आज लोगों का आपसी विश्वास टूट चुका है. पड़ोसी का पड़ोसी पर विश्वास नहीं रहा, जनता को राजनीति पर भरोसा नहीं. कानून समय पर मदद करेगा, विश्वास नहीं. धर्म व जाति के नाम पर हर रोज नई दरारें सामने आ रही हैं जो इस टूट की जिम्मेदार हैं. आमजन इस टूटन को भांप नहीं पा रहा है. भारत के बारे में सदियों से एक कहावत मशहूर है कि यहां ‘कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी.’ यानी भारत में हर एक कोस की दूरी पर पानी का स्वाद बदल जाता है और 4 कोस पर भाषा यानी वाणी बदल जाती है.

यह भिन्नता खानपान, पहनावे, भाषा, आस्था सब में दिखती है, लेकिन इन जबरदस्त भिन्नताओं के बावजूद भारत एकता के सूत्र में बंधा रहा है. यहां के लोगों में भारतीयता की भावना सर्वोपरि रही है. अनेकता में एकता हमेशा से भारत का मूल स्वभाव था लेकिन बीते एक दशक से विघटनकारी शक्तियां बड़ी तेजी से भारत को उस के मूल स्वभाव से दूर करने की कोशिश में लगी हैं. भारत टूट रहा है, दरक रहा है. पारिवारिक तौर पर, सामाजिक तौर पर और राजनीतिक तौर पर खंडखंड हो रहा है लेकिन सत्ताशीर्ष पर बैठे लोग इस को स्वीकार नहीं करना चाहते. ऐसा क्यों? क्योंकि इस टूटन से ही उन्हें राजनीतिक फायदा मिला है और उन का मानना है कि ध्रुवीकरण के जरिए ही वे सत्ताशीर्ष पर बने रह सकते हैं. सत्ता का मजा लूट रहे लोग भारत के जनमानस के बीच इस संदेश को हरगिज जाने नहीं देना चाहते कि भारत टूट रहा है. वे जनता को धर्म और आस्था के भ्रमजाल में फंसाए रखना चाहते हैं.

जाति और धर्म के आधार पर समाज को बांटना देश के लिए ठीक नहीं है लेकिन देश में होने वाला हर छोटे से बड़ा चुनाव जाति व धर्म के नाम पर लोगों को बांट कर ही लड़ा जाता है. चुनाव के समय गरीब के जीवन से जुड़े असल मुद्दे सिरे से नदारद होते हैं. राजनेता देशवासियों के बीच द्वेष की भावना को पुख्ता कर राजनीति में अपना उल्लू तो सीधा कर रहे हैं मगर देश को वे जर्जर कर रहे हैं. धार्मिक ध्रुवीकरण चुनाव में अन्य मुद्दों को पूरी तरह दरकिनार कर देता है. इस से पूरे देश का अहित हो रहा है. लोगों के दिमाग में जातीय और धर्म से जुड़ी दुर्भावनाएं डाल कर नेता अपनी कमियां छिपा लेते हैं. द्वेष से भरा मस्तिष्क इस के आगे कुछ सोच भी नहीं पाता और राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो जाते हैं,

लोकतंत्र कमजोर होने लगता है और समाज में धर्म व जाति के नाम पर वैमनस्यता बढ़ जाती है. विकास के मुद्दों से ध्यान हटा कर लोगों के अंदर धार्मिक और जातीय उन्माद पैदा किया जाना किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है. राजनीति के चक्कर में कुरसी पाने की चाहत में और समाज में जातिवादी व्यवस्था की जड़ों को सींचने का काम कर अपना उल्लू सीधा करने वाले राजनेताओं ने भारतीयता की जड़ों को खोखला कर दिया है. जोड़ने की बात क्यों उठी जब कुछ टूटता है तभी जोड़ने की बात उठती है. बात उठी है तो हमें भी नजर डालनी चाहिए कि टूट कहां और कितनी गहरी है. आज हमारा आपसी विश्वास टूट चुका है. हम अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहयोगियों पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं.

