जब पतिपत्नी का एक छत के नीचे सहज तो सहज, असहज तरीके से रहना भी दूभर हो जाए तो एकदूसरे से तलाक ले कर छुटकारा पाना गलत नहीं. दिक्कत यह कि कोर्टकचहरी में उन्हें परामर्श केंद्र, फैमिली कोर्ट और तरहतरह की एजेंसियों में उलझा कर उन के सब्र का इम्तिहान लिया जाता है. जब साथ रहना इच्छा में नहीं तो इस का जल्द निबटारा क्यों नहीं? भोपाल से वायरल होता हुआ एक दिलचस्प इन्विटेशन कार्ड देखतेदेखते देशभर में वायरल हो गया था जिसे आम और खास दोनों तरह के लोगों ने दिलचस्पी और चटखारे ले कर पढ़ा था.

बात थी भी कुछ ऐसी ही क्योंकि लाल रंग का यह आमंत्रण पत्र विवाह समारोह का नहीं, बल्कि विवाहविच्छेद समारोह का था जिस में कार्यक्रमों की रूपरेखा बिलकुल शादी की तर्ज पर दर्ज की गई थी. इस में जयमाला विसर्जन, सद्बुद्धि, शुद्धिकरण यज्ञ, बरात विसर्जन, जैंट्स संगीत, मानव सम्मान में कार्य करने हेतु 7 कदम और 7 प्रतिज्ञा और अंत में मुख्य अतिथि द्वारा विवाह विच्छेद की डिक्री वितरण आदि कार्यक्रम प्रमुख रूप से दर्ज थे. यह अनूठा आयोजन ‘भाई’ नाम की संस्था 18 सितंबर को रायसेन रोड स्थित फ्लोरा फौर्म एंड रिसोर्ट में संपन्न करवाने वाली थी जिस में कोई 200 लोगों को आमंत्रित किया गया था. अंदाजा था कि ये सभी तलाकशुदा होंगे.

कार्ड के नीचे खासतौर से पुरुष हैल्पलाइन नंबर 8882498498 भी दिया गया था. कार्ड के वायरल होते ही एक रोमांच सा पसर गया था. हर कोई इस रोमांचकारी आयोजन को देखना चाहता था कि कैसे तलाक का जश्न मनाया जाएगा. उत्सुकता इतनी थी कि दूसरे शहरों से भी लोग इन्क्वायरी कर रहे थे कि हम भोपाल आएं तो इस आयोजन में एंट्री कैसे मिलेगी और क्या दूसरे शहरों के तलाकशुदा इस में शिरकत कर सकते हैं. ये तिलमिलाए रिस्पौंस मिलने लगा तो कट्टर हिंदूवादी और उन के संगठन तिलमिलाने लगे. उन्होंने आयोजकों की जन्मकुंडली खंगाली तो इत्तफाक से उन में से एक मुसलमान निकला. बस, हल्ला मचाने को यही एक पौइंट काफी था. सो, उन्होंने भी एक पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल करते प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा और प्रशासन से मांग कर डाली कि यह आयोजन हिंदूविरोधी है. लिहाजा, इसे न होने दिया जाए और अगर हुआ तो हम फ्लोरा फौर्म हाउस जा कर विरोध करेंगे.

भाई संस्था ने विरोध और टकराव से बचने के लिए इस चर्चित समारोह को रद्द कर दिया तो यह उस की समझदारी थी क्योंकि हंगामा तो वे हिंदूवादी मचाते ही मचाते जिन्होंने विवाहविच्छेद समारोह को सनातन धर्मविरोधी बताते अपनी पोस्ट में प्रमुखता से कहा था कि,

१. डायवोर्स इन्विटेशन भेज कर तलाक उत्सव आयोजित करना सीधासीधा हिंदू धर्म की मान्यताओं पर प्रहार है क्योंकि यह पुरखों के दिनों में आयोजित किया जा रहा है. यह कोई सामान्य आयोजन नहीं, बल्कि सनातन धर्म का मखौल उड़ाने और उसे ध्वस्त करने के लिए है.

