लंबी, गंभीर या पीड़ादायक बीमारी व्यक्ति को कभीकभी निराशा की ऐसी चरम स्थिति में ले जाती है जहां से वह खुद का अंत कर लेना चाहता है. व्यक्ति की इस स्थिति को आमतौर पर सम झा नहीं जाता. दिखाई देने वाली बीमारी को ही बीमारी माना जाता है पर लंबी गंभीर बीमारियों के चलते एक अन्य बीमारी व्यक्ति को भीतर से लगातार कुतर रही होती है पर गौर इस पर कम ही किया जाता है. इस स्थिति को मानसिक तनाव कहते हैं.
कहा जाता है कि खुदकुशी की कोशिश करने वाले सभी लोग मरना नहीं चाहते और सभी मरने की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति खुदकुशी नहीं करते हैं. किन्हीं खास परिस्थितियों में शायद यह भावना ज्यादातर लोगों के मन में आती होगी कि जीवन खत्म कर लिया जाए तो समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा.
स शायद इसी छुटकारे के लिए कप्तानगंज के सिरसिया गांव में 26 जून को 55 वर्षीय उमेश पांडे ने फांसी लगा कर जान दे दी. मृतक ने एक सुसाइड नोट छोड़ा तो उस में खुदकुशी का कारण बीमारी को बताया. लंबी और थका देने वाली बीमारी किस तरह प्रभाव डालती है, यह उमेश के उदाहरण से सम झा जा सकता है. उमेश का लिवर खराब था और पेट में पथरी की भी शिकायत थी. साथ ही वह हृदयरोग से ग्रसित था. उस का इलाज लंबे समय से चल रहा था, जिस में काफी पैसे खर्च हो रहे थे. महीनेमहीने परिवार पर लंबाचौड़ा बिल उमेश के इलाज के चलते बनने लगता. परिवार आर्थिक परेशानी को झेल रहा था, जिस के चलते उमेश मानसिक तनाव में आने लगा और अंत में खुदकुशी कर अपनी लीला समाप्त कर ली.
स ऐसे ही मई में 21 वर्षीय युवक शिवम ने बीमारी के चलते तनाव में आ कर फांसी का फंदा लगा लिया. शिवम उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ क्षेत्र से था. करीब
2 साल पहले वह मजदूरी करते गिर गया. उस के सिर पर गहरी चोट आ गई. लंबे समय से उस का इलाज चल रहा था. इलाज ऐसा कि पैसा दवा में ही बह जाता. मजदूर तबके का शिवम जो परिवार का सहारा था, वही परिवार पर बो झा बनने लगा, जिस के चलते शिवम मानसिक तनाव की गिरफ्त में फंस गया और अंत में उस ने भी आत्महत्या कर ली.
स लंबी व गंभीर बीमारी किस कदर व्यक्ति को मानसिक तनाव में ला देती है, इस के उदाहरणों की कमी नहीं. 5 जुलाई को मध्य प्रदेश के नर्मदापुरम नगरनिगम के सब इंजीनियर ने मुंह में कार्बनडाई औक्साइड गैस भर कर खुदकुशी कर ली. मृतक का नाम चेतन बुमरकर था. उस ने पहले गैस की पाइप मुंह में डाली, फिर पूरे चेहरे को पन्नी से लपेट कर कस के बांध लिया और फिर गैस चालू कर दी. मृतक ने साथ में सुसाइड नोट छोड़ा जिस में स्पष्ट रूप से कहा कि उस की मौत की वजह उस की बीमारी है और वह इस के चलते गहरे अवसाद में था.
स ऐसा ही एक मामला इंदिरापुरम थाना क्षेत्र से आया जहां एक बहुमंजिली सोसाइटी की 13वीं मंजिल से कूद कर 82 वर्षीया वृद्धा ने आत्महत्या कर ली. मृतका उमा गुप्ता के पास से भी एक सुसाइड लैटर मिला जिस में उस ने बीमारी को अपनी आत्महत्या की वजह बताई. मृतका के परिवार को पैसों की दिक्कत नहीं थी. उस का इलाज भी चल रहा था पर मानसिक तनाव ऐसा कि दिमाग पर सवार हुआ और आत्महत्या कर के ही दम लिया.