हमें डर लगने लगा है कि पता नहीं कब, कौन हमारी पीठ में छुरा भोंक दे. हिंदू अपने पड़ोसी मुसलमान पर विश्वास नहीं कर रहा है. मुसलमान अपने पड़ोसी हिंदू पर विश्वास नहीं कर रहा है. बनिया ब्राह्मण पर और ब्राह्मण क्षत्रिय पर विश्वास नहीं कर रहा है. पीढि़यों से जिन के घरों में आनाजाना रहा, रोटीबेटी का संबंध रहा, आज एकदूसरे को शक की नजर से देख रहे हैं. उन के बीच का विश्वास टूट गया है. कौन जिम्मेदार है इस विश्वास को तोड़ने का? जिस का मूल मंत्र है तोड़ना सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी जिस का मूल मंत्र ‘तोड़ना’ है उन्होंने मसजिदें तोड़ीं. बुलडोजर लगा कर लोगों के घरोंदुकानों को तोड़ा. जिस ने डर, दबाव और लालच दिखा कर विपक्षी पार्टियों के विधायकों को तोड़ा. जिस ने इस देश में भाईचारे को खत्म कर दिया. जिस ने लोगों के दिलों में शक के बीज बो दिए. जिस ने दिलों में नफरत की आग भर दी. जिस ने लिंचिंग का दर्द दे कर गरीब घरों को उजाड़ा.

जिस ने जीएसटी और नोटबंदी थोप कर व्यापारियों की कमर तोड़ दी, किसानों की उम्मीदें तोड़ दीं. आज स्थिति ऐसी हो गई है कि एकदूसरे से टूटे हुए लोग अपनेअपने संकीर्ण दायरों में सिमट कर ही खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. यही वजह है कि फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर अनेकानेक जातीय समूहों के ब्लौग्स या ग्रुप नजर आने लगे हैं. कुर्मी ग्रुप, सिसोदिया समाज, जायसवाल सभा, ब्राह्मण चेतना मंच, शिया ग्रुप, सुन्नी समुदाय, भूमिहार सभा जैसे छोटेछोटे समूहों में पूरा समाज विभक्त हो गया है. ये खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरी जातियों व धर्मों पर छींटाकशी करते हैं, इस से चारों तरफ भय और अराजकता पैदा हो रही है.

जांच एजेंसियां बनीं हथियार आज देश की तमाम जांच एजेंसियां अपने आका के इशारे पर विपक्षी पार्टियों को नेस्तनाबूद करने के मिशन पर काम कर रही हैं. इंडियन एक्सप्रैस के रिपोर्टर दीप्तिमान तिवारी ने तो सीबीआई और ईडी जैसी देश की सर्वोच्च जांच एजेंसियों का पूरा रिकौर्ड ही खंगाल डाला है. 20 और 21 सितंबर को उन के द्वारा इंडियन एक्सप्रैस में लिखी गई खबरों से यह साफ हो जाता है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसियां केंद्र सरकार के हाथ का खिलौना बन चुकी हैं. उन की खबर का सार यह है कि एक तरफ इलैक्टोरल बौंड के जरिए चुनावी फंड को विपक्षी पार्टियों से दूर रखो और दूसरी तरफ जांच एजेंसियां लगा कर विपक्ष को पूरी तरह तोड़ दो, समाप्त कर दो और निरंकुश शासन का रास्ता पुख्ता करो.

जनता को बगैर विपक्ष के रहने की आदत डाल दो. दीप्तिमान तिवारी की दो दिनों में प्रकाशित की गईं रिपोर्ट्स से यह साफ होता है कि कांग्रेस और अन्य दलों से विधायक व सांसद सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए अपनी पार्टी छोड़ कर भाजपा को जौइन कर रहे हैं क्योंकि उन पर दबाव है कि या तो वे भाजपा की शरण में आ जाएं या जेल जाएं. भ्रष्टाचार की जांच के नाम पर विपक्ष को तोड़ने की जबरदस्त कवायद चल रही है. जांच एजेंसियों का डर नहीं होता तो ये नेता कभी भाजपा में न जाते. दीप्तिमान की रिपोर्ट कहती है कि 2014 के बाद राजनीतिज्ञों के खिलाफ ईडी ने 4 गुना ज्यादा केस दर्ज किए हैं और उन में से 95 फीसदी केस विपक्षी नेताओं के खिलाफ दर्ज हुए हैं. ईडी, सीबीआई, एनआईए के नाम से पूरे देश में हड़कंप मचा हुआ है. साफ है, भाजपा टूट की राजनीति में महारत हासिल कर चुकी है. चारों तरफ टूट का परचम बुलंद है. किसी को डर दिखा कर तोड़ा जा रहा है तो किसी को लालच दे कर. विघटन हमेशा विनाशकारी आजादी मिलने के बाद भी देश का विभाजन हुआ था.