२. इस आयोजन में हिंदू विवाह के समय दूल्हे द्वारा पहनी गई पगड़ी, जयमाला, फोटो अलबम आदि को यज्ञबेदी में जलाया जाएगा. ३. सात फेरों की जगह 7 कदम चल कर मान्यताओं से हट कर संकल्प लिए जाएंगे.

४. यह बात समझने वाली है कि आयोजक की अहमद को सिर्फ हिंदू तलाकशुदाओं की चिंता हो रही है. इस में एक भी मुसलिम, ईसाई तलाकशुदा पुरुष से उन की धार्मिक मान्यताओं की मुखालफत और अपमान नहीं कराया जाएगा.

५. तथाकथित बुद्धिजीवी हिंदुओं का अपने धर्म और मान्यताओं के प्रति मजाकिया लहजा हमारे धर्म और संस्कृति पर चोट पहुंचाने वाले विधर्मियों के मंसूबों को सफल बनाने और उन के धर्म के प्रसार का माहौल पैदा करता आया है.

६. क्यों तलाकशुदा मुसलिम दूल्हों को बुला कर उन से कुबूल है, कुबूल है को सुपुर्द ए खाक नहीं करवाया जा रहा, क्यों दूल्हे भाई के सेहरे को पैरों के नीचे कुचलवाया नहीं जा रहा, उस की शेरवानी के चिथड़े नहीं उड़वाए जा रहे.

७. वास्तव में सनातनी हिंदू परंपरा में तलाक या तलाक का कोई स्थान था ही नहीं. इंग्लिश में कहा भी गया है कि ‘द हिंदू मैरिज इज अ सेक्रामैंट नौट अ कौन्ट्रैक्ट’ यानी हिंदू विवाह एक पवित्र संस्कार है, कोई लिखित अनुबंध नहीं. हिंदू को आजीवन निभाया जाता था, शादी के वचनों का महत्त्व था, तलाक की कोई प्रथा नहीं थी. विवाहविच्छेद शब्द कानून में है, किसी धार्मिक ग्रंथ में नहीं. सौ फीसदी सच बाकी 6 के तो कोई माने नहीं लेकिन 7वें वचन में सौ फीसदी सच बोला गया कि दरअसल हिंदू सनातन जो भी हो, धर्म में तलाक का प्रावधान ही नहीं था. यह तो हिंदू कोड बिल बनने के बाद 1947 में आया जो लागू 1951 में हुआ था और किश्तों में 1956 तक होता रहा.

नई पीढ़ी के हिंदुओं को याद दिलाना ज्यादा बेहतर और जरूरी है कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और कानून मंत्री व संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव अंबेडकर कानून बना कर हिंदू महिलाओं को तलाक का हक दिला रहे थे तब भी तब के कट्टर हिंदूवादियों ने भी खूब हल्ला मचाया था और विरोध प्रदर्शन भी किए थे. लेकिन ये दोनों टस से मस नहीं हुए थे क्योंकि इन के सामने सवाल आधी आबादी यानी औरतों के हक, आजादी और बराबरी के दर्जे का था जो ये दिला कर ही रहे. तलाक के अधिकार के साथसाथ महिलाओं को वोट देने का और खासतौर से विधवाओं को भी जायदाद का भी हक मिला. ये बातें भी कानूनी किताबों में दर्ज हैं, किसी धर्मग्रंथ में नहीं लिखी हैं. उलटे, उन में तो यह लिखा है कि महिला को न तो संपत्ति का अधिकार है और न ही आजादी से रहने का हक है. मनु स्मृति के मुताबिक, स्त्री को बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए.

