प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने बहुत छोटे बच्चों, जो अभी कक्षा दो, तीन या चार में ही हैं, की स्कूल की पढाई के अलावा प्राइवेट ट्यूशन के विषय में कहा था, ‘भारत में प्राइमरी लैवल पर बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन के लिए भेजना शर्मनाक है. चीन, जापान, इंडोनेशिया, अमेरिका या विभिन्न यूरोपीय देशों की यात्रा में मैंने कहीं भी प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ट्यूशन का प्रचलन नहीं देखा. प्राइवेट ट्यूशन का जारी रहना और लगातार बढ़ना इस बात का सूचक है कि हमारे स्कूल अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. जब बच्चों को एक अलग ट्यूटर की जरूरत पड़ रही है तो फिर स्कूलों की उपयोगिता क्या है?’
भारत में छोटेबड़े सभी शहरों और अब तो गांवोंकसबों में भी स्कूल की पढ़ाई के बाद बच्चों को प्राइवेट ट्यूटर के पास दोतीन घंटे बिताना आम है. हर मातापिता अपने बच्चे को क्लास में अव्वल देखना चाहते हैं. उनकी महत्त्वाकांक्षाओं और इच्छाओं का नाजायज दबाव बच्चों के ऊपर बढ़ता जा रहा है. दूसरी तरफ टीचर्स, चाहे सरकारी स्कूल के हों, या प्राइवेट स्कूल के, को अतिरिक्त पैसे की हवस ने इतना लालची बना दिया है कि वे स्वयं बच्चों पर ट्यूशन पढ़ने का दबाव बनाते हैं, वरना क्लास में फेल कर देने की धमकी देते हैं. इस तरह वे बच्चों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहते हैं. प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाने में पैसा खूब है. जितनी एक बच्चे की महीने की स्कूलफीस होती है, लगभग उतना ही पैसा ट्यूशन पढ़ाने वाला टीचर ले लेता है. विषय भी सारे नहीं पढ़ाता. अधिकतर साइंस, गणित और इंग्लिशके ट्यूशन के लिए ही इनके पास बच्चे जाते हैं.
ट्यूशन का सिलसिला कब शुरू हुआ?
प्राचीन समय में शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी. शस्त्र-शास्त्र के ज्ञान के लिए शिष्यों को लंबे समय तक गुरु के पास गुरुकुल में ही रहना होता था. आमतौर पर शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी होती थी और गुरुकुल का खर्च राजा उठाता था. प्राचीन ग्रंथों में गुरु को ईश्वर से बड़ा दर्जा दिया गया है. प्राचीन काल में प्राइवेट टीचर का कोई अस्तित्व नहीं था. भारत ने बहुत लंबे समय तक गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन किया. आज भी कुछ गुरुकुल और मदरसों का अस्तित्व समाज में है.
पाश्चात्य देशों में स्कूल सिस्टम शुरू हुआ और भारत में अंग्रेजों की हुकूमत के साथ इसका विस्तार हुआ. यहां भी स्कूल खुले. अध्यापकों की भरतियां हुईं. शिक्षा के लिए सिलेबस और समय निर्धारित हुआ. मगर आजादी के बाद के कई दशकों तक भी देश में प्राइवेट ट्यूशन का कोई चलन नहीं था. पढ़ाई में कमजोर बच्चों को स्कूल के बाद रोक कर अलग से पढ़ाया जाता था और उसके लिए स्कूल कुछ एक्स्ट्रा चार्ज नहीं करता था. पहले संयुक्त परिवार में रहने के कारण स्कूल से आने के बाद या परीक्षाओं के वक्त सभी बच्चे दादा, चाचा, बूआ या बड़े भाईबहनों से पढ़ते थे. धीरेधीरे विभिन्न क्षेत्रों में प्रतियोगी परीक्षाओं की शुरुआत के साथ प्राइवेट ट्यूशन का चलन भी शुरू हुआ.
