मिड डे मील योजना शुरू की गई ताकि गरीब, पिछड़े, दलितों के बच्चे छोटी उम्र में बेलदारीमजदूरी करने की जगह स्कूलों में आएं और पढ़ाई करें. यह योजना कई मानों में भारत की सफल योजनाओं में गिनी जाती है पर इस योजना से जुड़े तमाम घोटालों ने गरीबों की थाली से भी निवाला छीनने का काम किया. देशभर के शासकीय प्राइमरी व मिडिल स्कूलों में चलने वाली मिड डे मील योजना यों तो गरीब व अति गरीब बच्चों के दोपहर के भोजन की पूर्ति के लिए आरंभ की गई है लेकिन बैकडोर से योजना में सेंधमारी करने और योजना में पलीता लगाने का काम भी धड़ल्ले से चल रहा है.

मिड डे मील योजना, जिसे मध्याह्न भोजन योजना भी कहा जाता है, ऐसे लालची प्रवृत्ति के लोगों के शिकंजे में आ गई है जो विद्यार्थियों का निवाला तक छीन लेने में गुरेज नहीं करते हैं. शासन के आदेश के मुताबिक, एमडीएम योजना के तहत गैरपूर्वोत्तर राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में केंद्र व राज्य सरकारें दैनिक भोजन के लिए खाना पकाने की लागत को 60:40 के अनुपात में सा?ा करती हैं. अन्य राज्यों के लिए यह अनुपात 90:10 का है. आशय यह है कि केंद्र व राज्य के मिश्रित वित्तीय सहयोग से चल रही है मिड डे मील योजना. एमडीएम में प्राइमरी स्कूल के बच्चों के लिए कुकिंग कास्ट प्रति विद्यार्थी 4.45 रुपए इन दिनों है तो मिडिल स्कूल के बच्चों के लिए यह राशि 7.45 रुपए.

इस में महंगाई के मद्देनजर समयसमय पर बढ़ोतरी की जाती रहती है. कहने को तो गांवों में योजना का संचालन महिला स्वसहायता समूहों द्वारा किया जाता है पर अधिकांश महिला समूहों, खासकर दूरदराज के महिला समूहों में महिलाओं के अनपढ़ होने का फायदा उठा कर उस पर पुरुषों ने अलिखित तौर से कब्जा कर रखा है और वे महिलाओं को उंगलियों पर नचा कर अपना उल्लू सीधा करने का काम करते रहते हैं. महिला समूहों में संचालित प्रोसीडिंग रजिस्टर में हालांकि अंगूठा महिलाओं से बाकायदा लगवा लिया जाता है लेकिन उन की निरक्षरता का लाभ उठा कर उस का लेखन अध्यक्ष या सचिव का आदमी करता है. वह अपनी मनमरजी चलाता हुआ दो नंबर के हिसाबकिताब को एक नंबर में बदल देता है और अपनी चमड़ी बचाए रखने के लिए उस पर समूह की अन्य महिलाओं के दस्तखत ले लेता है.

महानगरों, नगरों, शहरों यानी नगरीय निकायों में एमडीएम को एनजीओ के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है और एनजीओ वे बाहुबली भोजन ठेकेदार होते हैं, जो अपने आका, सियासतदो या आलाअफसर को छोड़ कर किसी की नहीं सुनते. वे अपने मन की करते हैं और जो सम?ा में आता है, वही खिलाते हैं. दरअसल एनजीओ वे भोजन माफियाएं हैं जिन के अपने होटल हैं. जो आला अफसरों व पहुंचे हुए राजनीतिज्ञों की शह पर सिस्टम को ठेंगे पर रखते हैं और अपने होटलों का बचाखुचा स्कूली बच्चों को परोसते हैं. इस का खमियाजा बच्चों के भोजन की गुणवत्ता में पड़ रहा है और उन्हें जो पोषकहीन, सड़ागला, बासी खाना परोसा जा रहा है, उसे वे मन मसोस कर खाने के लिए मजबूर हैं.

