कहते हैं राजनीति में कब कौन किस का दोस्त और दुश्मन बन जाए कहा नहीं जा सकता. यहां साधे जाते हैं तो सिर्फ हित. इन्हीं हितों की उठापटक में राजनीतिक रिश्ते टूटतेबनते हैं. 9 अगस्त को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी के साथ एनडीए गठबंधन तोड़ा और अपने पद से इस्तीफा दिया और 10 अगस्त को विपक्षी पार्टियों के साथ महागठबंधन सरकार के मुखिया के तौर पर फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उन के साथ राजद के नेता तेजस्वी यादव ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
शपथ लेने के बाद अपने ही अंदाज में नीतीश कुमार ने राजभवन में आयोजित एक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा. उन्होंने कहा, ‘‘वे 2014 में जीत गए, लेकिन अब 2024 को ले कर उन्हें चिंतित होना चाहिए.’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘जो 2014 में सत्ता में आए, क्या वे 2024 में भी जीतेंगे? मैं 2024 में सभी (विपक्षी दलों) को एकजुट देखना चाहूंगा. मैं ऐसे किसी पद (प्रधानमंत्री) की दौड़ में नहीं हूं.’’
नीतीश के उक्त आयोजन में दिए इस बयान से साफ है वे इस बार पूरी तैयारी के साथ आए हैं ताकि राज्य व देश में भाजपा की बढ़ती ताकत को रोका जा सके. इस बात से यह भी तय हो गया कि वे 2024 में लोकसभा में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए बड़ी योजना में शामिल हैं और उन के रडार में आने वाले दिनों में सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होने वाले हैं.
सीटों का गणित
नीतीश कुमार ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और उस के सहयोगी दलों के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए 122 चाहिए. चुनाव में भाजपा को 74 सीटें मिलीं, राजद को 75 और जेडीयू को 43.
हाल ही में राजद की सीटों में बढ़ोतरी हुई थी, जिस में एआईएमआईएम से आए 4 विधायक समेत एक विधायक बोहचा से था जिस के बाद आरजेडी की सीटों की संख्या बढ़ कर 80 हो गई थी. ऐसे ही भाजपा की भी सीटों में बढ़ोतरी हुई, जिस में वीआईपी से 3 विधायक जुड़ कर कुल 77 हुए. वहीं जेडीयू में भी एक बीएसपी और एक एलजेपी का विधायक शामिल होने से उस की संख्या 45 पहुंची.
ऐसे में पक्ष और विपक्ष के बीच रस्साकशी चल रही थी. बिहार सरकार कब गिर जाए और नीतीश कब पाला बदल लें, इस तरह के कयास राजनीतिक जानकार काफी पहले से ही लगा रहे थे, क्योंकि नीतीश भले भाजपा के साथ सरकार बना लें पर दाल गलने वाली बात कम ही रहती है. ऐसे में नीतीश बिना आरजेडी के समर्थन के सरकार बना नहीं सकते थे.
पलटा-पलटी
गौरतलब है कि सियासत हर समय अपने रंगढंग बदलती रहती है. नीतीश कुमार इसी रंगढंग के मास्टर भी कहे जा सकते हैं, इस में कोई संदेह नहीं. नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपने सियासी दोस्त बदले हैं. उन्होंने फिर एनडीए का साथ छोड़ दिया है और फिर महागठबंधन के साथ आ गए हैं. साल 2013 में भी उन्होंने एनडीए का साथ छोड़ा था और आरजेडी के साथ महागठबंधन में आ गए थे.
उस दौरान भी उन की तरफ से तर्क दिया गया कि वे सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर उन्हें पसंद नहीं हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव में आरजेडी और जेडीयू अलगअलग लड़ीं पर कमाल कोई नहीं कर पाई. भाजपा ने सब से अधिक 22 सीटों पर जीत हासिल की.
पर 2 वर्षों बाद 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी और जेडीयू के महागठबंधन ने कमाल कर दिया. इस जोड़ी के आगे मोदी की पौपुलैरिटी फीकी पड़ गई और सत्ता की आस लगाए भाजपा को 2017 तक नीतीश के पलटने तक इंतजार करना पड़ा. उस दौरान नीतीश पर भ्रष्टाचारी का साथ देने के आरोप लगे और उन्होंने महागठबंधन का साथ छोड़ भाजपा व सहयोगी पार्टियों के साथ फिर से सरकार बना ली.
2020 में नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ मिल कर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया पर उस चुनाव में उन्हें कम सीटें मिलीं, बावजूद इस के उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. तब नीतीश कुमार के बारे में कटाक्ष कसा गया था कि जब प्रदेश में सांप्रदायिकता बढ़ती है तब वे आरजेडी के साथ चले जाते हैं, जब भ्रष्टाचार बढ़ता है तब वे भाजपा के साथ चले जाते हैं.