एक पीढ़ी पहले वाली जमात की बात करें तो उस वक्त भी 8वीं या 9वीं कक्षा के बाद ही ट्यूशन की जरूरत पड़ती थी, वह भी उन विषयों में जिन में बच्चा कुछ कमजोर होता था ताकि 10वीं बोर्ड की परीक्षा में पास हो जाए. मगर वर्तमान पीढ़ी तो पहली और दूसरी कक्षा से ही प्राइवेट ट्यूटर के पास जाने लगी है. नन्हेनन्हे बच्चे स्कूल में लंबा समय गुजारने के बाद दोतीन घंटे ट्यूटर के पास भी बिताते हैं. नतीजा, बच्चों के पास खेलनेकूदने का समय ही नहीं बचा है. पूरे वक्त पढ़ाई का बोझ उन पर हावी रहता है. वे बस खाते हैं और किताबों में घुसे रहते हैं. यही वजह है कि छोटेछोटे बच्चे थुलथुल काया लिए मोटेमोटे चश्मे लगाए नजर आते हैं.
मदर्स प्राइड स्कूल का 6 साल का अंकुर 2 बजे स्कूल से लौटता है. उसकी मम्मी स्कूल यूनिफौर्म बदले बिना उसको झटपट खाना खिला कर स्कूल यूनिफौर्म में ही ट्यूशन टीचर के घर भेज देती हैं. दो घंटे वहां पढ़ने व होमवर्क करने के बाद जब अंकुर साढ़े 6 बजे थकामांदा लौटता है तो फिर पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने का न तो टाइम बचता है और न ही ताकत. आते ही सो जाता है. 10 बजे उसके पापा रात के खाने के लिए उसको जबरदस्ती उठाते हैं.
अकसर अंकुर ट्यूशन पढ़ने नहीं जाना चाहता. स्कूल से लौट कर वह अपने हमउम्र बच्चों के साथ घर के सामने वाले पार्क में खेलना चाहता है. कभी टीवी पर अपना मनपसंद कार्टून शो देखना चाहता है, कभी वीडियो गेम खेलना चाहता है, लेकिन मम्मी के आगे उसकी एक नहीं चलती है. ट्यूशन क्लास न जाने के लिए अंकुर कभीकभी पेटदर्द का भी बहाना करता है, लेकिन उसकी मम्मी गरम पानी से चूरन की गोली खिला कर उसे ट्यूशन के लिए रवाना कर देती है. ट्यूशन क्लास ले जाने के लिए बाकायदा ईरिकशा लगवा रखा है, जिसमें उसके साथ महल्ले के दोएक बच्चेऔर जाते हैं उसी टीचर से ट्यूशन पढ़ने.
अंकुर अभी कक्षा 2 में है. शहर के अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता है. उसकी स्कूल की फीस 3,000 रुपए महीना है और उसकी मां 4,000 रुपए हर महीने ट्यूशन टीचर को देती है, जो उसका सारा होमवर्क और रिवीजन वर्क करवाती है. अंकुर की मां हर वक़्त उसे समझाती है कि उसे क्लास में फर्स्ट आना है. इसी क्लास में ही नहीं, बल्कि आगे भी हर क्लास में फर्स्ट आना है और बड़े होकर पापा की तरह इंजीनियर बनना है.
नन्हा सा बच्चा जो अभी इंजीनियर होने का मतलब भी नहीं समझता, पढ़ाई के नाम पर उससे उसकी सारी आज़ादी और अधिकार छीन लिए गए हैं. मांबाप की महत्त्वाकांक्षा के लिए वह गुलामों सी जिंदगी जी रहा है. उसके बर्थडे पर मिलने वाले बढ़ियाबढ़िया खिलौने अलमारी में बंद रहते हैं. बैडमिंटन रैकेट और बैट-बौल डब्बे से बाहर नहीं निकलते. खेलने के लिए उसके पास सिर्फ संडे का आधा दिन होता है. बाकी दिन सुबह से शाम तक वह स्कूल यूनिफौर्म में ही रहता है. वह मन लगा कर पढ़े, इस के लिए उसकी मां चौकलेट, चिप्स, मोमोस, पिजा आदि जो वह खाने के लिए मांगता है, सब मंगा कर देती है. यही वजह है कि अंकुर थुलथुल होता जा रहा है. मगर उसकी मां कहती है कि उस का बेटा हैल्दी है. पढ़ाकू बच्चे ऐसे ही होते हैं.
