किसी भी देश की प्रगति में वहां की टैक्नोलौजी का बड़ा महत्त्व होता है. टैक्नोलौजी के लिए रिसर्च की जरूरत होती है. भारत मे साइंस और टैक्नोलौजी की फील्ड में सब से कम रिसर्च हो रही है. नतीजतन हमारे देश में जरूरत की हर चीज विदेशों से आई. जरूरत है कि रिसर्च को बढ़ावा दिया जाए और इस को जनता के लिए उपयोगी बनाया जाए.

जब भी आविष्कार की बात होती है, भारत के लोग बेहद फख्र के साथ आर्यभट्ट का नाम ले कर कहते हैं कि जीरोष का आविष्कार हमारे देश की खोज थी. हवा में उड़ने वाले पुष्पक विमान को रामायणकाल का बताया जाता है. अगर आधुनिक युग की टैक्नोलौजी को देखें तो एक भी बड़ा आविष्कार भारत में नहीं हुआ, चाहे वह हवाई जहाज हो, सड़क पर चलने वाली गाडि़यां हों या बातचीत करने के साधन हों. सब के सब विदेशों से आए और यहां की तरक्की का आधार बने.

रिसर्च की दुनिया का सब से बड़ा पैमाना नोबेल पुरस्कार को माना जाता है. भारत को रिसर्च के क्षेत्र में केवल 3 पुरस्कार ही मिले हैं. वर्ष 1930 में सी वेकेंटरमन को भौतिक विज्ञान, 1983 में एस चंद्रशेखर को भी भौतिक विज्ञान और 2009 में वी रामकृष्णनन को रसायन विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिले.

अगर सामान्य रूप से रिसर्च को सम?ाने की कोशिश करें तो एक दूसरा उदाहरण पेश है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मलिहाबाद का दशहरी आम पूरी दुनिया में मशहूर है. मलिहाबाद को इस की वजह से ही ‘फल क्षेत्र’ घोषित किया गया. यहां कृषि अनुसंधान केंद्र भी खोला गया जिस का उद्देश्य था कि वह बागबानों और ग्राहकों की पसंद के दशहरी आम की कोई नई किस्म तैयार करे जिस की आयु 10 दिन से अधिक हो. दशहरी आम की शैल्फ लाइफ 10 दिन होने के कारण इस को दशहरी कहा जाता है.

जलवायु परिर्वतन को देखते हुए इस की शैल्फ लाइफ बढ़ाने की बात उठी. कृषि अनुसंधान केंद्र ने दशहरी आम की कोई ऐसी किस्म नहीं तैयार की जो 10 दिनों से अधिक चल सके. इस के कारण दशहरी आम की डिमांड होने के बाद भी इसे विदेशों में नहीं भेजा जा सकता. जो आम विदेशों में भेजे भी जाते हैं वे आसपास के देशों तक जाते हैं और कम तादाद में भी भेजे जाते है. हवाईजहाज से भेजे जाने के कारण महंगा खर्च आता है. अगर दशहरी आम की शैल्फ लाइफ बढ़ जाए तो इस परेशानी से बचा जा सकता है. बागबान अधिक मुनाफा कमा सकते हैं. यह एक छोटा उदाहरण है. ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं जहां रिसर्च न होने के कारण 75 सालों में भी देश विकसित देशों की बराबरी में खड़ा नहीं हो सका है.

रिसर्च के क्षेत्र में भारत की हालत

भारत साइंटिफिक रिसर्च पेपर पब्लिश करने के मामले में अग्रणी देशों की सूची में है. आंकड़े बताते हैं कि 2018 में चीन पहले और अमेरिका दूसरे नंबर पर रहे और भारत तीसरे नंबर पर. एक साल में छपने वाले साइंटिफिक पेपर्स की संख्या की बात करें तो भारत इस मामले में काफी पीछे है. अमेरिका में 2018 में 4,22,808 जबकि चीन में सब से ज्यादा 5,28,263 और भारत में 1,35,338 वैज्ञानिक पेपर्स प्रकाशित किए गए.

आंकड़े बताते हैं कि जिन देशों में साइंटिफिक पेपर्स काफी कम छपते हैं, वहां नोबेल विजेता ज्यादा हैं. इस सूची में भी अमेरिका नंबर एक पर है. वहां 375 नोबेल विजेता हैं. ब्रिटेन में 131, जरमनी में 108, रूस में 31 नोबेल पुरस्कार विजेता हैं. चीन में 8 नोबेल पुरस्कार विजेता हैं जिन में से 5 को वैज्ञानिक क्षेत्र में सम्मानित किया गया था.