सड़कें लोगों के खून से लाल हो गई थीं. जिन्हें पाकिस्तान जाना था चले गए. जो भारत में रह गए उन्होंने फिर आपस में भाईचारा बना लिया. मिलजुल कर रहने लगे. रोटीबेटी का संबंध आपस में बन गया. थोड़ाबहुत मतभेद हर समाज में होता है मगर उस के परिणाम विनाशकारी नहीं होते हैं. लेकिन बीते दो दशकों से जिस तरह के मतभेद और मनभेद भारतीय जनता पार्टी द्वारा देश के लोगों के बीच पैदा किए गए हैं उन के परिणाम खतरनाक साबित होंगे. देश में पहले हिंदू और मुसलमान को ले कर बातें हुईं, फिर दलित और सवर्ण को ले कर माहौल बनाया गया. एक तरफ हिंदू सड़कों पर थे ही, फिर मुसलमान भी सड़कों पर उतर आए. उधर दक्षिण भारत में ईसाई भी अपने वजूद के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं. उत्तर भारत में हिंदुओं के वर्ण आपस में लड़ रहे हैं. कल तक जो मुसलमान और ईसाइयों के सामने भगवा झंडे के नीचे हिंदू एकता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे वे भगवा झंडे वाले आज आपस में ही लड़ रहे हैं कि कौन किस को दबा रहा है. इन सब के बीच इंसानी जीवन से जुड़े मूलभूत सवाल गायब हो चुके हैं. जातीय व्यवस्था में फंस चुका आदमी देश के बारे में नहीं सोच रहा. चारों तरफ धर्म और जाति का शोर है.

कोई मसजिद गिरा रहा है, कोई उस पर मंदिर बना रहा है, कोई बाबासाहेब अंबेडकर के नारे लगा रहा है तो कोई मनु की किताबें जला रहा है. क्या इस से होगा देश का विकास? अफसोस कि आज भारत में भारतीयता को ढूंढ़ना मुश्किल हो गया है. उदाहरण के तौर पर रूस और यूक्रेन के युद्ध को देखें. 70 साल तक यूक्रेन रूस का हिस्सा रहा लेकिन रूस यूक्रेनियों को मन से अपना बना नहीं पाया. आखिरकार, यूक्रेन रूस से अलग हो गया. अब उस का अलग होना भी रूस को रास नहीं आ रहा, लिहाजा उस ने वहां तोड़फोड़ मचा रखी है. गोलियों और बमों से यूक्रेन को तबाह कर दिया है. हजारों मासूमों की जानें ले लीं. घरों, दुकानों, दफ्तरों, सार्वजनिक स्थलों, सरकारी संस्थानों को नष्ट कर दिया. रूस दमनकारी है, विघटनकारी है, जो जोड़ने में नहीं तोड़ने में ही विश्वास रखता है.

हालांकि यूक्रेन डट कर उस का सामना कर रहा है और उस ने रूस को यह बात अच्छी तरह समझा भी दी है कि वह बहुमत में भले हो मगर कोई तोप नहीं है. हौसला दिखाना ही बड़ी बात भारत के प्रधानमंत्री भले रूस के राष्ट्रपति को यह नसीहत कर आए हों कि यह वक्त लड़ाई का नहीं है लेकिन उन्हें भारत के हालात पर भी गौर फरमाना चाहिए. भारत में अखबारों के पृष्ठ सिर्फ टूट, दमन और झगड़े की खबरों से भरे रहते हैं. भारत के पास जोड़ने की कोई खबर नहीं है. ऐसे हालात में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा और भी जरूरी हो जाती है. देश को तोड़ने वाले खुद कभी नहीं स्वीकारेंगे कि देश टूट रहा है. कांग्रेस इस हकीकत को कहने का साहस कर रही है और उस के नुकसान भी भुगत रही है. उस के तमाम शीर्ष नेताओं पर ईडी और सीबीआई छोड़ दी गई है. बावजूद इस के, राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा निकालने का हौसला कर बैठे हैं. राहुल गांधी भारत को फिर से जोड़ पाएंगे या नहीं, लोगों के एकदूसरे के प्रति टूटे हुए विश्वास के तारों को फिर एक कर पाएंगे या नहीं, यह तो समय के गर्भ में है लेकिन राहुल ने कोशिश की, हौसला दिखाया, यह बड़ी बात है.