चलताऊ शिक्षण संस्थान
दो पीढ़ी पहले के स्कूल और वहां के मास्टरजी के पढ़ाने का तरीका याद करें. भले टाटपट्टी वाला स्कूल क्यों न हों, मास्टरजी की छड़ी की करामात थी कि 20 तक के पहाड़े बच्चों को जबानी रटे होते थे. विज्ञान और गणित के बड़ेबड़े समीकरण याद होते थे. इतिहास में कौन किसका बेटा और कौन किसका पोता सब मालूम होता था. उस पीढ़ी ने प्राइवेट ट्यूशन को कभी जाना ही नहीं. स्कूल से छूटे तो सीधे खेल के मैदान में नजर आते थे. उन की ज्ञानवृद्धि के लिए स्कूली शिक्षा पर्याप्त थी, जो बहुत अच्छे तरीके से होती थी. मगर आज कुछ पब्लिक स्कूलों को छोड़ दें तो आमतौर पर स्कूलों में शिक्षा देने का काम बड़े ही चलताऊ तरीके से हो रहा है.
गलीगली कुकुरमुत्तों की तरह इंग्लिश स्कूल खुले हुए हैं. उनमें अधिकांश टीचर स्कूल के आसपास की कालोनी से ही आते हैं, जो अनट्रेंड होते हैं और कम सैलरी में पढ़ाने के लिए तैयार हो जाते हैं. अधिकतर प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के पास बुनियादी साधन नहीं हैं. स्टूडैंट्स के अनुपात में टीचर बहुत कम हैं. एक शिक्षक पर कई कक्षाओं की जिम्मेदारी होती है. देखा जाता है कि जो टीचर सुबह नर्सरी क्लास लेती है वही हाफटाइम के बाद 9वीं या 10वीं के बच्चों को पढ़ा रही है. कम सैलरी, साधनों की कमी और व्यवस्थागत कमियों की वजह से ऐसे शिक्षक अपने दायित्व के प्रति उदासीन रहते हैं. ऐसे में बच्चों के अभिभावकों के सामने प्राइवेट ट्यूटर रखने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं बचता.
ऊपरी कमाई का बड़ा लालच
स्कूलों में टीचर्स बच्चों पर दबाव डालते हैं कि वे उनके घर आकर उनसे ट्यूशन लें. पेरैंटटीचर मीटिंग में वे पेरैंट्स को बताते हैं कि उनका बच्चा पढ़ाई में बड़ा कमजोर है. अगर अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो पिछड़ जाएगा. इस तरह बच्चे और पेरैंट्स की घेराबंदी के बाद बच्चों का प्राइवेट ट्यूशन शुरू हो जाता है. दिलचस्प है कि वही शिक्षक, जो कक्षा में गंभीर नहीं होते, प्राइवेट ट्यूशन में बच्चे पर काफी ध्यान देते हैं क्योंकि यहां ऊपरी कमाई का लालच है.
अयान शेख कक्षा 8 का छात्र है. वह स्कूल की छुट्टी के बाद हफ्ते में 3 दिन दो घंटे गणित और विज्ञान के ट्यूशन के लिए स्कूल के ही टीचर फ्रेडरिक फैंथम के घर जाता है और 3 दिन दो घंटे इंग्लिश और हिस्ट्री-ज्योग्राफी के ट्यूशन के लिए मिसेज कामता कौशल के घर जाता है. उसके पिता हर माह 6 हज़ार रुपए उस के प्राइवेट ट्यूशन पर खर्च करते हैं और साढ़े 3 हज़ार रुपए स्कूल की फीस देते हैं.