भारत की हालत यहां बेहद नाजुक है. भारत में अब तक केवल 11 नोबेल विजेता हुए हैं. इन में से 2 बार पुरस्कार विदेशियों को दिया गया था जबकि बचे 9 में 4 पुरस्कार भारत ने वैज्ञानिकी क्षेत्र में जीते हैं. पश्चिमी देश वैज्ञानिकी क्षेत्र, नवीनीकरण और प्रगति में काफी आगे हैं. इस का नतीजा है कि अमेरिका और यूरोप में दुनिया के सब से अधिक वैज्ञानिक और तकनीकी विश्वविद्यालय हैं. भारत में भले ही बड़ी संख्या में साइंटिफिक जनरल छपते हों लेकिन वैज्ञानिक रिसर्च यहां उतनी नहीं होती.

यूनेस्को की 2015 की विज्ञान रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 से भारत की अनुसंधान तीव्रता में गिरावट आ रही है. इस की वजह वैज्ञानिक शोधों को मिल रहे कम फंड को माना जाता है. भारत में वैज्ञानिक शोधों के लिए कम फंडिंग काफी पुरानी समस्या है.

वर्ष 2021-22 के बजट में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को 14,793.66 करोड़ रुपए दिए गए थे. यह साल 2020-21 से 12 फीसदी और 2015-16 से 15 फीसदी अधिक था. मंत्रालय के 3 विभाग विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, जैव प्रौद्योगिकी विभाग और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान विभाग हैं.

आंकड़े बताते हैं कि करीब 42 रिसर्च एंड डैवलपमैंट यानी आर एंड डी निजी क्षेत्रों द्वारा कराए जाते हैं. यह क्षेत्र रिसर्च के शुरुआती स्टेज पर बेहद कम ध्यान देता है. इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सार्वजनिक खर्च में वृद्धि करना जरूरी हो जाता है.

बजट और सुविधाएं न होने के कारण विश्वविद्यालयों द्वारा रिसर्च को कम ही प्रोत्साहित किया जाता है. रिसर्च करने वालों को बेहतर कैरियर बनाने का मौका भी नहीं दिया जाता है.

शिक्षा मंत्रालय द्वारा आयोजित अखिल भारतीय उच्चशिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार,

70 फीसदी से अधिक कालेज प्राइवेट हैं. इन कालेजों का ध्यान मुख्यरूप से अनुसंधान को आगे बढ़ाने के बजाय शिक्षण और औद्योगिक प्लेसमैंट पर ज्यादा होता है. भारत में विश्वविद्यालयों की हालत बेहद खराब है. यही वजह है कि 100 सब से अच्छे विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कोई विश्वविद्यालय नहीं है. इसी सूची में चीन के 6 विश्वविद्यालय हैं.

रिसर्च पर टिकी होती है विकास की नींव

किसी भी देश का विकास वहां के लोगों के विकास के साथ जुड़ा हुआ होता है. इस के लिए यह जरूरी हो जाता है कि जीवन के हर पहलू में विज्ञान, तकनीक और शोधकार्य अहम भूमिका निभाएं. विकास के पथ पर कोई देश तभी आगे बढ़ सकता है जब उस की आने वाली पीढ़ी के लिए सूचना और ज्ञान आधारित वातावरण बने और उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध तथा अनुसंधान के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों. हमारे देश में इन बातों को ले कर पिछले 75 सालों में भाषण और बयानबाजी तो बहुत हुई पर इस दिशा में काम बेहद कम हुआ. पंजाब के जालंधर स्थित लवली प्रोफैशनल यूनिवर्सिटी में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के आयोजन समारोह में ‘भविष्य का भारत : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी’ विषय पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘जय जवान जय किसान जय विज्ञान’ में ‘जय अनुसंधान’ भी जोड़ दिया. इस के बाद भी रिसर्च की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया.

भारत रिसर्च के क्षेत्र में चीन, जापान जैसे देशों से पीछे है. भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में 7वें स्थान पर है. भारत में मल्टीनैशनल कौर्पोरशन रिसर्च एंड डैवलपमैंट केंद्रों की संख्या 2010 में 721 थी. यह 2018 में 1150 तक पहुंच गई है. इस के बाद भी भारत के हाथ कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी है. भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास तथा अनुसंधान की स्थिति धरातल पर उतनी मजबूत नहीं जितनी कि भारत जैसे बड़े देश की होनी चाहिए. नोबेल पुरस्कार एक विश्व प्रतिष्ठित विश्वसनीय पैमाना है जो विज्ञान और शोध के क्षेत्र में हासिल की गई उपलब्धियों के जरिए किसी देश की वैज्ञानिक ताकत को बतलाता है. इस मामले में भारत की उपलब्धि लगभग जीरो है. वर्ष 1930 में सर सी वी रमन को मिले नोबेल पुरस्कार के बाद से अब तक कोई भी भारतीय वैज्ञानिक इस उपलब्धि को हासिल नहीं कर पाया. इस का कारण है कि देश में मूलभूत अनुसंधान के लिए उपयुक्त साधन नहीं हैं.