75 साल पहले टूटी ये बंदिशें मर्दों के दबदबे वाले हिंदू समाज को अब तक साल रही हैं क्योंकि उन से एक से ज्यादा शादी करने की छूट व सहूलियत छिन गई थी और वे पहले की तरह पत्नी को घर से दूध में पड़ी मक्खी की तरह नहीं निकाल सकते थे. अब महिलाएं तेजी से शिक्षित और जागरूक हो कर कलह और विवाद की नौबत आने पर तलाक के लिए अदालत जाने लगी हैं. लेकिन अभी भी ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम है. इस की एक अहम वजह कानूनी खामियों के चलते तलाक मिलने में होती गैरजरूरी देरी है. कानून तो टेढ़ेमेढ़े हैं ही, साथ ही, अदालत में बैठे मुलाजिम और साहब भी नहीं चाहते कि तलाक जल्द हो क्योंकि उन्हें लगता है कि तलाक से धर्म, संस्कृति और नैतिकता छिन्नभिन्न और भ्रष्ट होती है, इसलिए तलाक चाहने वालों की हिम्मत तोड़ने के लिए वे तारीख पर तारीख देते रहते हैं.

तलाक इसलिए जरूरी है भोपाल के बवंडर से तो साबित यही होता है कि कुछ कट्टर हिंदूवादी फिर से महिलाओं से तलाक का हक छीनना चाहते हैं जिस से औरत एक बार फिर पांव की जूती, दासी और गुलाम हो जाए. हालांकि अभी भी वे बहुत बड़ी तादाद में आजाद नहीं हैं पर जितनी भी हैं उन्हें भी धर्म के लपेटे में ले लिया जाए तो पुरुषों का स्वर्णयुग वापस लाया जा सकता है. तलाक उत्सव के अपने अलग माने थे जिसे कानून के नजरिए से देखने पर एक वीभत्स सच सामने आता है कि तलाक चाहने वाले पतिपत्नी दोनों परेशान हो कर एक घुटनभरी जिंदगी जी रहे होते हैं.

अदालती प्रक्रिया न केवल इस घुटन को और बढ़ाती है बल्कि उन्हें जलील भी करती है. भोपाल में जिन तौरतरीकों से विवाहविच्छेद समारोह की बात की गई उन में ऐसा लगता है कि आयोजकों को परेशानी तुरंत या जल्द तलाक न मिलने की थी या है क्योंकि तलाक के मुकदमे सालोंसाल चलते हैं जिन में पतिपत्नी अदालतों के चक्कर लगाते जिंदगी से आजिज आ जाते हैं. अदालत में कदम रखते ही सामना बैंडबाजे वालों, टैंट हाउस वाले से या सात फेरे पढ़वाने वाले पंडित से नहीं बल्कि वकीलों, मुंशियों, क्लर्कों और जज से होता है जिन का शादी में कोई रोल ही नहीं था.

यानी तलाक की प्रक्रिया वे लोग संपन्न करवाते हैं जिन का शादी से कोई लेनादेना नहीं था. मेहमान, बराती, घराती कोई तलाक चाहने वाले के साथ नहीं होता. यह स्थिति असहज कर देने वाली होती है. तलाक क्यों होते हैं, इस सवाल का जबाब बेहद साफ है कि वजह कोई भी हो, पतिपत्नी का एक छत के नीचे सहज तो सहज, असहज तरीके से रहना भी दूभर हो चुका होता है इसलिए वे एकदूसरे से छुटकारा चाहते हैं. फिर क्यों उन्हें परामर्श केंद्र, फैमिली कोर्ट जैसी तरहतरह की एजेंसियों के पास भेज कर साथ रहने की सलाह दी जाती है. मानो वे कोई दूध पीते बच्चे हों.