भोजन का मेनू शासन द्वारा एमडीएम का मेनू बाकायदा तैयार किया गया है और सभी स्कूलों में सर्कुलेट भी. सर्कुलेटेड पत्र में निर्देशित भी किया गया है कि मेनू को रसोईघर व स्कूल के प्रांगण में चस्पां किया जाए ताकि बच्चे उसे रोज देख कर मालूम कर सकें कि आज कौन सी सब्जी व दाल कितनी मात्रा में बनने वाली व परोसी जाने वाली है. लेकिन, मेनू को स्कूलों में शिक्षकों द्वारा जानबू?ा कर चस्पां नहीं किया जाता ताकि मनमरजी की सब्जी व दाल खिलाई जा सके, वह भी खस्ती, सस्ती, सड़ीगली और पोषक तत्त्वों से हीन सब्जी. परंतु, गरीब बच्चे हैं कि भूख के मारे उसे भी खाने के लिए विवश हो जाते हैं. उदाहरण के लिए, छतीसगढ़ शासन, लोक शिक्षण संचालनालय, रायपुर के पत्र क्रमांक/ममो/मीनू/ 2014/1411 द्वारा दिनांक 1 दिसंबर, 2014 को सभी जिलों को पत्र जारी कर साप्ताहिक मेनू का निर्धारण किया गया है.

इस के अनुसार, प्राथमिक और उच्चप्राथमिक स्कूल स्तर पर प्रत्येक सोमवार को चावल/सांभर दाल (कुम्हड़ा, लौकी, मुनगा या अन्य हरी सब्जी मिला कर) व पापड़ खिलाया जाना है. साथ ही, उपलब्धता के आधार पर मौसमी फल व गुड़, चना सोमवार से शनिवार तक हरेक दिन देना है. ऐसा ही मंगलवार को चावल/पंचरत्न दाल (मूंग, अरहर, चना, उड़द, मसूर आदि) व हरी सब्जी परोसा जाना है. इसी तरह बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार व शनिवार को अलगअलग आकर्षक मेनू शासन द्वारा निर्धारित किया गया है. यहां तक कि शनिवार को दूध की खीर और अंकुरित चना तय किया गया है.

परंतु अफसोस कि स्कूलों में मेनू की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और रोजाना गुणवत्ताहीन मसूर या अरहर की दाल और इल्ली लगा राशन का भात व कचरायुक्त आटा खिलाया जाता है, जो न केवल सरासर बेईमानी है, बल्कि बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खुलेआम खिलवाड़ भी है. ऐसा ही हालिया उदाहरण ?ारखंड के लोहरदगा में दिखा जहां खुद बच्चों ने ही मिड डे मील से किनारा कर लिया है. लोहरदगा शहरी इलाके के एक बालिका मध्य विद्यालय में बच्चों ने खाना खाने से मना कर दिया क्योंकि इस मिड डे मील को खाने से बच्चों की सेहत बिगड़ रही थी. बच्चों के मुताबिक, खाने में न तो कोई स्वाद होता है न ही हरी सब्जियां. बिना स्वाद के खाना तो कैसे भी खा लें, लेकिन समस्या यह है कि खाने में इस्तेमाल अनाज इतनी घटिया क्वालिटी का होता है कि खाते ही बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.

इस साल जनवरी में ?िलमिल स्थित अविनाश चंद्र चड्ढा राजकीय उच्चतर माध्यमिक कन्या विद्यालय में मिड डे मील खा कर 9 छात्राएं बीमार हो गईं. उन में से 3 छात्राएं 14 वर्ष से कम और 6 छात्राएं 14 वर्ष से अधिक आयु की थीं. मिड डे मील का खाना खाने के बाद छात्राओं ने पेटदर्द और उलटी की शिकायत की. अस्पताल ने छात्राओं के बीमार होने की वजह फूड पौइजनिंग बताई. छात्राओं ने बताया कि मिड डे मील में उन्हें दाल और चावल बांटे गए, जिस में से बदबू आ रही थी. उन्होंने मिड डे मील खाया और कुछ देर बाद ही पेटदर्द के साथ उन्हें उलटी होने लगी.

ऐसे ही पिछले साल बिहार के दरभंगा जिले में मिड डे मील खाने से 6 स्कूली बच्चे बीमार हो गए. स्थिति बिगड़ती देख आननफानन 3 बीमार बच्चों को दरभंगा मैडिकल कालेज अस्पताल के शिशु रोग विभाग में भरती कराया गया. बात मध्य प्रदेश की. पिछले साल अकाउंटैंट जनरल की रिपोर्ट में बताया गया कि यह महत्त्वाकांक्षी योजना कोविड के दौरान 2 साल के लंबे फुलस्टौप लग जाने के बाद जब पूरी तरह से फिर से शुरू हुई, इस ने स्कूली बच्चों की चिंता मिटाई नहीं, बल्कि उन्हें भूखा रखा और पूरी तरह से निराश कर दिया. 6 टेक होम राशन बनाने वाले संयंत्रों/फर्मों ने 6.94 करोड़ रुपए की लागत वाले 1125.64 एमटी टीएचआर का परिवहन करने का दावा किया.