राहुल गांधी के नेतृत्व में 7 सितंबर को शुरू हुई कन्या कुमारी से जम्मूकश्मीर तक 3,700 किलोमीटर की ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा अपने पहले चरण में पूरे उत्साह और जनसमर्थन के साथ सफलतापूर्वक तमिलनाडु से हो कर केरल से गुजरती हुई आगे बढ़ रही है. केरल के तिरुअनंतपुरम, कोच्चि और नीलांबुर होती हुई यह यात्रा कर्नाटक के मैसूर, बेल्लारी, रायचूर, तेलंगाना के विकाराबाद, महाराष्ट्र के नांदेड़, जलगांव जामोद, मध्य प्रदेश के इंदौर पहुंचेगी. यहां से राजस्थान के कोटा, दौसा, अलवर, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, दिल्ली, हरियाणा के अंबाला, पंजाब के पठानकोट होते हुए जम्मू होते हुए 150 दिनों बाद श्रीनगर पहुंच कर यात्रा का समापन होगा.

राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू करने से पहले श्रीपेरुमबुदूर में राजीव गांधी की समाधि पर जा कर श्रद्धांजलि अर्पित की और उस के बाद बेहद भावुक अपील करते हुए कहा, ‘‘नफरत और विभाजन की राजनीति के कारण मैं ने अपने पिता को खोया. इस के कारण अपने देश को नहीं खोऊंगा. प्यार से नफरत हारेगी. एकसाथ मिल कर हम इस पर जीत हासिल करेंगे.’’ कांग्रेस ने राहुल गांधी समेत 118 ऐसे नेताओं को चुना है जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक पूरी यात्रा में राहुल के साथ हैं. राज्यों के प्रतिनिधि बीचबीच में उन से जुड़ रहे हैं, मगर सब से ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाला दृश्य वह अभूतपूर्व जनसैलाब है जिस में शहरोंगांवोंकसबों के हजारों बूढ़े, बच्चे, जवान, किशोर, औरतें, स्कूली बच्चियां राहुल के पीछे चल रही हैं. भीड़ में मौजूद हर आदमी राहुल गांधी से बात करने के लिए, अपने दुखदर्द बांटने के लिए बेताब है.

इस यात्रा को सिर्फ कांग्रेसियों और जनता का ही नहीं, बल्कि गैरकांग्रेसी राजनीतिक दलों और अनेक गैरसरकारी संगठनों का भी भरपूर समर्थन मिल रहा है. मचा हुआ है हड़कंप राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से जिस तरह आम जनमानस जुड़ गया है, उस ने सांप्रदायिक ताकतों के होश उड़ा दिए हैं. शुरू में यात्रा को ले कर अनर्गल बयान देने वालों, छींटाकशी करने वालों, ‘भारत जोड़ो नहीं बल्कि परिवार जोड़ो’ कह कर उपहास उडने वालों के अब मुंह से बोल नहीं फूट रहे हैं. इस में कोई शक नहीं कि कांग्रेस को मृतप्राय समझने वाले लोग राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा से भयभीत हो उठे हैं. सांप्रदायिकता, अराजकता, जातिवाद, पूंजीवादी लूट, बेरोजगारी, महंगाई, ध्वस्त शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के मुद्दे अब सामने आने लगे हैं.

चर्चा आम लोगों से इस यात्रा के दौरान कर रहे हैं. नोटबंदी से चौपट हुई अर्थव्यवस्था और सरकारी जांच एजेंसियों पर कब्जा कर उन के दुरुपयोग के बारे में लोगों को एहसास होने लगा है. संवैधानिक ढांचे को कमजोर करने वाले सवाल भी उठ रहे हैं. ऐसे में भाजपा के पास काट नहीं है. कांग्रेस से जुड़ चुके कन्हैया कुमार ने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा को ले कर दावा किया कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा वर्ष 1990 में की गई ‘रथ यात्रा’ सत्ता के लिए थी मसजिद तोड़ने के लिए थी, हिंदू मुसलिम बचाखुचा सौहार्द तोड़ने को थी. जनता से जुड़ाव की यात्रा इस यात्रा में दर्शक उत्साह से लबरेज दिखते हैं. यात्रा को ले कर भाजपाई दुष्प्रचार कर रहे हैं, उस के विपरीत पूरी यात्रा में कोई फाइवस्टार कल्चर नहीं दिख रहा है.

