आम जनता ने आजादी के 75 सालों में बहुतकुछ हासिल किया पर बहुत पाना अभी बाकी है. भारत की तुलना चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर से की जाए तो साबित होगा कि लोगों की हालत तो ठीक ही नहीं. ऐसे में शासन को खंगालने व वर्तमान को टटोलने की जरूरत है.

भारत देश आजादी के 75 साल पूरे कर चुका है. इस साल का आजादी दिवस हर साल की तरह खास इसलिए नहीं कि हम 76वें स्वतंत्रता दिवस को राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मना रहे हैं बल्कि यह दिन अपने इतिहास को खंगालने और वर्तमान को टटोलने का मौका होता है. यह दिन भविष्य की रूपरेखा भी तय करता है. यह गाड़ी में लगे उस साइड मिरर की तरह होता है जो पीछे के दृश्य तो दिखाता ही है साथ ही आगे की दुर्घटनाओं से आगाह भी कराता है.

यह गुलामी के उस काल की याद दिलाता है जिस के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी गई और कई देशवासियों की शहादत हुई. यह एक रिमाइंडर है जो आकलन करता है कि हम अपने कदम किस ओर बढ़ा रहे हैं, कहीं हम रुक तो नहीं गए या उलटी दिशा में तो नहीं जा रहे.

अगर पीछे मुड़ कर देखें तो आजादी का आंदोलन अपनेआप में बलिदानों की गाथा गाता है. कई जननायकों ने अपनी जवानी कालकोठरी में गुजार दी, कई युवाओं ने आजादी के लिए अपनी पढ़ाई व कैरियर दांव पर लगा दिया, कई हंसतेहंसते फांसी के तख्त को चूम गए, कई लाठीगोलियों से शहीद हो गए. यह इसलिए कि इन का एक न्यूनतम एजेंडा यह था कि आजादी के बाद देशवासी अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जी सकें. वे अपनी सरकार, अपने नेताओं को चुन सकें जो जनता को अशिक्षा, बदहाली व गरीबी से छुटकारा दिलाएं और हर स्तर पर मजबूत देश का निर्माण कर सकें. ऐसा देश जहां आर्थिक और सामाजिक उन्नति हो, जहां न कोई रंग और जन के आधार पर राज करने वाला हो न कोई गुलाम, न ऊंचा न नीचा.

आजाद भारत में लोगों का यह सपना केवल राजनीतिक ऊंचनीच से ही संबंधित नहीं था बल्कि लोग आर्थिक तथा सामाजिक बराबरी भी चाहते थे. 1947 में पार्टीशन का कड़वा घूंट पिए लोग धर्म के जंजालों में पड़ना नहीं चाहते थे, वे काफीकुछ खो चुके थे और अब शांति से देश को आगे बढ़ते देखना चाहते थे.

खैर, आजादी के 75 सालों बाद यह देशवासियों के लिए गनीमत रहा कि इतने साल देश का लोकतंत्र वोटतंत्र से ही सही पर चलता जरूर रहा. लोगों ने अपने प्रतिनिधियों को चुन कर संसद व विधानसभाओं में भेजा. उन्होंने अपने अनुसार सहीगलत जो भी फैसले लिए या कानून बनाए, उन फैसलों ने देश को ठोकपीटधकेल कर आगे बढ़ाया.

क्या कुछ हासिल किया

आज जब बीते 75 सालों की बात हो रही है तो यह भूलना नहीं चाहिए कि आजादी के दौरान बंटवारे का घाव और शरणार्थियों की समस्या भारत के लिए बड़ी चुनौती से कम नहीं थी. ऐसे में सब से बड़ी प्राथमिकता देश की एकता और अखंडता बनाए रखने की भी थी. लोग धर्मों में उल झ कर न रह जाएं और देश कई टुकड़ों में न बंट जाए, इस का ध्यान रखना जरूरी था.

इस के अलावा अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और उन में भारत की स्वतंत्र पहचान बनाना एक चुनौती थी. अंगरेजों के शासनकाल में कई लघु कुटीर उद्योग जर्जर हो गए थे. ऐसे में अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी की समस्या, 20वीं सदी में यूरोप और अमेरिका के मुकाबले में औद्योगीकरण में पिछड़ जाने की चिंता, कृषि विकास की समस्या, स्वास्थ्य व शिक्षा की बदहाल स्थिति देश के आगे मुंहबाए खड़ी थीं. देश स्वदेशी पैरों पर खड़ा हो रहा था तो सबकुछ शुरू से शुरू करना था, फिर चाहे वह उद्योगों का निर्माण हो या स्कूल, अस्पतालों, भवनों का निर्माण हो. पहले बहाना था कि हम तो गोरों के गुलाम हैं इसलिए गरीब हैं.