वाहन डेटाबेस के सत्यापन के बाद पता चला कि इस्तेमाल किए गए वाहन वास्तव में मोटरसाइकिल, कार, औटो और टैंकर के रूप में पंजीकृत थे. डेटाबेस में ट्रक बिलकुल भी मौजूद नहीं थे. ऐसे ही पिछले साल फिरोजाबाद में तैनात चंद्रकांत शर्मा नाम के एक शिक्षक फर्जी दस्तावेजों से सोसाइटी का पंजीकरण करा स्कूली बच्चों का 11.46 करोड़ रुपए का मिड डे मील चट कर लिया. वह बेसिक शिक्षा, बैंकों समेत अन्य विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से वर्ष 2008 से 2015 तक मिड डे मील के नाम पर मिलने वाली धनराशि का घोटाला करता रहा और रकम को अपने और सगेसंबंधियों के खातों में जमा कर करोड़ों की संपत्ति खरीद ली. किचनशेड सरकारी स्कूलों में जो सब से गंदा और उपेक्षित स्थल होता है, उस का नाम किचनशेड या रसोईघर कहलाता है जो ज्यादातर स्कूलों के कोनों में बना होता है.

वहां धूलधक्कड़, मकड़ी के जाले, काकरौच, छिपकली, चूहे व उस के बिल, चीटियों की कतारें, काले एवं चीकट लगे व मटमैले खाना बनाने के बरतन, पानी रखने के गंदे ड्रम और अधधुली थालियां व कटोरियां सहज देखी जा सकती हैं. रसोइए का कर्तव्य रसोइए को शासन के आदेशानुसार प्रतिमाह 1,500 रुपया मानदेय दिया जाता है पर वह कच्चापक्का व बेस्वाद खाना बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है. जबकि उस को चाहिए कि वह न केवल किचन को साफसुथरा रखे, बल्कि किचन में उपयोगी बरतनों की भी नियमित साफसफाई करता रहे. उस को चावल को साफ कर बनाना चाहिए पर वह ऐसा नहीं करता. जो चावल राशन की दुकान से आता है, उसे ज्यों का त्यों बोरे से निकाल कर पका देता है.

जबकि उस में कीड़ेमकोड़े, कंकड़पत्थर और कूड़ेकचरे भरे होते हैं. यही हाल गेहूं का है. उस को भी बगैर धोए व सफाई किए ऐसे ही पिसवा दिया जाता है, जैसे बला टाली जा रही हो. यहां तक कि सब्जियों को सही से धोया नहीं जाता और आधाअधूरा व थोड़ाबहुत धो कर यों ही पका दिया जाता है. इतना ही नहीं, पिसे मिर्चमसाले, धनिया व हलदी की तो मत पूछो, वे निम्नस्तर के मिलावटी कचरे होते हैं जो खाने के काबिल नहीं होने के साथसाथ सेहत के लिए नुकसानदेह होते हैं. दायित्व शिक्षकों का एमडीएम को सही ढंग से संचालित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी एमडीएम प्रभारी शिक्षक और प्रधान अध्यापक की होती है पर वे अपने दायित्वों से आंखें मूंदे रहते हैं.

वे बीईओ, सीएमओ और बीडीओ को केवल उलटीसुलटी जानकारी देने का दायित्वभर निभाते रहते हैं. कारण, जो शिक्षक छुट्टी की एप्लीकेशन हाजिरी रजिस्टर में आएदिन रख कर फरारी मारने में लगे रहते हों उन से एमडीएम को ईमानदारी से चलाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अगर वे एमडीएम में दखल देते हैं तो वे गाहेबगाहे गैरहाजिर नहीं रह सकते. उन की पोलपट्टी रसोइया, समूह या एनजीओ वाले खोल देंगे तो उन को लेने के देने पड़ जाएंगे, उन की चोरी पकड़ी जाएगी. सो, मिलीभगत से मिड डे मील का गोरखधंधा चल रहा है और सब की आंखों में धूल ?ांक कर असल उद्देश्यों पर पानी फेरा जा रहा है.

लेखक-वीरेंद्र देवांगन 

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