धूलभरे रास्तों पर राहुल के साथ तमाम कांग्रेसी नेता लगातार आगे बढ़ रहे हैं. रातें वे ट्रकों पर बनाए गए कंटेनरों में गुजार रहे हैं जिन के साथ मोबाइल टौयलेट्स बने हैं. रेलवे के स्लीपर डब्बों जैसे बने इन 60 कंटेनरों में करीब 230 लोग रह सकते हैं. इन्हीं में से एक कंटेनर राहुल गांधी का भी है. यात्राएं व्यर्थ नहीं जातीं सत्ता-शासन में यात्राओं का बड़ा महत्त्व है. राजनीतिक लक्ष्य साधने के लिए जनमानस से जुड़ना बहुत जरूरी है. आजादी से पहले और आजादी के बाद, यात्राओं की अनेकानेक कहानियों से भारत का इतिहास भरा पड़ा है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहे गोपाल कृष्ण गोखले स्वतंत्रता सेनानी होने के साथसाथ एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ थे. महात्मा गांधी उन्हें अपना गुरु मानते थे. लंदन से बैरिस्टर की डिग्री ले कर आए मोहनदास करमचंद गांधी तब अंगरेजों के समान कोटपतलून पहनते थे. यह वेशभूषा गरीब देश की गरीब और गुलाम जनता की भावनाओं और विचारों से मेल नहीं खाती थी और उन के नजदीक पहुंचने में सब से बड़ी बाधक थी.

तब गोपाल कृष्ण गोखले ने गांधी को देश की आजादी के लिए लड़ने की प्रेरणा दी, साथ ही उन्हें धिक्कारा भी कि ‘अपनी मांबहनों पर हो रहे अत्याचार को चुप्पी साध कर देख रहे हो. इतना तो पशु भी नहीं सहते. यदि भारत को समझना चाहते हो तो तुम्हें संपूर्ण भारत को अपनी खुली आंखों से देखना पड़ेगा.’ द्य बस, फिर क्या था, गांधीजी ने विदेशी वस्त्र त्याग कर धोती बांध ली और निकल पड़े भारत की असली सूरत देखने. अधनंगे फकीर ने गांवगांव घूम कर भारतीयों की गरीबी और दुर्दशा को देखासमझा और राष्ट्र को अंगरेजों के चंगुल से मुक्त कराने का बीड़ा उठा लिया. गांधीजी ने पूरे देश में अनेकानेक यात्राएं कीं. उन की यात्राओं से अंगरेज थरथर कांपने लगे. कभी उन को नजरबंद किया गया तो कभी जेल में डाल दिया गया. लेकिन गांधी की यात्राएं नहीं रुकीं. उन की 340 किलोमीटर की दांडी यात्रा ने तो अंगरेज सरकार की नींव हिला कर रख दी. यह यात्रा अहमदाबाद साबरमती आश्रम से समुद्रतटीय गांव दांडी तक हुई और 6 अप्रैल, 1930 को समुद्रतट पर नमक हाथ में ले कर गांधीजी ने अंगरेजों का नमक कानून तोड़ा. द्य युवा तुर्क के नाम से मशहूर जनता दल के नेता चंद्रशेखर ने कन्याकुमारी से ले कर दिल्ली तक 4,000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की.

उन की यात्रा को ‘भारत यात्रा’ के नाम से जाना जाता है. उन की यात्रा 6 जनवरी, 1983 को कन्याकुमारी से शुरू हुई और 5 जून, 1984 को दिल्ली के राजघाट पर खत्म हुई थी. इस दौरान उन्हें देश की तमाम समस्याओं को नजदीक से जानने का मौका मिला. इस यात्रा में उन्होंने सब के लिए पीने का स्वच्छ पानी, सब को शिक्षा, कुपोषण से लड़ाई, स्वास्थ्य का अधिकार जैसे मुद्दों को जोरशोर से उठाया. हालांकि इस यात्रा से चंद्रशेखर को तात्कालिक कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन उन की पहुंच पूरे देश में हो गई. इस यात्रा से दक्षिण भारत में जनता दल का विस्तार हुआ. कर्नाटक में आज जेडी (एस) की मजबूत स्थिति की एक वजह चंद्रशेखर की भारत यात्रा है. इस के बाद चंद्रशेखर साल 1990 में देश के 8वें प्रधानमंत्री बने. द्य सुनील दत्त ने शांति और सामाजिक सद्भाव को ले कर लंबी पदयात्रा की. इन सभी यात्राओं में उन की बेटी प्रिया दत्त उन के साथ होती थीं.