जबकि होता यह है कि पतिपत्नी जब यह महसूस कर लेते हैं कि अब एकसाथ रहना और निभाना मुमकिन नहीं, तभी अदालत की शरण में जाते हैं. जहां उन्हें पहले नसीहत, मशवरा और समझाइश मिलते हैं और इस पर भी वे अडिग रहें तो सालों तक तारीखें मिलती रहती हैं. ये तारीखें जवानी को अधेड़ावस्था या बुढ़ापे में तबदील कर जिंदगी का सुनहरा वक्त दो अच्छेखासे लोगों से छीन लेती हैं. इन के साथ दोनों के परिवारजन और बच्चे अगर हों तो वे भी तनाव में जीते हैं. इस पर अदालतें खामोश रहती हैं लेकिन कोफ्त तब होती है जब उन के फैसलों से भी ‘तलाक बुरी चीज है’ की गंध आती है. लगता ऐसा है कि आगे आने वाले हैरानपरेशान पतिपत्नियों से यह कहा जा रहा है कि उसी घुटन में जी लो, यहां की घुटन भी कम सांस घोंटने वाली नहीं. अब पसंद आप की, जो चाहें चुन लें.

बीती एक सितंबर को एक चर्चित फैसले में केरल हाईकोर्ट ने कई अहम टिप्पणियां की थीं. उक्त इस मामले में पति ने अपनी पत्नी और 3 बेटियों को 9 साल पहले छोड़ दिया था. इन दोनों की शादी साल 2009 में हुई थी जो 2018 तक ठीकठाक चली. इस के बाद पत्नी का व्यवहार बदल गया और वह पति पर किसी और से अफेयर चलने के आरोप लगाने लगी. यह कोई नई या हैरानी की बात नहीं थी लेकिन इसी आधार पर निचली अदालत ने तुरंत तलाक की डिक्री क्यों नहीं दे दी, यह सोचने वाली बात है. हाईकोर्ट के फैसले में लिवइन रिलेशनशिप को कोसा जाना समझ से परे है. फैसले में प्रमुखता से यह कहा गया कि आजकल वैवाहिक संबंध यूज एंड थ्रो जैसे होते जा रहे हैं. लिवइन संबंधों में वृद्धि और तलाक का विकल्प चुनने की प्रचलित प्रवृत्ति इस का स्पष्ट प्रमाण हैं.

युवा पीढ़ी स्पष्ट रूप से विवाह को एक बुराई के रूप में देखती है. बुरा यह है फैसले में लिवइन और विवाह का तुलनात्मक अध्ययन का होना बताता है कि कानून की चिंता तलाक के बढ़ते मामले हैं लेकिन यह शायद ही कोई बताए कि तलाक के मामले अदालतों में सालोंसाल क्यों लटके, अटके और चलते रहते हैं. जिस मामले पर तल्ख टिप्पणी फैसले में की गई उस में तलाक फिर भी नहीं दिया गया. अब मुमकिन है अगर पति पैसे वाला होगा तो शायद सुप्रीम कोर्ट भी जाए. लेकिन यह समस्या या उस की परेशानी का हल नहीं होगा क्योंकि साढ़े 4 साल पति के साथ पत्नी और 3 मासूम बेटियों ने भी तनाव, अनिश्चितता और आशंका में गुजारे हैं जिस की मियाद अब और बढ़ गई है.

इसे न्याय क्या खा कर कहा जाए, बात समझ से परे है. इस में कोई शक नहीं कि नई पीढ़ी के लोग बजाय शादी के लिवइन में रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं तो इस में गलत क्या है. यह निहायत ही व्यक्तिगत बात है और अगर गलत किसी को लगती है तो उसे यह समझना चाहिए कि इस की जिम्मेदार बेकार की धार्मिक मान्यताएं और कानूनी खामियां हैं. आज के युवा जिंदगी में वेबजह की कोई झंझट या मुसीबत मोल नहीं लेना चाहते. स भोपाल के 42 वर्षीय अविनाश (बदला नाम) शादी नहीं कर रहे. वे कोई भी जम्मेदारी उठाने से नहीं डर रहे, बल्कि उन का डर यह है कि अगर शादी के बाद पत्नी से पटरी नहीं बैठी तो जिंदगी नरक हो कर रह जाएगी और अगर तलाक की नौबत आई तो सालों फैसला नहीं होने वाला. यह अविनाश ने बहुत नजदीकी रिश्तेदारी में देखा और भुगता है. इस डर को फोबिया, वहम या दिमागी बीमारी कह कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि यह डर कानून का है जिस में तलाक के लिए कोई मियाद ही तय नहीं है जिसे किसी भी सूरत में एक साल से ज्यादा नहीं होना चाहिए, तभी लोग कानून का सहारा लेंगे नहीं तो घुटघुट कर मरना उन की प्राथमिकता होगी.

