शीला को शीलो और फिर शीला महतो और अंत में मैडम मेहता बनते मैं ने अपनी आंखों से देखा है. बेईमानी का पैसा फलते देखना हो तो उस के पति श्यामा महतो के दर्शन जरूर करने चाहिए. शादी हुई तो मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में एक मामूली मुलाजिम था. उस के डिपार्टमेंट में से बहुत सी मात्रा में डाटा केबल गायब हो जाने के कारण जांचपड़ताल के बाद उसे नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. उस ने बहुतेरा कहा कि तारें धूप में पड़ीपड़ी पिघल गई होंगी या पानी के बहाव में गल गई होंगी. उन के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम, लेकिन अधिकारियों ने सूरज की गरमी से डाटा केबलों की तारें पिघल कर पृथ्वी में समाते कभी नहीं देखा था, इसीलिए श्यामा महतो के विरुद्ध कार्यवाही करनी आवश्यक थी.

श्यामा महतो था काफी चालाक. कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण उसे सजा मिली तो केवल नौकरी से निकाले जाने की.
लेकिन कइयों के लिए पत्थर भी फूल बन जाते हैं.

श्यामा महतो का नौकरी से निकाला जाना तो ऐसी बात सिद्ध हुई कि कुबड़े को लात काम आ गई. उस ने अपनी बेईमानी की दौलत को ऐसी शुभ घड़ी में शराब की ठेकेदारी के काले धंधे में लगाया कि दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई. धंधे में तरक्की हुई तो घर में खुशहाली होने लगी.

वह दो कमरों से निकल कर फ्लैट में रहने चला गया. दो साल बाद फ्लैट में अमीरी का दम घुटने लगा, तो शहर की भीड़भाड़ से दूर नई कालोनी में ढंग का बंगला खड़ा हो गया.

फाटक पर गोरखा नियुक्त कर दिया गया, जो हर ऐरेगैरे को अंदर जाने से रोकता था. घर में हर वह चीज मौजूद थी, जो पैसे से खरीदी जा सके. दीवार से दीवार तक सटे गलीचे, मखमली परदे और हीरों की चमक.

नौकरचाकरों का भी मेला लगा रहता था. शीला ने अपनी पुरानी धोतियां अपनी महरी को दे कर उसे एक नई फुलटाइम आया को रख लिया. फिर कुक और सर्वेंट भी रखा गया.

जो काम शीला अपने हाथों से किया करती थी, वह नौकरों से न करवाना अब अपना अपमान समझने लगी. उसे बैठेबैठे हुक्म चलाने की आदत पड़ गई.
पहले साल आई 10 कार खरीदी गई. श्यामानारायण उसे दफ्तर ले जाता था तो शीला को सैरसपाटे, क्लब और काफी पार्टियों में जाने में तकलीफ होती थी. एक दिन श्यामानारायण बोला, ‘‘आज तुम्हारे लिए दूसरी मोटर खरीद देता हूं.’’ और शाम तक डिजायर आ गई.

‘‘इतनी जल्दी कैसे मिल गई नई गाड़ी,’’ शीला ने खुशी और आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या बात करती हो? पैसा खर्च करो तो क्या नहीं मिलता. तुम कहो तो आकाश के तारे भी खरीद लाऊं,’’ उत्तर में श्यामा महतो ने कहा, तो शीला मुसकरा कर चुप हो गई. श्यामा महतो भी अब श्याम मेहता कहलाते थे.

शायद उसे वे दिन याद आ गए, जब हाथों की मेहंदी भी न उतरी थी कि एक दिन बरतन मांजते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्हें पोंछती हुई, सिसक कर उस ने पति से कहा था, ‘‘एक नौकर रख दीजिए, मुझ से इतना काम नहीं होता.’’

तब श्याम ने नाराज हो कर कहा, ‘‘नौकर रख दूं. तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे मुझे बड़ी तनख्वाह मिलती है. नौकर रख कर सारा दिन तुम क्या करोगी. मक्खियां मारोगी क्या…?’’

राकेट में बैठ कर चांद पर पहुंचते देर लगती है, लेकिन श्याम की बेईमानी फलते देर न लगी. उस से उस की किस्मत बदली. उस का दर्जा बदला और उस की पत्नी शीलो से शीला मैडम बन गई.

शीला मैडम या मैडम मेहता हर पार्टी के लिए नया लिबास बनवाती. साथ ही, सफेद लिबास के साथ हीरों के, लाल के साथ पुखराज, हरे पर पन्ना और नीले पर नीलम के जेवर पहने जब वह महफिल में प्रवेश करती, तो लोग उठ खड़े होते थे. उस की खूबसूरती की झूठी प्रशंसा करते और मीठीमीठी बातों से उसे प्रसन्न करते.