1987 में उन्होंने पंजाब में उग्रवाद की समस्या के समाधान के लिए बंबई से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर तक 2,000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी. द्य जब आंध्र प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था, उस वक्त 2003 में कांग्रेस नेता वाई एस राजशेखर रेड्डी ने पदयात्रा शुरू की थी. इस यात्रा के दौरान उन्होंने 60 दिनों के अंदर 1,500 किलोमीटर की यात्रा की. इस यात्रा में सूखाग्रस्त इलाकों पर उन का फोकस रहा. 11 जिलों की उन की यात्रा का असर यह हुआ कि राज्य में कांग्रेस ने चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगुदेशम पार्टी को सत्ता से उखाड़ फेंका और मुख्यमंत्री के रूप में वाई एस राजशेखर रेड्डी की ताजपोशी हुई. राजशेखर रेड्डी की तरह सत्ता में आने का रास्ता चंद्रबाबू नायडू ने भी चुना. उन्होंने 2013 में 1,700 किलोमीटर लंबी पदयात्रा की और उस का नतीजा यह हुआ कि उन की सत्ता में वापसी हुई.

कांग्रेस से अलग हो कर जब जगन मोहन रेड्डी ने वाईएसआर कांग्रेस का गठन किया तो सत्ता में आने के लिए उन्होंने अपने पिता के रास्ते को ही अपनाया. इस के तहत नवंबर 2017 में जगन मोहन रेड्डी ने 341 दिनों की यात्रा शुरू की. इस दौरान उन्होंने 3,648 किलोमीटर की पदयात्रा की. रेड्डी 2,500 से ज्यादा गांवों में गए और उस का फायदा उन्हें चुनावों में मिला. उन्होंने चुनाव में एकतरफा जीत हासिल की. द्य कांग्रेस नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने साल 2017 में नर्मदा यात्रा की थी. 6 महीने तक चली यात्रा में दिग्विजय सिंह ने 110 विधानसभाओं का दौरा किया था. इस यात्रा का ही असर था कि कांग्रेस की 2018 में एक दशक बाद सत्ता में वापसी हुई थी और उसे 114 सीटें मिलीं. द्य 1990 में सत्ता राम और मंदिर के लिए भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाली तो उस का बहुत बड़ा राजनीतिक लाभ भाजपा को मिला.

25 सितंबर, 1990 को गुजरात के सोमनाथ से रथयात्रा शुरू हुई और जब वह अपने अंतिम पड़ाव पर बिहार पहुंची तो बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर समस्तीपुर में यात्रा रोक कर आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया. इस यात्रा के दौरान देश में कई जगहों पर सांप्रदायिक दंगे हुए. लेकिन रथयात्रा और आडवाणी की गिरफ्तारी का फायदा यह हुआ कि जहां यात्रा से पूर्व 1985 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात्र 2 सीटें मिली थीं, वहीं यात्रा के बाद 1991 में हुए चुनाव में भाजपा ने 120 सीटें हासिल कर लीं. कभी फूट डालो और राज करो की नीति अपना कर अंगरेजों ने देश पर राज किया था, देश को बांटने वाले तत्त्व आज उसी नीति का अनुसरण कर सत्ता पर काबिज रहना चाहते हैं. ‘कानून का राज’ बस एक मुहावरा बन कर रह गया है और पूरा देश जातियों के राज पर विश्वास करने के लिए विवश किया जा रहा है. जातियां वोटबैंक में तबदील हो चुकी हैं. जाट, गुर्जर, कायस्थ, लोधी, कुर्मी, मुसलमान, बनिया आदि में पूरे समाज को बांट कर बड़ेबड़े वोटबैंक खड़े किए जा चुके हैं जिन के जरिए राजनीतिक हित साधे जा रहे हैं. द्वेष की राजनीति की ओछी सोच पर यदि अब भी लगाम न कसी गई तो जातिवादी संघर्ष पैदा होगा और देश में गृहयुद्ध जैसी स्थितियां पैदा हो जाएंगी.