अब 2022 में फिर से नीतीश कुमार ने अपने पुराने संघर्ष के सहयोगी और दोस्त लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी से गठबंधन कर लिया है.
टकराव पहले से
हालांकि बिहार की सियासत में भाजपा और जेडीयू के बीच तल्खी का सिलसिला काफी पहले से शुरू हो गया था. यह सिलसिला 2019 के आम चुनाव के बाद से ही शुरू हो गया जब जेडीयू को केंद्रीय मंत्रिमंडल में मांग के अनुरूप 3 सदस्यों के लिए जगह नहीं मिली. इस के बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में स्वयं को नरेंद्र मोदी का हनुमान कहने वाले चिराग पासवान की भूमिका ने जख्म को गहरा करने में अहम भूमिका निभाई थी. यही कारण भी था कि जेडीयू भाजपा के फेर में फंस कर अपने कद और सीटों को काफी गंवा चुकी थी.
इस के बाद बोचहां विधानसभा क्षेत्र उपचुनाव के दौरान जिस तरह, दबी जबान से ही सही, केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय को मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चा तेज हुई, वह जेडीयू को नागवार गुजरनी ही थी और अंत में आरसीपी सिंह प्रकरण से जेडीयू को फाइनल निर्णय लेना ही था.
सहयोगियों की दमघोंटू भाजपा
यह सहयोगी दलों के लिए इसलिए भी जरूरी हो गया है कि भाजपा अपने साथियों के साथ परिपक्व लोकतंत्र को पनपने नहीं देती है. वह समुद्र की बड़ी मछली की तरह अपने से छोटी मछलियों को लगातार निगलती रहती है और अपनी भूख शांत करती है. जब से भाजपा अस्तित्व में आई है उस ने अपने इर्दगिर्द अपने सहयोगियों के लिए दमघोंटू वातावरण तैयार किया है. ऐसा वातावरण जहां भाजपा तो सहयोगियों के कंधों पर चढ़ कर अपना विस्तार कर रही है पर उस के सहयोगी या तो कमजोर अवस्था में पहुंचा दिए गए या मरणासन्न अवस्था में.
बीते 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के बैनर तले 21 पार्टियां चुनाव मैदान में थीं. उन में से लगभग आधा दर्जन उस से दूर हो चुकी हैं. सब से मजबूत और बड़े माने जाने वाले दलों का बाहर जाना अहम है. इन में हालिया जदयू, किसान आंदोलन के समय शिरोमणि अकाली दल और 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना शामिल हैं.
यह हकीकत भी है कि क्षेत्रीय दलों को भाजपा का वर्चस्व भी नहीं भा रहा है, क्योंकि भाजपा उन के वर्चस्व वाले राज्यों में उन्हीं के कंधों पर चढ़ कर अपनी ताकत बढ़ा रही है. अधिकतर जगहों में भाजपा ने अपने सहयोगी घटकों के साथ तोड़फोड़ मचाई है. भाजपा की एक सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी भी विभाजित हो चुकी है जिस का एक घटक अभी एनडीए में है. ऐसे ही शिवसेना में भी तोड़फोड़ मची जिस का एक कथित घटक भाजपा के साथ सरकार में है. अन्नाद्रमुक भी बंट चुकी है. हालांकि वह भी एनडीए के साथ मानी जाती रही है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद असम का बोडो पीपुल्स फ्रंट, पश्चिम बंगाल का गोरखा जनमुक्ति मोरचा, तमिलनाडु की डीएमके और गोवा की गोवा फौरवर्ड पार्टी उस से दूर हुई हैं.
विपक्ष के लिए मौका
प्रसिद्ध पुस्तक ‘गोपालगंज टू रायसीना रोड’ के राइटर नलिन शर्मा, जिन्होंने अपनी किताब में जिक्र ही नीतीश कुमार और लालू यादव की राजनीतिक सफर को ले कर किया, कहते हैं, ‘‘लालू ने कभी बीजेपी के साथ सम झौता नहीं किया, लेकिन नीतीश कुमार को भी बीजेपी की सांप्रदायिक पिच कभी सही नहीं लगी.’’
यह देखा भी जा सकता है, पिछली सरकार में भले भाजपा बड़ी पार्टी रही हो और संख्या बल के हिसाब से उस का दबदबा रहा हो पर नीतीश ने अपने तौरतरीकों से ही सरकार चलाई. भाजपा के खिलाफ कोई बयान देने से वे चूके नहीं.
