटिक रिवोल्यूशनरी पीपल्स पार्टी में शामिल हो गए और हिंगांग से विधानसभा चुनाव जीत गए. 2003 में पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने 2007 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और युवा मामलों व खेल मंत्री के रूप में कार्य किया. 2016 में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए.

एन बीरेन सिंह ने एक फुटबौल खिलाड़ी के रूप में अपना कैरियर शुरू किया. घरेलू प्रतियोगिताओं में अपनी टीम के लिए खेलते हुए सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में भरती हुए. उन्होंने बीएसएफ से इस्तीफा दे कर पत्रकारिता शुरू की. स्थानीय दैनिक समाचारपत्र ‘नाहरोलगी थोडांग’ शुरू किया और 2001 तक संपादक के रूप में काम किया. 15 मार्च, 2017 को मणिपुर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

त्रिपुरा के 11वें मुख्यमंत्री माणिक साहा 2022 से त्रिपुरा विधानसभा में टाउन बोरडोवली विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. 2022 से त्रिपुरा से राज्यसभा के पूर्व सदस्य और 2022 में मुख्यमंत्री बनने तक और 2020 से 2022 तक भारतीय जनता पार्टी, त्रिपुरा के अध्यक्ष बने. वे 2016 से भारतीय जनता पार्टी से पहले कांग्रेस के सदस्य रहे हैं. त्रिपुरा के मुख्यमंत्री राज्य में विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले 14 मई, 2022 को बिप्लव कुमार देब ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इस के बाद विधायक दल की बैठक में बीजेपी ने साहा के नाम को उत्तराधिकारी घोषित किया. उन्होंने 15 मई, 2022 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

साहा ने ओरल एंड मैक्सिलोफेशियल सर्जरी की डिग्री में बीडीएस और एमडीएस प्राप्त किया. उन्होंने डैंटल कालेज, पटना, बिहार और किंग जौर्ज मैडिकल कालेज, लखनऊ से अपनी पढ़ाई पूरी की थी. साहा ने स्वप्ना साहा से शादी की है, जिन से उन की 2 बेटियां हैं. वे त्रिपुरा क्रिकेट संघ के अध्यक्ष भी हैं. मुख्यधारा की राजनीति में आने से पहले, साहा हपनिया स्थित त्रिपुरा मैडिकल कालेज में पढ़ाते थे.

छोटे राज्यों के अनजान मुख्यमंत्री

गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत सैंकलिम विधानसभा क्षेत्र से एमएलए हैं. वे पेशे से आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं. प्रमोद सावंत गोवा के 13वें मुख्यमंत्री हैं. सावंत ने अपने चुनावी कैरियर की शुरुआत भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर पीले निर्वाचन क्षेत्र से 2008 का उपचुनाव लड़ कर की, जिस में उन्हें हार मिली. उन्होंने सनकेलिम निर्वाचन क्षेत्र से 2012 का विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. 19 मार्च, 2019 को गोवा के 13वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. 2022 गोवा विधानसभा चुनाव के बाद, बीजेपी विधायक दल की बैठक में प्रमोद सावंत को ही गोवा के नए मुख्यमंत्री पद के लिए चुना गया है.

उत्तराखंड में 2017 से 2022 के बीच 3 मुख्यमंत्री बदले. सब से पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया. इस के बाद तीरथ सिंह रावत को हटा कर 2021 में पुष्कर सिंह धामी को 10वें मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया. वे ऐसे मुख्यमंत्री हैं कि जब 2022 का विधानसभा चुनाव आया तो वे अपनी ही सीट हार गए. इस के बाद भी भाजपा हाईकमान ने उन को मुख्यमंत्री बनाए रखा. इस के बाद वे उपचुनाव लड़े और चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद पर कायम रह सके. 3 जून, 2022 को उन्होंने चंपावत विधानसभा उपचुनाव जीता.

पुष्कर सिंह धामी ने मानव संसाधन प्रबंधन और औद्योगिक संबंधों में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक किया और एलएलबी की. उन्होंने भगत सिंह कोश्यारी के सलाहकार के रूप में भी काम किया है. धामी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत वर्ष 1990 में भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से की. 2008 तक भारतीय जनता युवा मोरचा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया. पुष्कर सिंह धामी सब से कम उम्र के मुख्यमंत्री बने. सब से जूनियर होने के कारण उन को मुख्यमंत्री बनाया गया था, जिस से कोई विवाद न हो सके.

निखर नहीं पा रही भाजपा की सैकंड लीडरशिप

प्रदेश स्तर के नेताओं को प्रोत्साहित न करने के कारण पार्टी प्रदेशों में अपना जनाधार नहीं बना पा रही है. इसी बात की चिंता संघ के मुखपत्र और्गनाइजर में व्यक्त की गई है. कर्नाटक चुनाव में हार का सब से बड़ा कारण यह है कि वहां भाजपा के स्थानीय नेता जनाधार नहीं बना पाए थे. अभी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा के चुनाव हैं. भाजपा के पास यहां भी मजबूत नेता नहीं हैं. वजह यह है कि 2014 के बाद से भाजपा के सभी नेता मोदी के चंगुल में हैं. वे पूरी तरह से मोदी पर आश्रित हैं. ऐसे में भाजपा की सैकंड लीडरशिप के पास अपने विचार नहीं हैं.

भाजपा ऐसे नेताओं को प्रमुखता देती है जो शोपीस जैसे हैं. 10 मुख्यमंत्रियों के नाम देखिए, बहुत सारे नाम ऐसे हैं जिन की खुद भाजपा की राजनीति में कोई बड़ी पहचान नहीं है. कई मुख्यमंत्री कांग्रेस से निकल कर आए हैं. ऐसे में संघ की चिंता जायज है. पर इस की जिम्मेदारी मोदी की है जो मुख्यमंत्रियों को अपने चंगुल में रखना चाहते हैं. केंद्र में मजबूत पकड़ रखने वाला नेता मजबूत क्षेत्रीय नेता बनाना नहीं चाहता है. इस से पार्टी संगठन को नुकसान होता है.

संघ का कहना है कि केवल मोदी और हिंदुत्व के नाम पर चुनाव जीतना आसान नहीं है. संघ ने यह तब कहा जब उस ने 2014 से 2023 तक के काल में भाजपा की हालत को देख लिया है. पार्टी को 2 नेताओं तक सीमित नहीं रहना चाहिए. कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने अगर अपना जनाधार बनाया होता तो भाजपा की हार न होती. देश में भाजपा के 10 ही मुख्यमंत्री हैं. इस के बाद भी पार्टी ऐसे दिखाती है जैसे पूरा देश उस के कब्जे में हो.

इस से पहले हिमाचल में भाजपा के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर मंत्रिमंडल के 10 में से 8 मंत्री चुनाव हार गए. इस तरह की हार भाजपा और संघ के लिए चिंता का कारण है. कारण भाजपा का हाईकमान और उस के कार्य करने की शैली है, जो नेताओं ही नहीं, मुख्यमंत्री तक को अपने चंगुल में रखना चाहता है.

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