भाजपा आज भी उसी खांटी हिंदूवादी राजनीति को ही अपना जनाधार मान कर आगे बढ़ रही है और वह यह बात भी बखूबी समझ रही है कि कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा या राहुल गांधी को रोकने का अर्थ है कांग्रेस को फायदा पहुंचाना. इसलिए खिसियायी बिल्ली खंभा नोचे वाली हालत में भाजपा के कुछ नेता तो थोड़ीबहुत चूंचूं कर रहे हैं लेकिन खुल कर बोलने या ऐक्शन लेने का हौसला नहीं दिखा पा रहे हैं. बुलंद हौसले सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर भले भाजपा ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे लगाए लेकिन जो भीड़ ‘भारत जोड़ो’ अभियान में राहुल के पीछे आ जुटी थी, वह न तो टीवी चैनलों की भड़काऊ डिबेट देखतीसुनती है, न सत्ता के हाथों बिके हुए अखबार पढ़ती है और न ही सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर ऐक्टिव है. मगर यह भीड़ चुनाव के वक्त अपने सारे कामधंधे छोड़ कर सरकार चुनने के लिए पोलिंग बूथ पर जरूर जुटती है जबकि सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहने वाले, नफरत और विभाजन का जहर बांटने वाले अधिकांश लोग चुनाव के रोज पोलिंग बूथ तक नहीं पहुंचते हैं.

भाजपा में पसरी घबराहट ‘भारत जोड़ो’ यात्रा जब शुरू हुई तो केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने सब से पहले राहुल पर अटैक किया. अपनी अल्प जानकारी के चलते उन्होंने बेंगलुरु की एक सभा में बड़े भद्दे लहजे और बेहद भद्दी भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा, ‘अरे, अगर कन्याकुमारी से चले तो कम से कम इतनी निर्लज्जता तो न दिखाते, स्वामी विवेकानंदजी को प्रणाम कर के तो बताते लेकिन वह भी राहुल गांधी को स्वीकार नहीं क्योंकि स्वामी विवेकानंद राष्ट्र संत हैं, गांधी खानदान के सदस्य नहीं.’ जबकि कांग्रेस के औफिशियल सोशल मीडिया हैंडल पर अपलोड किए गए वीडियोज और न्यूज रिपोर्ट्स से साफ हो गया कि राहुल गांधी ने यात्रा शुरू करने से पहले 7 सितंबर को कन्याकुमारी में स्थित विवेकानंद स्मारक शिला में श्रद्धांजलि अर्पित की थी. इस के बाद यात्रा को ‘फाइवस्टार प्रबंधन’ वाली यात्रा कह कर दुष्प्रचार करने की कोशिश की गई. दुष्प्रचार का लैवल इतना गिर गया कि देश के गृहमंत्री एक सभा में राहुल द्वारा यात्रा के दौरान पहनी गई टीशर्ट की कीमत बताने लगे.

यात्रा को सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश की गई जब राहुल गांधी यात्रा के दौरान पादरी जौर्ज पोन्नैया से मिले. एक ने तो यहां तक कह दिया कि राहुल को यह यात्रा पाकिस्तान में करनी चाहिए. भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहते राहुल गांधी पर तंज कसा कि, ‘जो व्यक्ति अपनी पार्टी को नहीं जोड़ सका, जो अकसर विदेश चला जाता है और जिसे अध्यक्ष बनाए जाने के लिए कांग्रेस में एक ‘दरबारी गायन’ होता है, वह भारत जोड़ने के मिशन पर है.’ इस राष्ट्रव्यापी कांग्रेसी अभियान से भाजपा में घबराहट का होना स्वाभाविक है क्योंकि उस की सोच अब तक यही है कि उस ने कांग्रेस से भारत को मुक्त कर दिया है और वह अब ‘निरंकुश शासन’ करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है. मगर कांग्रेस के यात्रा अभियान से उसे अपना सपना टूटता नजर आ रहा है और इसी बौखलाहट में उस के नेता अनापशनाप बयान दे रहे हैं ताकि आमजन भ्रमित हो.

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