दिनोंदिन खराब होते हालात

अगर 40-50 साल पहले की बात करें तो देश में लगभग 50 वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वविद्यालय ही होते थे. धीरेधीरे विश्वविद्यालयों में अनुसंधान के लिए धन की कमी होती चली गई. अब हालत यह है कि युवावर्ग की दिलचस्पी वैज्ञानिक शोध में कम तथा अन्य क्षेत्रों में ज्यादा होती है. सरकार ने रिसर्च करने वाले युवाओं को अच्छे अवसर नहीं दिए. एक सर्वे बताता है कि हर साल लगभग 3000 अनुसंधान शोधपत्र तैयार होते हैं लेकिन इन में कोई नया आइडिया या विचार नहीं होता. विश्वविद्यालयों, प्रयोगशालाओं पर यहां बहुत कम खर्च किया जाता है. साल 2035 तक तकनीकी और वैज्ञानिक दक्षता हासिल करने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने टैक्नोलौजी विजन 2035 नाम से एक रूपरेखा तैयार की है. इस में शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य, खाद्य और कृषि, जल, ऊर्जा, पर्यावरण इत्यादि जैसे 12 विभिन्न क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिए जाने की बात कही गई है.

इस को पूरा करने के लिए विज्ञान

तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए ताकि विश्वविद्यालयों में शिक्षकों का अभाव जैसी मूलभूत समस्या को दूर किया जा सके. विदेशों के साथ सा?ा कार्यक्रम हो जिस से युवाओं को रिसर्च के क्षेत्र में बेहतर अवसर मिल सकें. एक ऐसी नीति बनानी होगी जिस में समाज के सभी वर्गों में वैज्ञानिक प्रसार को बढ़ावा देने और सभी सामाजिक स्तरों से युवाओं के बीच विज्ञान के रिसर्च के लिए कौशल को बढ़ाने पर जोर दिया गया हो. पिछले साल महामारी के बीच एमफिल और पीएचडी कर रहे 530 स्टूडैंट्स पर किए एक सर्वे में रिसर्च स्टूडैंट्स का कहना था कि उन्हें अगर रिसर्च के लिए जरूरी सामग्री या लैब की सुविधा नहीं मिली तो वे रिसर्च छोड़ देंगे. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में रिसर्च की हालत कैसी है.

नाकाफी हैं सुधार

उच्चशिक्षा से जुड़े एक और मामले में शिक्षा मंत्रालय ने औल इंडिया सर्वे औन हायर एजुकेशन 2019-20 की रिपोर्ट में यह बताया कि देश में पीएचडी करने वालों की संख्या 2020 में बढ़ कर 2.03 लाख हो गई है जो 2015 में 1.17 लाख थी. उच्चशिक्षा संस्थानों में सिर्फ पीएचडी करने वालों की तादाद ही नहीं बढ़ी है, दाखिलों में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है. वर्ष 2019-20 के सत्र में 3.85 करोड़ छात्रों ने दाखिला लिया.

2015 से 2019 की अवधि में दाखिलों में

11 फीसदी की वृद्धि हुई जबकि इसी अवधि में लड़कियों के दाखिले में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. पीएचडी करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी को देख कर लगता है कि भारत में उच्चशिक्षा का परिदृश्य बहुत अच्छा हो चुका है लेकिन जब अन्य देशों से इस की तुलना की जाती है तो इस की कमजोरियां स्पष्ट हो जाती हैं. भारत में प्रति 10 लाख लोगों में से 150 पीएचडी करते हैं जबकि चीन में यह आंकड़ा 1,071, ब्राजील में 694, मैक्सिको में 353 और सूडान में 290 प्रति दस लाख है.

भारत में रिसर्च और उच्चशिक्षा में जातीय गैरबराबरी की समस्या भी देखने को मिलती है. राज्यसभा में शिक्षा विभाग की ओर से दिए गए आंकड़ों के मुताबिक देश में विज्ञान के प्रमुख संस्थानों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों से आने वाले स्टूडैंट्स की संख्या बेहद कम थी. यहां 2016 से 2020 के बीच एसटी 2 फीसदी, एससी 9 फीसदी और ओबीसी 8 फीसदी स्टूडैंट्स रिसर्च में एडमिशन पा सके. केंद्र सरकार ने इस साल उच्चशिक्षा का बजट 1116 करोड़ रुपए घटा दिया है. ऐसे में बेहतर की उम्मीद कैसे की जा सकती है. हम आजादी का जो अमृत महोत्सव मना रहे हैं उस का उत्साह फीका है.

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