बीमारी जो गिनतियां खा रही
हकीकत यह है कि व्यक्ति को हमेशा बीमारी मृत्यु तक ले कर नहीं जाती, कई बार बीमारी से पहले व्यक्ति खुद को ही मृत्यु तक ले जाता है और आत्महत्या कर लेता है. इस स्थिति को मैंटल डिप्रैशन कहा जाता है, जो किसी भी बीमारी से ज्यादा घातक है. भारत में हर वर्ष औसतन एक लाख से अधिक लोग खुदकुशी कर लेते हैं. इन में 2 सब से बड़ी वजहें पारिवारिक क्लेश और लंबी व गंभीर बीमारी का होना है.
अमेरिका के नैशनल सैंटर फौर बायोटैक्नोलौजी इनफौरमेशन में कुछ वर्षों पहले एक स्टडी छपी, जिस का शीर्षक था, ‘इमोशनल डाइमैंशन औफ क्रौनिक डिजीजेस’ (गंभीर बीमारियों का भावनात्मक पहलू). हार्वर्ड मैडिकल स्कूल ने बीमारियों के इमोशनल पहलू पर काम करते हुए यह नतीजा निकाला कि 500 साल तक जो मैडिकल साइंस मानव शरीर को उस के मन से काट कर एक स्वतंत्र इंटिटी की तरह शरीर का इलाज करती रही, वह पारंपरिक मैडिकल साइंस अब धीरेधीरे इस दिशा में बढ़ रही है कि मानव शरीर में होने वाली सारी बीमारियां सिर्फ 30 फीसदी शारीरिक हैं और बाकी 70 फीसदी मानसिक.
आज भी मुख्य धारा के बड़े पैमाने के डाक्टर इस रिसर्च में लगे हैं कि तनाव, दुख, अवसाद कैसे बीमारियों की न सिर्फ जमीन बनाते हैं, बल्कि उस के लिए खाद का भी काम करते हैं. लेकिन मुख्य धारा मैडिसिन कई अगरमगर के साथ मन से काट कर शरीर को दवाइयों के जरिए ठीक करने की कोशिश में लगी हुई है.
बीमारी से कैसे लोग मानसिक तनाव की गिरफ्त में फंस रहे हैं, इसे पिछले
2 सालों के कोरोना महामारी काल से सम झा जा सकता है. जब लोग बीमारी के अंदेशे भर से खुदकुशी करने लगे थे. अमेरिकी मैडिकल जर्नल ‘जामा पीडियाट्रिक्स’ ने इसे ले कर 29 रिसर्च का एनालिसिस प्रकाशित किया. 80,879 युवाओं के सर्वे में पाया गया कि महामारी के दौरान बच्चों और किशोरों में डिप्रैशन और चिंता के मामले दोगुने हो गए हैं. यूरोप में यूनिसेफ की एक हालिया रिपोर्ट भी बताती है कि आत्महत्या युवाओं की मौत का दूसरा प्रमुख कारण बन गया है.
ऐसे ही भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्षवार प्रतिवेदनों का अध्ययन करने से पता चलता है कि वर्ष 2001 से 2015 के बीच भारत में कुल 18.41 लाख लोगों ने आत्महत्या की. इन में से 3.85 लाख लोगों (लगभग 21 प्रतिशत) ने विभिन्न बीमारियों के कारण आत्महत्या की. वहीं 2020 में 153,052 लोगों ने आत्महत्या की. इन आंकड़ों से सम झा जाए तो भारत में हर एक घंटे में 4 लोग बीमारी से तंग आ कर आत्महत्या करते हैं व हर 5 में से एक आत्महत्या बीमारी के कारण होती है. अकेले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में इस साल एक जनवरी से 28 फरवरी तक 178 लोगों ने खुदकुशी कर ली. इन में 50 महिलाएं, 85 युवा व 43 अन्य लोग शामिल हैं.
लंबी व गंभीर बीमारियों का मानसिक प्रभाव
किसी लंबी बीमारी के साथ रहना शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से चुनौतीपूर्ण होता है, इसलिए पुरानी बीमारियों और डिप्रैशन का एकसाथ होना आश्चर्यजनक नहीं है.
मिर्गी आना,
आर्थ्राइटिस
डायबिटीज
हृदय संबंधी रोग
औबेसिटी
थायराइड
अल्जाइमर रोग
विटिलिगो व अन्य स्किन समस्या
सैक्स संबंधी समस्या इत्यादि
ये सब पुरानी व लंबी बीमारियां हैं जो समय के साथ सही इलाज न लिए जाने से घातक साबित हो सकती हैं. ऐसे में ये दिमाग में कई तरह के नकारात्मक खयालों को पैदा करती हैं.