अयान कहता है कि स्कूल में तो ये टीचर्स कुछ पढ़ाते नहीं हैं पर घर पर बहुत अच्छी तरह विषय समझाते हैं. अगर स्कूल में ही अच्छी तरह पढ़ा दें तो ट्यूशन की ज़रूरत न पड़े. अयान की क्लास के अनेक बच्चे इन दोनों टीचर्स के घर जाकर ट्यूशन पढ़ते हैं. समझ सकते हैं कि ऐसे टीचर्स की ऊपरी कमाई कितनी ज्यादा है. लखनऊ, दिल्ली, नोएडा, मुंबई, बेंगलुरु जैसे शहरों में प्राइवेट ट्यूशन कमाई का बड़ा धंधा बन चुका है.
संयुक्त परिवार का टूटना
पहले जब चाचाताऊ,दादादादी इकट्ठे एक ही छत के नीचे रहते थे तो बच्चों को पढ़ाई में घर वालों की ही मदद मिल जाती थी. होमवर्क कराने का जिम्मा कभी दादाजी के ऊपर होता था तो कभी चाचा पर. बड़े भाईबहन भी शाम को सभी छोटे बच्चों को एक जगह बिठा कर पढ़ाते थे. कभीकभी इस सामूहिक पढाई में महल्ले के बच्चे भी शामिल होते थे. बच्चों में आपसी प्रतिस्पर्धा भी रहती थी. एकदूसरे से अधिक नंबर लाने की होड़ लगती थी. इस तरह की पढाई में धन के लेनदेन का कोई स्थान नहीं था. लेकिन जैसेजैसे संयुक्त परिवार टूटे और लोग पुश्तैनी मकान छोड़ कर बीवीबच्चों के साथ दूसरे शहरों में बसे, बच्चों की पढ़ाई मुश्किल हो गई.
आरंभिक स्तर पर बच्चों को स्कूल के अलावा घर में भी थोड़ेबहुत मार्गदर्शन की जरूरत होती है. लेकिन एकल परिवार में यदि मांबाप दोनों नौकरीपेशा हैं तो उनके पास वक़्त ही नहीं है कि दोतीन घंटे बैठ कर वे अपने बच्चों को पढ़ा सकें. अगर पिता नौकरीपेशा है और मां गृहिणी है और उसकी शिक्षा इतनी नहीं है कि वह बच्चे को पढ़ा सके तो भी समस्या उत्पन्न होती है. सभी पेरैंट्स की यह ख्वाहिश रहती है कि उनके बच्चे कक्षा में अच्छे नंबर लाएं मगर पढ़ेलिखे मातापिता भी अपनी व्यस्तता के बीच से थोड़ा भी वक्त बच्चों को नहीं देना चाहते. वे स्कूल और प्राइवेट ट्यूटर के भरोसे सबकुछ छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं. इसी कारण ट्यूशन की यह समानांतर व्यवस्था दिनोंदिन मजबूत होती जा रही है.
ट्यूशन पढ़ाना स्टेटस सिंबल
छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना आज स्टेटस सिंबल भी बन गया है. किसका बच्चा कौन से महंगे स्कूल में पढ़ रहा है और किस महंगे ट्यूटर से ट्यूशन ले रहा है, इसको बताने में लोगों को बहुत गर्व महसूस होता है. कभीकभी आवश्यकता न होने पर भी धनाढ्य वर्ग अपने बच्चों का ट्यूशन लगा देता है. ‘मिसेज मेहरा अगर अपने बेटे को मिनाक्षी मैडम के ट्यूशन क्लास में पढ़वा रही हैं तो हमारे पास पैसे की कमी है क्या जो हम अपनी बेटी को उन के ट्यूशन क्लास में नहीं भेज सकते?’ कालोनी और फ्लैट कल्चर में रह रहे लोगों की यह सोच आज नर्सरी के बच्चे को भी ट्यूशन के चक्रव्यूह में फंसा रही है. ट्यूशन लगाना पेरैंट्स के लिए आज एक सामाजिक उपलब्धि लगती है चाहे उनके बच्चे को सब आता हो. काफी बच्चों के मातापिता तो सिर्फ इसलिए ट्यूशन भेजते थे ताकि वे शाम को महल्ले के बच्चों के बीच खेलने न जाएं.