स भोपाल के एक पत्रकार योगेश तिवारी के तलाक का मुकदमा 15 साल चला था. अब वे अधेड़ हो चुके हैं और उन की जिंदगी में सिवा पत्रकारिता के कुछ नहीं बचा है. योगेश मरी सी आवाज में कहते हैं, ‘‘अगर यही तलाक सालदोसाल में हो गया होता तो आज जिंदगी कुछ और होती…’’ योगेश सरिता का आभार व्यक्त करते हैं क्योंकि उस ने उन की आवाज और पीड़ा दोनों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाए थे. इस से उन्हें हिम्मत और किसी के साथ होने का सहारा मिला था. लेकिन तुरंत इस के बाद वे चौंका देने वाले अंदाज में बताते हैं, ‘‘मेरी कहानी अभी खत्म नहीं हुई है. निचली अदालत से तलाक हुआ.

10 साल बाद ही सही, हाईकोर्ट ने इस पर अपनी मंजूरी की मोहर लगाई तो मुझे लगा कि अब मैं तनाव यानी मुकदमामुक्त जिंदगी जिऊंगा लेकिन पत्नी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई जहां उस ने भरणपोषण की मांग की.’’ योगेश व्यथित हो कर बताते हैं, ‘‘सुप्रीम कोर्ट का नोटिस मिलते ही मेरी सारी खुशी और बेफिक्री फिर तनाव में तबदील हो गए. मैं ने कोर्ट को बताया कि हमारा तलाक हो चुका है और मेरा उस महिला से कोई वास्ता नहीं. रही बात भरणपोषण की तो मुकदमे के दौरान वह खुद मान चुकी है कि वह सरकारी कर्मचारी है और उसे खासी सैलरी मिलती है, इसलिए उसे भरणपोषण नहीं चाहिए.’’ अपना पक्ष रख कर योगेश भोपाल वापस आए तो कुछ दिनों बाद उन का सिर फिर भन्ना उठा जब उन्हें परिवार परामर्श केंद्र बुला कर यह पूछा गया कि क्यों वे अपनी पत्नी यानी उस महिला के साथ नहीं रह सकते.

उन्हें समझ नहीं आया कि क्यों उन के साथ कानून ऐसे भद्दे मजाक कर रहा है, चैन से क्यों नहीं रहने दे रहा. तलाक न हुआ कोई संगीन गुनाह हो गया जो मैं ने किया ही नहीं. योगेश को अब भी खटका है कि कल को कोई एडीजे या तहसीलदार या पटवारी या फिर कोटवार ही कोई कागज ले कर न आ जाए कि चलिए, आप की तलाक वाली पेशी है. शायद ही कोई बता पाए कि योगेश जैसे लोगों का अपराध क्या है. क्या यह कि उन्होंने विवाह व्यवस्था में भरोसा किया था और तलाक हो जाने के बाद भी उन्हें क्यों परेशान किया जा रहा है. सोचा यह भी जाना चाहिए कि तलाक का कोई एक कानून क्यों नहीं है? घरेलू हिंसा, गुजाराभत्ता, नपुंसकता, दहेज और अफेयर के जैसे कानून तलाक के मूल मुकदमे को और उलझाते ही हैं. ये मुकदमे तलाक की डिक्री के बाद भी चल सकते हैं लेकिन कोई जज, वकील या कोई और यह सलाह नहीं देता. उलटे, वे अपनी खुदगर्जी के लिए गलत सलाह देते हैं.