नैशनल इंस्टिट्यूट औफ मैंटल हैल्थ के अनुसार जो लोग लंबी बीमारियों से पीडि़त होते हैं उन में मानसिक स्वास्थ्य का खतरा बढ़ जाता है. लंबी बीमारियां पीडि़त को कई सीमाओं में बांधती हैं. लंबे समय तक उस के काम पर असर डालती हैं. ऐसे में पीडि़त इलाज, इलाज में खर्चा और भविष्य के बारे में सोच कर घबराहट महसूस करता है. अध्ययन में पता चलता है कि जो लोग क्रौनिक बीमारी व मानसिक बीमारी दोनों से पीडि़त होते हैं उन में बीमारी से संबंधित अधिक गंभीर लक्षण दिखाई देते हैं.
ऐसे ही दीर्घकालिक व गंभीर बीमारी से पीडि़त को रोज की दिक्कतों और संघर्षों से लड़ना पड़ता है. कई बार इन बीमारियों से लोग अपनी स्वतंत्रता खोई हुई महसूस करते हैं. इन बीमारियों में कैंसर, एचआईवी/एड्स, कोरोनरी हार्ट डिजीज, मल्टीपल स्क्लेरोसिस, स्ट्रोक, टीबी, पार्किंसन डिजीज, ट्यूमर, लकवा इत्यादि शामिल हैं. ऐसे में इन का प्रभाव सीधे दिमाग पर पड़ता है. बदले में ये डिप्रैशन पीडि़त के शारीरिक कष्ट को बढ़ाने का ही काम करती हैं.
उपचार के दौरान मानवीय व्यवहार नहीं
मानसिक तनाव और कुछ नहीं दिमाग की उपज है. व्यक्ति जो झेल रहा है, उसे ले कर संभावनाओं का भय है. भारत में एक बड़ा तबका सरकारी चिकित्सा पर निर्भर करता है. ऐसे में यह जरूरी है कि गंभीर बीमारी के समय स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने वाले अस्पतालों का मानवीय होना जरूरी हो, जो कि बहुत कम देखा जाता है.
अब सवाल आता है कि बीमारी के चलते पैदा हुए मानसिक तनाव को भारत की सरकारी चिकित्सा किस तरह हैंडल करती है? इस का सीधा जवाब यह है कि भारत में हैल्थ एजुकेशन की व्यवस्था अच्छे डाक्टर तैयार करती होगी पर शिक्षित डाक्टरों और अस्पतालों की भारी कमी के चलते सरकारी अस्पतालों में लगने वाली भीड़ से इन चीजों की देखरेख मुमकिन ही नहीं हो पाती. डाक्टर उन से संवाद कर के उन्हें यह भी नहीं बता पाते कि बीमारी क्या है? क्यों होती है? मरीज की वर्तमान स्थिति क्या है? उस का इलाज किस तरह होगा? जाहिर है इस का असर मरीज के मनोभाव पर पड़ता होगा.
बीमारी का सामना करें
ऐसे में जरूरी हो जाता है कि एक लंबी व गंभीर बीमारी से पीडि़त व्यक्ति अपने डाक्टरों और अन्य स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से मिले, साथ ही साथ अपना नियमित चैकअप कराए. इस से मन में आ रहे किसी भी प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने में मदद मिलती है. अगर सरकारी चिकित्सालय में उपचार करवा रहे हैं तो पूरा समय लें और अपने सारे सवालों को क्लीयर करें.
इस के अलावा नकारात्मक विचारों से घिरने पर कौग्निटिव बिहेवियोरल थेरैपी (सीबीटी) मदद कर सकती है. सीबीटी बीमारी के बारे में नकारात्मक विचार पैटर्न को बदल देती है और वह उपकरण प्रदान करती है जो बीमारी में चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है.
पुरानी बीमारी के साथ रहना कई बार अकेलापन महसूस करा सकता है. ऐसे में अपने परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों को यह बताना कि वे आप की कैसे सहायता कर सकते हैं, आप को कम अकेला महसूस करने में मदद कर सकता है.
एक लंबी चलने वाली या गंभीर बीमारी का सामना करने के लिए जरूरी है कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित किया जाए. इस के लिए नियमित जीवनशैली बनाएं, समय पर सोएं व उठें, हैल्दी खाना खाएं, शरीर पर उचित ध्यान दें.