अंशिका ने अपनी 7 साल की बेटी का ट्यूशन लगवा दिया है, जबकि वे खुद उसका सारा होमवर्क करवा सकती हैं. अभी तक करवा ही रही थीं. उन से पूछा तो बोलीं, ‘अरे ट्यूशन की जरूरत तो नहीं थी, मैं तो बेटी को खुद पढ़ा लेती हूं, मगर साथ वाली बड़ा टोकती हैं. उनकी बेटी भी ट्यूशन जाती है. मैंने सोचा कि कहीं ताना न देने लगे कि- अरे आपकी बेटी ट्यूशन नहीं जाती?उनकी बात से ऐसा लगेगा जैसे हम आर्थिक रूप से उनसे कमजोर हैं. इसलिए इस का ट्यूशन लगवा दिया.
कुछ मातापिता की यह हार्दिक इच्छा होती है कि जो वे जीवन में नहीं बन पाए, उनका बच्चा वह अवश्य बने (भले ही उसकी उस क्षेत्र में रुचि न हो). ऐसे लोग प्रतिमाह पड़ने वाले ट्यूशन फीस के अतिरिक्त भार के लिए और अधिक मेहनत कर लेते हैं, पर बच्चे को ट्यूशन कराने से पीछे नहीं हटते हैं.
(बौक्स –1)
ट्यूशन की जरूरत क्यों
आरिफ एक प्रतिष्ठित स्कूल में बायोलौजी के टीचर हैं. उन्होंने अपने बेटे के लिए गणित और विज्ञान का ट्यूशन तब लगवायाजब वह 9वीं कक्षा में आया. उससे पहले वे खुद ही उसका होमवर्क करवाते रहे हैं. नर्सरी और केजी के बच्चों को ट्यूशन के लिए भेजे जाने का वे विरोध करते हैं.
आरिफ कहते हैं,“ “यदि आप स्वयं अपने बच्चों को घर पर पढ़ा सकते हैं तो ट्यूशन टीचर की जरूरत नहीं है. और इतने छोटे बच्चों को तो ट्यूशन के लिए भेजना ही नहीं चाहिए. स्कूल में चारपांच घंटे की पढ़ाई उनके लिए पर्याप्त है. बच्चों में आत्मविश्वास जगाने और आत्मनिर्भरता सिखाने की ज्यादा जरूरत होती है. बच्चों का दिमाग इतना सक्रिय होता है कि क्लास में उन्हें जो कुछ भी बताया जाता है उसे शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं. मेरी राय में यदि आप उन्हें घर पर समय दे सकते हैं तो छोटी कक्षा में ट्यूशन के लिए हरगिज न भेजें.”
आरिफ चूंकि खुद एक टीचर हैं तो वे बच्चों की पढ़ाई के प्रति गंभीरता और लापरवाही को भलीभांति समझते हैं. वे कहते हैं, ““बच्चे की ग्रहणशक्ति और स्कूल में टीचर्स द्वारा विषय को पढ़ाने के तरीके पर निर्भर करता है कि उसको स्कूल की पढ़ाई के अलावा भी पढ़ाए जाने की आवश्यकता है अथवा नहीं. कुछ बच्चे किसी बात को तेजी से सीख लेते हैं तो कुछ दो या चार बार पढ़ने के बाद ही अध्याय के मूल सिद्धांत को समझ पाते हैं. तो इसका सटीक जवाब है कि यदि बच्चे को हर अध्याय का कौन्सेप्ट समझ में आ रहा है तो उसको ट्यूशन की कोई आवश्यकता नहीं है.””
