नीतीश कुमार ने 26 जुलाई की शाम 6:32 मिनट पर राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप कर 20 महीने पुराने महागठबंधन को एक झटके में तोड़ डाला. संघ मुक्त भारत का नारा गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने वाले नीतीश रात 9 बजते-बजते एक बार फिर संघ और भाजपा की गोद में जा बैठे. बिहार की सियासत में ‘इस्तीफा मास्टर’ और ‘पलटीमार’ नेता के नाम से मशहूर हो चुके नीतीश ने एक बार फिर अपनी इमेज को पक्का कर दिया है.
भ्रप्टाचार के आरापों से घिरे तेजस्वी यादव को इस्तीफा नहीं देने पर जब लालू अड़ गए, तो नीतीश ने अपना पुराना राग ‘अंतरात्मा की आवाज’ गाया और महागठबंधन और लालू से नाता तोड़ अपने पुराने साथी भाजपा से हाथ मिला लिया. जिस भाजपा को उन्होंने लालू के साथ मिलकर 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में धूल चटा दिया था, उसी भाजपा के लिए बिहार सियासत की मजबूत जमीन तैयार कर दी. इस्तीफा देने के एक घंटे बाद ही नीतीश ने भाजपा नेताओं के साथ बैठक की और राज्यपाल से मिल कर सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया. सब कुछ इतनी तेजी और आसानी के साथ हुआ तो खुलासा हो गया कि नीतीश और भाजपा के बीच काफी समय से सियासी खिचड़ी पक रही थी और नीतीश इसे परोसे जाने के लिए खास समय का इंतजार कर रहे थे या इसके लिए भूमिका तैयार कर रहे थे.
5 जुलाई को तेजस्वी के खिलाफ सीबीआई की एफआईआर और 7 जुलाई को लालू के 20 ठिकानों पर सीबीआई और इनकम टैक्स की छापामारी के बाद से ही महागठबंधन में तेजस्वी के इस्तीफे को लेकर घमासान मचा हुआ था. 26 जुलाई को जब लालू यादव ने राजद विधयक दल की बैठक के बाद तेजस्वी यादव के इस्तीफा नहीं देने की बात दुहराई तो महागठबंधन में सन्नाटा पसर गया था. उसी शाम होने वाली जदयू विधयक दल की बैठक पर सबकी निगाहें टिक गई और जैसे अनुमान था, वही हुआ. नीतीश ने राज्यपाल को जाकर अपना इस्तीफा सौंप दिया. उसके बाद जब नरेंद्र मोदी ने ट्वीट के जरिए नीतीश की तारीफ की तो लालू भड़क गए और उन्होंने नया फार्मूला सुझा कर महागठबंधन को बचाने की पूरी कोशिश की. उन्होंने कहा कि न तो नीतीश मुख्यमंत्री रहें और न ही तेजस्वी उपमुख्यमंत्री रहें. राजद, जदयू और कांग्रेस के विधायकों की बैठक हो और नए नेता को चुन लिया जाए. राजद सबसे बड़ा दल है, इसलिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उसका अधिकार बनता है. लालू के इस बयान के बाद शह और मात का खेल तेज हो गया और उसी बीच भाजपा ने लोहा गरम देख कर नीतीश का साथ देने का हथौड़ा चला दिया.
इस्तीफा सौंप कर नीतीश ने खुद को सियासत को बड़ा इस्तीफा मास्टर या कहिए भगोड़ा की इमेज को और ज्यादा पक्का कर लिया. नैतिकता के नाम पर जब-तब इस्तीफा देकर सियसी हड़कंप मचाने वाले नीतीश के बारे में कहा जाता है कि वह सियासी मुश्किलों से जूझने के बजाए भाग खड़े होते हैं. इस बार भी बड़े जतन से बनाए गए महागठबंधन को नैतिकता के नाम पर झटके में तोड़ डाला. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता ने महागठबंधन को जनादेश दिया था न कि अकेले नीतीश कुमार को. सबसे बड़ा दल होने के बाद भी राजद (80 सीट) ने जदयू (71 सीट) के नेता नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी थी. राजद को झटका देने से पहले नीतीश भाजपा को भी इस्तीफे का झटका दे चुके हैं. जून 2013 को भी भाजपा के साथ 17 साल पुराने रिश्ते को पलक झपकते ही इसलिए तोड़ डाला क्योंकि नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया था और मोदी गोधरा कांड के आरोपों से घिरे हुए थे.
नीतीश कहते हैं कि 20 महीने में उन्होंने पूरी इमानदारी के साथ गठबंधन सरकार को चलाने की कोशिश की. उनका दावा है कि वह किसी भी कीमत पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टौलरेंस की नीति से समझौता नहीं कर सकते हैं. नीतीश यह सफाई भी दे रहे हैं कि वह हमेशा से विपक्षी एकता के हिमायती रहे हैं, लेकिन विपक्षी एकता का कोई एजेंडा भी होना चाहिए.
लालू नीतीश पर हमला करते हुए कहते हैं कि वह कहते थे कि मिट्टी में मिल जाएंगे पर भाजपा के साथ नहीं जाएंगे, पर जनता से मिले भारी मेंडेट को लात मार कर दंगाईयों के साथ चले गए? अपने ऊपर लगे पुत्र मोह के आरोपों को खारिज करते हुए लालू कहते हैं कि उन्होंने आंखें मूंद कर बेटे का साथ नहीं दिया, जनता ने उन्हें मेंडेट दिया था, इसलिए तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. अगर आंख मूंद कर हम काम करते तो बेटे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाते, क्योंकि उन्हें ही ज्यादा सीट मिली थी.