विपक्ष के लिए बिहार में सरकार का पलटना, खासकर नीतीश कुमार जैसी बेदाग छवि के नेता का भाजपा के खिलाफ खड़े हो कर पाला बदल लेना किसी बड़ी कामयाबी से कम नहीं. इस से सब से बड़ी बात यह है कि विपक्ष को मनोवैज्ञानिक लाभ मिला है.
बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 19 सीटें जीतीं. आरजेडी से मोलभाव कर कांग्रेस ने ज्यादा सीटें ले लीं. जिस का खमियाजा आरजेडी को उठाना पड़ा पर बावजूद इस के, पिछले
2 बार से विपक्ष में बैठते हुए राजद नेता तेजस्वी यादव की पौपुलैरिटी बढ़ी ही है. उन की स्वीकार्यता बिहार राजनीति में मुख्य नेताओं में आती है. तेजस्वी को बिहार में मं झे हुए नेता के तौर पर पहचान मिली है. उन की छवि मजबूत नेता की बनी है.
ऐसे में इस घटनाक्रम का फायदा लंबे अंतराल के बाद राजद को मिलने वाला है और ऐसा कर वे भाजपा को बिहार की राजनीति से दूर भी कर सकेंगे. हालांकि इस घटनाक्रम में कांग्रेस को भी लाभ हुआ है, एक, भाजपा के हाथ से एक राज्य निकला है, दूसरा, सत्ता के नजदीक होना उस के राजनीतिक अस्तित्व के संकट को बचाने का उपाय बनेगा.
बिहार में बदलाव के माने
कोई शक नहीं कि नीतीश के इस कदम से भाजपा को करारा झटका लगा है और यदि यह गठबंधन बरकरार रहता है तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में इस का राष्ट्रीय पैमाने पर असर पड़ेगा.
बिहार के लिए अकसर माना जाता है कि यह वह भूमि है जो पूरे देश को राजनीतिक सीख देती है, यहीं से मजबूत से मजबूत सत्ता से टकराने का जज्बा पैदा होता है जो पूरे देश में फैलता है. 70 के बाद राष्ट्रीय राजनीति में हलचल यहीं से शुरू हुई. इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन के खिलाफ बिहार से ही जयप्रकाश नारायण ने शक्तिशाली जनआंदोलन शुरू किया था. उसे जेपी आंदोलन नाम दिया गया. सैकड़ों लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, चंद्रशेखर जैसे युवा और छात्रनेता जेपी आंदोलन में शामिल हो गए थे. करीबकरीब सभी नेता आपातकाल के दौरान जेल में रहे. ये सभी नेता लोहिया, जेपी, कर्पूरी ठाकुर और जेपी की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे. यह वह समय भी था जब भारत में पिछड़ी जाति की राजनीति ने सिर उठाया था.
2024 में अगर विपक्ष एकजुट होता है तो कमंडल की राजनीति और मंडल की ताकतों में फिर से सुगबुगाहट देखने को मिल सकती है. इस से राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों में नई उम्मीद जगेगी.
भाजपा हमेशा चुनाव जीतने के कारणों में सब से बड़ा तर्क देती है कि मोदी नहीं तो कौन. वह ऐसा कर लोगों को भ्रमित करती है कि मोदी के सामने कोई बड़ा नेता नहीं है. सवाल बड़े नेता का योगदान कभी भारतीय राजनीति में नहीं रहा.
सवाल है एक नेतावादी राजनीति के खिलाफ विपक्ष कैसे खुद को समेटता है. बंटा हुआ विपक्ष और कमजोर होती कांग्रेस, ये दोनों बिंदु भाजपा के विस्तार के कारक हैं. जहां विपक्ष जीती भी या भाजपा को टक्कर देने की पोजीशन में आई वहां भाजपा ने ईडी, सीबीआई और अन्य केंद्रीय एजेंसियों का डर दिखा कर तथा धनबल से सरकार बना ली.
बिहार में बदला यह घटनाक्रम देश की सभी विपक्षी पार्टियों के लिए राष्ट्रीय संदेश की तरह है. साथ ही, यह भाजपा के लिए भी सीख है कि वह अपने सहयोगियों के साथ अब भी ठीक से संतुलन नहीं बनाएगी तो वह अकेली अलगथलग पड़ जाएगी, जो उस के लिए ठीक नहीं होगा.
आज जब लोकतंत्र और संविधान दोनों गंभीर खतरे में हैं और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माहौल है, ऐसे में बिहार की भूमि फिर से वह जमीन तैयार कर रही है जहां से बदलाव की फसल पैदा होती है. इस से विपक्ष के मनोबल को भी बढ़ावा मिला है. बिहार फिर देश के सामने एक एजेंडा तय कर रहा है और विपक्ष को मौका दे रहा है कि वह फिर से अपनी राजनीतिक शक्तियों को एकजुट करे.