आरिफ आगे कहते हैं,“ “हर बच्चे की सीखने की शक्ति में भिन्नता होती है. जिन स्कूलों में अध्याय के मूल सिद्धांत को सरलता से और रोचकता के साथ पढ़ाया या सिखाया जाता है, उन स्कूलों के बच्चे तेजी से अध्याय को सीख लेते हैं. ऐसे बच्चों को स्कूलों के बाद ट्यूशन जाने की आवश्यकता नहीं होती है. घर में बच्चों को सपोर्ट देना भी बहुत ज़रूरी है. आज के दौर में मातापिता अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर काफी सजग हैं. बहुतेरे अभिभावक बच्चों को स्कूल से आने के बाद खुद पढ़ाते हैं. नियमित रूप से बच्चे को पढ़ाने से उसकी कमजोरियां मांबाप को पता चलती हैं और उन्हें दूर किया जा सकता है. जो छात्र किसी अध्याय को धीमी गति से सीखते हैं, और उनको घर पर अभिभावक का भी सपोर्ट नहीं मिल पाता है, उन्हीं बच्चों को ट्यूशन जाने की आवश्यकता होती है.”
(बौक्स –2)
प्रतिस्पर्धा का समय
शेफाली अस्थाना के दोनों बच्चे पढ़ाई में बहुत अच्छे हैं. शेफाली सरकारी नौकरी में हैं. वे शाम को घर आने के बाद स्वयं दोनों बच्चों को पढ़ाती हैं. छोटे बच्चों को प्राइवेट ट्यूटर के पास भेजने की बढ़ती रवायत पर उनका कहना है, ““पहले बच्चों की माताएं घर पर रहती थीं, यदि पिता बिजी हुए तो वे बच्चों को पढ़ाती थीं. मैं स्वयं अपने बच्चों को पढ़ाती हूं जबकि मैं नौकरी भी करती हूं. आजकल मातापिता बच्चों को समय नहीं देना चाहते. वे उनके ऊपर पैसा खर्च करने को तैयार हैं पर उनके पास घंटेदोघंटे बैठ कर यह नहीं जानना चाहते कि वे पढाई में कैसे हैं.पहले संयुक्त परिवार होते थे और बच्चे घर के किसी भी सदस्य से पढ़ लिया करते थे. ऐसा अब नहीं है.
““हम भाईबहनों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की मगर कभी किसी से प्राइवेट ट्यूशन नहीं पढ़ा. हम सबको शाम को पिताजी पढ़ाते थे. अगर वे किसी काम से शहर से बाहर होते थे तो ताऊजी पढ़ाते थे. पहले के पिता अपने बच्चों की तरक्की स्वयं देखते थे क्योंकि उनके पास आज की पीढ़ी की अपेक्षा पैसा कम होता था और वे उसे बरबाद नहीं करना चाहते थे, बल्कि संभाल कर चलते थे. पहले कक्षाओं में शिक्षक भी मन लगाकर पढ़ाते थे और जिन बच्चों को कुछ नहीं समझ में आता था, वे स्कूल की छुट्टी के बाद उन्हें अतिरिक्त समय दे दिया करते थे. आज के शिक्षकों में यह भावना नहीं है. वे सीधे ट्यूशन लेने को कहते हैं. मातापिता भी शिक्षक के कोप से बचने के लिए या उसकी निगाह में अपने बच्चे का महत्त्व बढ़ाने के लिए उनसे ही ट्यूशन लगवा देते हैं.
“आज का समय प्रतिस्पर्धा का है, इसलिए हर मातापिता चाहते हैं कि उनका बच्चा अधिक से अधिक अंक लाए और इसीलिए वे छोटी कक्षा से ही उस को ट्यूशन के लिए भेजना शुरू कर देते हैं. जो लोग संयुक्त परिवार से अलग हो चुके हैं और पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं तो उनके पास बच्चों को पढ़ाने के लिए समय नहीं रह गया है. उनका घर और बच्चे सब नौकरों और प्राइवेट ट्यूटर के सहारे रहते हैं.”