इस का खमियाजा अकसर उस पत्नी को ही भुगतना पड़ता है जो अपनों और दूसरों के बहकावे में आ कर उलटेसीधे और झूठे आरोप पति पर लगा बैठती है. यही गलती पति भी करते हैं कि पत्नी क्रूर है, साथ नहीं रहती, चरित्रहीन है, मांबाप के साथ नहीं रहने देती वगैरहवगैरह. तो फिर हल क्या इन समस्याओं का इकलौता हल बहुत आसान है कि पतिपत्नी अदालत में सिर्फ तलाक की बात करें, इधरउधर की न हांकें. सरकार का काम है कानून बनाना. वे कैसे हैं और कैसे लोगों के लिए बजाय सहूलियत के परेशानी का सबब बन जाते हैं, यह तलाक के मुकदमे लड़ने वाले पतिपत्नी बेहतर बता सकते हैं. बकौल योगेश तिवारी, यह महाभारत काल के जुए की फड़ जैसा है.

एक बार आप फंस गए तो पांडवों की तरह सबकुछ लुटापिटा कर ही उठते हैं. समझदार लोग इन झंझटों में नहीं पड़ते. वे सीधे हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13(बी) का परस्पर सहमति वाला रास्ता चुनते हैं जिस के तहत उन्हें एक संयुक्त शपथपत्र अदालत में पेश करना होता है. आमतौर पर कोर्ट उन्हें 6 महीने का वक्त सोचने के लिए देती है (हालांकि यह भी ज्यादा है). अगर इस के बाद भी वे यह कहते हैं कि साथ रहना मुमकिन नहीं तो तलाक हो जाता है. इस धारा की सलाह न तो जज और वकील देते हैं और न ही अपने या गैर देते. कोई भी नहीं चाहता कि तलाक इतनी आसानी से हो जाए और जैसेतैसे हो जाए तो उस का जश्न भी नहीं मनाने देते क्योंकि इस से धर्म का अपमान होता है जो मुकदमे की परेशानियों के दौरान कहीं साथ नहीं था.

अनुच्छेद 142 होगा कारगर तलाक के मामलों में सब से बड़ी परेशानी यह भी होती है कोई एक पक्ष तलाक नहीं चाहता. इस पर अदालतें भी सोच में पड़ जाती हैं कि वे अब क्या करें. इस का हल निकलता दिखाई दे रहा है. 20 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस तरफ पहल की है कि पति या पत्नी में से कोई एक तलाक की शर्तें मानने को तैयार न हो और दोनों के दोबारा साथ रहने की भी गुंजाइश खत्म हो गई हो तो फिर क्या तलाक की अर्जी मंजूर की जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली सर्वव्यापी शक्तियों का उपयोग इस में कारगर हो सकता है.

तलाक के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट इस शक्ति का इस्तेमाल करने जा रहा है. जिस में 5 जजों की बैंच फैसला लेगी. 28 सितंबर के प्रयोग से पता चलेगा कि सब से बड़ी अदालत न्याय के प्रति कितनी गंभीर है. ऐसा यानी अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल तलाक के मुकदमों में होना चाहिए या नहीं, इस पर लंबी बहस कानूनविदों के बीच हो चुकी है लेकिन इस पर असमंजस भी है. बेहतर तो यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट तुरंत तलाक का प्रावधान लागू करे जिस से तलाक का मुकदमा लड़ रहे लाखों पतिपत्नी राहत की सांस लें जो अदालतों की चौखट पर एडि़यां रगड़ रहे हैं और बेहतर तो यह होगा कि ये अधिकार निचली अदालतों को दे दिए जाएं क्योंकि हर कोई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने में सक्षम नहीं होता.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...