क्यों न करते, धनदौलत की चमक ही ऐसी होती है. सब ही उस के साथ रिश्ता जोड़ना चाहते थे. शीला लोगों के झूठे प्रेम और दिखावे से बहकती रही. वह सोनेचांदी की दीवारों में ऐसी कैद हुई कि धीरेधीरे सारे रिश्तेनाते टूट गए. लेकिन उस ने इस की कोई परवाह न की. उसे दौलत का ऐसा नशा चढ़ा कि वह प्रेम और आदर भूल गई. अपनों का सच्चा प्यार भूल गई. उन के सुखदुख में शामिल होना भी अब उस की शान के खिलाफ हो गया.

शीला की पिछली जिंदगी बहुत पीछे रह गर्ई थी. उस की स्मृति इतनी धुंधली पड़ गई कि वह उस का जिक्र तक न करती थी. ज्योंज्यों दौलत बढ़ती गई, त्योंत्यों रिश्तेदारों के साथ उस के प्यार में खाई बढ़ती गई. एकएक कर के सब छूट गए. भाईबहन तक दूर हो गए.

शीला मेरी बचपन की सखी है. मेरे पिता एक छोटे शहर में किराने का व्यवसाय चलाते थे. हमारी पुश्तैनी कोठी के पिछवाड़े कुछ क्वार्टर खाली पड़े रहते थे. उन्हीं में से एक क्वार्टर मां ने उस के पिता को दे दिया था. शीला के पिता जूनियर स्कूल में मास्टर थे और उन की माली हालत ज्यादा अच्छी न होने पर भी मां उन का बड़ा मान करती थी. मुझे और भाई को पढ़ा देने का जिम्मा उन्होंने ले लिया था और उन के कारण हम दोनों के नंबर अच्छे आने लगे थे.

‘‘आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगा,’’ शिवदासजी ने कहा था.

‘‘आप ऐसा बिलकुल न सोचें,’’ मां ने जवाब दिया, ‘‘इसे अपना ही घर समझिए.’’

शीला और मैं एकसाथ बड़ी हुईं. खेलतीकूदती और चिड़िया की तरह खूब लड़ती थीं. फिर भी स्कूल एकसाथ जातीं और घर में आया हुआ भोजन मिल कर खाती थीं.

‘‘थोड़ा ज्यादा खाना भेजा करो, मां,’’ मैं घर पर कहती, तो मां पूछती, ‘‘क्यों, बहुत भूख लगती है क्या?’’

‘‘हां, दो के बराबर भूख लगती है,’’ मैं कहती और मां की मंद मुसकराहट से समझ जाती कि उन्हें मालूम है कि मैं खाना शीला के साथ बांट लेती थी.

दो वर्ष हुए मैं शीला से मिलने गई. बीते वर्षों की याद ताजा करने को जी चाह रहा था. मेरे पति तो जाना ही नहीं चाहते थे, कहने लगे, ‘‘तुम हो आओ. मैं तो शीला देवी को जानता भी नहीं और मैं ठहरा गरीब फौजी कैप्टन, वह ठहरी रईस. हमारा क्या मेल.’’

पति की बात मुझे अच्छी नहीं लगी. मैं ने कहा, ‘‘कैसी बातें करते हैं आप? जानने में क्या देर लगती है? शीला तो यों भी अपनी है. दो दिन में अच्छी तरह जान जाओगे.’’

स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो मैं ने उत्सुकतापूर्वक चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई. मुझे विश्वास था कि शीला हमें लेने जरूर आई होगी. लेकिन उस के बदले एक वरदीधारी व्यक्ति खड़ा कह रहा था, ‘‘जी, मैं आप के लिए गाड़ी लाया हूं.’’

शीला घर पर नहीं थी. एक अन्य वरदीधारी व्यक्ति ने बताया, ‘‘जी, मेम साहिबा आती ही होंगी. आप का कमरा तैयार है.’’

कमरा बड़ा शानदार था. चीजों को हाथ लगाने में भी मुझे डर लग रहा था कि वे मैली हो जाएंगी.

शीला आई तो उस की चालढाल में जो अभिमान था, वह मुझे अच्छा नहीं लगा. आ कर वह न गले लगी, न बचपन को याद किया. पूछा तो बस इतना, ‘‘तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं हुई. मुझे जरूरी पार्टी में जाना पड़ गया था.’’

कहना तो चाहती थी वह कि तकलीफ तो कोई नहीं हुई. सब ही कुछ तो मौजूद था मेरे स्वागत के लिए. नहीं था तो प्रेम, वह प्यार और आदर, वह सुखद नाता, जिस की खोज में मैं चली आई थी. उसी की कमी थी. हम ने बड़ी मुश्किल से वहां दो दिन काटे. वहां की हर चीज चुभने लगी. उस वातावरण में मेरा दम घुटने लगा.