इस सियासी उठापटक से नीतीश को जहां दुबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई, वहीं 2015 के विधान सभा चुनाव में हीरो बन कर उभरे लालू एक बार फिर सियासी हाशिए पर ढकेल दिए गए हैं. सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी वह अलग-थलग पड़ गए हैं. किंगमेकर कहे जाने वाले लालू को अपने ही बेटे को किंग बनाने के चक्कर में बहुत बड़ा झटका लगा है. वहीं लालू-नीतीश की दोस्ती से कांग्रेस के भाग से सत्ता छींका फूटा था और उसे मलाई खाने का मौका मिला था. कांग्रेस को अपना सियासी वजूद बचाने के लिए एक बार पिफर जददोजहद करनी पड़ेगी. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के परिवार में फूट की वजह से उसका सियासी गुना-भाग गड़बड़ा गया था और अब बिहार में लालू-नीतीश की फूट से उसके राज्य की सियासत में पैठ बनाने का सपना तार-तार हो गया है. उत्तर प्रदेश और बिहार में लोक सभा के कुल 120 सीट हैं, जिसमें से एक भी कांग्रेस के कब्जे में नहीं है.
बिहार में सियासी उठापठक का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को मिल गया है. साल 2015 के विधान सभा चुनाव में जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बाद भी उसे करारी हार का सामना करना पड़ा था और फिलहाल वह 2020 में बिहार पर फतक करने की कवायद में लगी हुई थी. लालू-नीतीश में फूट डाल कर उसने 3 साल पहले ही बिहार में अपनी सरकार बना ली. भाजपा के सूत्र बताते हैं कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने बिहार में सत्ता पाने के लिए लंबा इंतजार करने के बजाए महागठबंधन में उठापटक मचा कर सत्ता हासिल कर ली. लालू और उनके परिवार को सीबीआई, इनकम टैक्स, ईडी और कोर्ट के चक्कर में उलझा कर उन्हें कमजोर बना दिया और नीतीश को अपने पाले में मिला कर सत्ता का मलाई हासिल कर लिया.
पिछले साल नवंबर में नोटबंदी के बाद से ही नीतीश ने नरेंद्र मोदी के सुर में सुर मिलाना चालू कर दिया था. उसके बाद सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में भी नीतीश मोदी के साथ खड़े दिखे. इस साल जनवरी में पटना में गुरू गोविंद सिंह के 350वें जन्मदिन पर आयोजित प्रकाश पर्व के मौके पर मोदी और नीतीश के बीच जुगलबंदी तेज हो गई थी. नीतीश महागठबंधन की लाइन से अलग जाकर कई मौकों पर केंद्र सरकार और प्रधनमंत्री की तारीफ में कसीदे गढ़ चुके थे. जीएसटी, सर्जिकज स्ट्राइक, नोटबंदी और बेनामी संपति के मामले में नीतीश ने खुल कर मोदी के सुर में सुर मिलाया. इन मामलों में नीतीश ने बिना-लाग लपेट के मोदी का साथ देते रहे.
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा ओैर मणिपुर में भाजपा की जीत और सरकार बनने नीतीश की बांछे खिली थी. उसी समय से नीतीश कुमार और महागठबंधन में उनके साथी और ‘बड़े भाई’ लालू यादव के बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा था. जदयू के कई नेता दबी जुबान में कहते रहे हैं कि लालू के बढ़ते सियासी दबाब और उलजलूल डिमांड से नीतीश खासे परेशान है. भाजपा से दुबारा हाथ मिलाने का धौंस दिखा कर नीतीश अपने सियासी साथी लालू यादव को काबू में रखने का दांव चल सकते हैं.
पिछले दिनों राबड़ी देवी ने अपने बेटे तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर महागठबंधन के अंदर भी खलबली मचा दिया था. राजद का खेमा पिछले कुछ महीने से उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की हवा बनाने में लगा हुआ था. राबड़ी देवी ने अपनी बात को बल देने के लिए कह डाला कि राज्य की जनता तेजस्वी को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती है.
भाजपा नेता और अब नीतीश की ताजा सरकार में उपमुख्यमंत्री बने सुशील मोदी कई बार यह यह कहते रहे हैं कि नीतीश कुमार पलटी मारने में माहिर हैं. जब भाजपा से 17 साल पुराना रिश्ता वह एक झटके में तोड़ सकते हैं तो लालू के उनकी सियासी दोस्ती लंबी नहीं चलने वाली है. नेशनल पार्टी होने के बाद भी भाजपा ने बिहार में नीतीश को बड़े भाई की भूमिका सौंप रखी थी, उसके बाद भी नीतीश ने उस रिश्ते की लाज नहीं रखी थी. अब लालू के साथ मिलने से नीतीश छोटे भाई की भूमिका में आ गए हैं और लालू के बढ़ते सियासी दबाब को को वह ज्यादा समय तक नहीं झेल पाएंगे. छोटे मोदी की यह बात आखिरकार 26 जुलाई की शाम को सच हो गई. जदयू के भी कई नेता भी गाहे-बगाहे कहते रहे हैं कि लालू की महत्वाकाक्षांओं और परिवारवाद का बोझ नीतीश ज्यादा समय तक नहीं ढो सकते हैं. यह सही ही साबित हुआ है.