यही हालत शीला के अपने भाईबहनों की हुई. उन के साथ अपना रिश्ता बताते हुए उसे लाज आती थी. उन के कपड़े, उन का सामान शीला बड़े गौर से देखती. अब कुर्मी परिवारों में ऐसा हर कोई तो नहीं होता कि मोटी खान मिल जाए. जब तक कोई ऐसा अतिथि उन के घर रहता, शीला किसी को अपने घर आमंत्रित न करती. उन्हें अपनी कार में बाहर न जाने देती कि कहीं कोई पहचान न ले कि यह उस की गाड़ी है. उन्हें कमरे में ही भोजन परोस दिया जाता. डाइनिंग हाल में बुलाने की भी वह जरूरत नहीं समझती थी.

लोगों का आनाजाना छूट गया. जो गरीब रिश्तेदार थे, उन्हें भी अपनी इज्जत प्यारी थी, शीला मैडम की दौलत से भी ज्यादा.
लेकिन वह दौलत तो शीला को भी रास न आई. कुछ सालों बाद घर में एक अजीब सा वातावरण हो गया.

श्याम और शीला नदी के दो किनारों के समान हो गए. कई दिनों तक वे एकदूसरे को देख न पाते. श्याम घर आता तो शीला बाहर गई होती. शीला घर होती तो श्यामनारायण गायब होता. भिन्न मित्र और मनोरंजन के अपनेअपने ढंग चुन लिए गए. क्लब इकट्ठे जा कर एकसाथ लौटना जरूरी न होता. श्याम अपने मित्रों के साथ ‘बार’ में चला जाता. उधर शीला अपनी टोली में बैठ कर पीने लगती.

एक दिन दोनों में बहुत तूतू, मैंमैं हुई. नौकरों ने सुना. लोगों में चर्चा हुई. श्याम का अपनी युवा सेक्रेटरी में दिलचस्पी लेना शीला को अच्छा न लगा. उस ने आपत्ति की, तो पति आगबबूला हो उठा, ‘‘मैं जो चाहूं कर सकता हूं. तुम रोकटोक करने वाली कौन होती हो,’’ उस ने तड़प कर कहा, ‘‘और फिर तुम्हें किस बात की कमी है. इतनी दौलत तुम्हारे कदमों में पड़ी है. मैं दो घड़ी दिल बहला लेता हूं तो तुम से वह भी नहीं देखा जाता.’’

उस के बाद श्याम ने समय पर घर आना भी छोड़ दिया, जैसे शीला के जीवन से उसे कोई सरोकार ही न था. पैसा आया तो ऐश बढ़ी. ऐश बढ़ी तो ऐब भी बढ़ने लगे. एक के बाद एक बुरी आदतें पड़ती गईं.

पतिपत्नी में बहुत झगड़ा होने लगा. दोनों मुंह फुलाए रहते. इज्जत करना और करवाना तक भूल गए. इस वातावरण में बच्चे सही पथ से भटक कर गलत रास्तों पर चलने लगे. मांबाप यह भी न देखते कि वे क्या कर रहे हैं. अनिल और वीणा की जेबें पैसों से भरी रहतीं. दिन में घर से गायब रहना और रात में देर से लौटना, उन का नित्य का क्रम बन गया.

यों तो शीला को उन का कोई ध्यान न था, लेकिन भूलेबिसरे कुछ कहती तो वे भी जवाब में सौसौ बात कहते, ‘‘आप को क्या.’’

एक दिन अनिल ने कहा, ‘‘आप को तो कुछ देखने की फुरसत नहीं. हमारा क्या है. हम तो जैसेतैसे इतने बड़े हो गए हैं, आप ने हमारे लिए क्या किया. आप के पास तो समय ही नहीं था, न यह देखने की इच्छा थी कि हमारी आवश्यकताएं क्या हैं.’’

‘‘तुम बहुत बोल रहे हो, अनिल. जानते नहीं, मैं तुम्हारी मां हूं,’’ शीला ने कहा.

‘‘मां जरूर हैं, लेकिन आप ने मां का कर्तव्य कभी नहीं निभाया. क्या दौलत यह सिखाती है कि कोई अपनी जिम्मेदारियां भूल जाए? ऐश्वर्य और विलास को अपनी जिंदगी बना ले. अपनों से नाता तोड़ लें.’’

सत्य कड़वा होता है, उसे निगलना कठिन होता है. अनिल की बातों से शीला तिलमिला उठी, बोली, ‘‘तुम जरूरत से ज्यादा बोल रहे हो, अनिल. बड़ों का मानसम्मान, सब भूल गए क्या,’’ सुन कर हंस पड़ा अनिल. एक दुखभरी हंसी. ‘‘हां, मां, मैं ही भूल गया सबकुछ. यह भी भूल गया कि मां का प्यार कैसा होता है. मां किस तरह अपने बच्चे से लाड़ करती है. गोद में बैठा कर खिलाती है. लोरी सुनाती है. हमें तो नौकरों के सुपुर्द कर दिया गया था. जो सीखा हम ने उन्हीं से सीखा. आप को फुरसत न थी. हमारे आंसू पोंछने तक का समय न था. आप क्लब और पार्टियों में व्यस्त रहती थीं.

“याद है, हमें छोड़ कर आप किस तरह यूरोपअमेरिका की महीनों सैर को चली जाती थीं. हम ने वे दिन कैसे बिताए, आप ने तो कभी पूछा तक न था.’’

और अनिल अपने दिल का दर्द लिए घर से चला गया.

‘‘चला गया है तो जाने दो. हमें उस की परवाह नहीं,’’ श्याम महतो उर्फ मिस्टर मेहता ने गरज कर कहा.

‘‘उसे क्या कमी थी. सबकुछ तो था. ऐशोआराम, नौकरचाकर और यह सारी धनदौलत.’’

श्याम ने अहंकार में यह भी न सोचा कि अनिल को केवल दौलत और झूठे दिखावे की ही जरूरत नहीं, उसे प्यार चाहिए. उसे आलीशान बंगला नहीं, एक घर चाहिए जो छोटा भले ही हो, लेकिन उस में उस का परिवार हो, न कि यंत्रचालित से नौकरचाकर.

अनिल के चले जाने से बेटी वीणा अकेली पड़ गई. एक दिन घबरा कर एक मामूली युवक से उस ने शादी कर ली. न बैंडबाजे, न कोई शोरगुल. श्यामानारायण गरजा, ‘‘इसे भी जाने दो.’’
शीला का कहना था कि वीणा ने उन की नाक काट दी. कहीं मुंह दिखाने योग्य नहीं छोड़ा. ऐसी संतान से तो वह निस्संतान ही अच्छी थी.

वीणा तो प्यार और खुशी की तलाश में थी. दौलत और ऊंची सोसाइटी अगर ये दे सकते तो उस के मांबाप के घर दोनों की बरखा होती. लेकिन वहां तो सोनेचांदी की खनक थी और धनदौलत का अभिमान. मानव और उस के हृदय का कोई मूल्य न था. हर चीज वहां दौलत से तोली जाती थी, इसीलिए प्यार के रिश्तेनाते टूट चुके थे. बच्चे भी मांबाप के प्यार से वंचित पलते रहे. उन्हें यह भी याद नहीं कि कभी किसी ने प्यार भरा हाथ उन के सिर पर रखा हो.

पिछले दिनों अचानक शीला से भेंट हो गई. कोलकाता के न्यू मार्केट से निकल मैं खड़ी टैक्सी का इंतजार कर रही थी कि एक बहुत बड़ी मोटर आ कर मेरे पास रुकी. शीला ने मुझे पहचान लिया, यह देख कर मुझे आश्चर्य हुआ. मेरे न चाहते हुए भी वह मजबूर कर के मुझे अपने घर ले गई. वहां एक अजीब सी खामोशी छाई हुई थी. मोटेमोटे गलीचों पर तो नौकरों के कदमों की आवाज भी नहीं आती. वे चुपचाप अपने काम में लग हुए थे.

श्याम महतो कर्ई दिनों से शहर में नहीं था. कहां गया था, कब लौटेगा, यह भी नहीं मालूम, शीला ने बताया. अनिल और वीणा भी जब से गए हैं, लौट कर नहीं आए.

‘‘मेरे बच्चे हो कर भी उन्हें मुझ से प्यार नहीं,’’ शीला ने कहा.

पता नहीं, उसे कोई दुख है या नहीं. लेकिन, मैं जरूर सोचने लगी कि धनदौलत की चमक से अंधी हो कर शीला ने प्यार और आदर की असली जायदाद को जीवन के पथ पर ही कहीं खो दिया. अमीरी के तूफान में तिनकातिनका हो कर वह कब की बिखर चुकी थी. भरे घर में भी आज कितनी अकेली है वह. वह मेरी गोदी में सिर रख कर रोने लगी, ‘‘मैं ने जिंदगी में बहुत संघर्ष भी देखे, फिर सालों सुख भी भोगा. पर अब क्या होगा, मालूम नहीं.

श्यामा महतो 69 साल के होने लगे हैं और मैं 61 की. बुढ़ापे में हमारी कोई सुध लेगा या नहीं, पता नहीं. हो सकता है कि वे इस घर में तभी आएं, जब इसे फालतू समझ कर बेचना चाहे,’’ कह कर वह फफकफफक कर रोने लगी. मुझे अभी भी विश्वास नहीं था कि ये घड़ियालू आंसू हैं या असली.

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