आजादी के बाद 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ तो सारी व्यवस्थाओं को आकृति मिली, जिस में विधायिका देश के लोगों की चिंताओं का ध्यान रखने के लिए बनाई गई जिस का मूल काम कानून बनाने का रहा. कार्यपालिका सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों को लागू करने के लिए बनाई गई तथा सब से ऊपर न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या एवं न्याय देने और संविधान को लागू कराने के लिए बनाई गई.

ऐसा नहीं कि इन 75 सालों में देश ने कुछ हासिल नहीं किया. सब से जरूरी वोटिंग का अधिकार मिला. आज छोटेबड़े शहरों में बड़ीबड़ी चमचमाती इमारतें दिखाई देती हैं. उन इमारतों में कौर्पोरेट मंडियां सजी हुई हैं. कई शहरों में आईटी हब बन गए हैं. सड़कों और रेल पटरियों का जाल लगभग पूरे देश में बिछ चुका है. बिजली तकरीबन हर घरगांव में पहुंच गई है. बड़े महानगरों में मैट्रो सरपट दौड़ने लगी है. देश का डिजिटलाइजेशन हो चुका है. मोबाइल एक्सेस हर हाथ में है. उस के लिए सुदूर इलाकों में नैटवर्क टावर भी लग गए हैं.

बड़े शहरों से ले कर कई छोटे शहरों तक मौल, सिनेमाहौल और रैस्तरां खुल गए हैं. अमेरिका, यूरोप और दुनियाभर की इंटरनैशनल कंपनियां भारत में स्थापित हो गई हैं. इन देशों के बड़ेबड़े शोरूम लोकल इलाकों में भी खुल गए हैं. आयातनिर्यात सुचारु रूप से चलने लगा है. विदेशों से इनवैस्टमैंट भारत आ रहा है. देश में सैकड़ों सफल पूंजीपति और उद्योगपति उभरे हैं जिन में से कुछ दुनिया के टौप में जगह बना चुके हैं.

इस के अलावा इस लंबे अंतराल में देश में उच्चशिक्षा के लिए प्रशिक्षण संस्थान खुले. आईआईएम, आईआईटी और एम्स बने. कई जनकल्याण की नीतियां बनीं. ग्रामीण इलाकों तक में स्कूलों का निर्माण हुआ. बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिला. उन स्कूलों में लड़कियां और दलित, वंचित तबकों के बच्चों को स्वीकार्यता मिली. इन्हीं वंचित तबकों से निकले लोग बड़े अधिकारी पदों पर भी बैठे. ऐसे ही विज्ञान के क्षेत्र में भी इसरो जैसी संस्था का निर्माण हुआ जिस ने विज्ञान के क्षेत्र में अच्छा काम भी किया.

अभी बहुत पाना रह गया

सवाल हैं कि क्या यह सिर्फ हमारे देश में ही संभव हो पाया? तकनीक क्या यहीं आई? डिजिटलाइजेशन क्या यहीं हुआ? चमचमाती इमारतें और आईटी हब क्या हमारे देश में ही बने? सड़क और रेल का जाल क्या भारत में ही बिछा? बिजली क्या यहीं पहुंच पाई? दरअसल, ऊपर गिनाए गए बिंदु, दुनिया के कुछ बेहद पिछड़े गृहयुद्धों के मारे देशों को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर देश में संभव हो चुके हैं.

जब हम अपने देश की बड़ाई करते हैं तो चीजें गिनती में आती तो हैं पर असल में भारत को जितना ध्यान तकनीकों के विकास के लिए लगाना चाहिए था वह लगाया ही नहीं गया. नई तकनीक विदेशों से हो कर हम तक तक पहुंचती है. घर में मौजूद किसी भी तकनीकी सामान, फ्रिज, टीवी, एसी, लैपटौप, इंटरनैट, मोबाइल किसी को भी उठा कर देखा जा सकता है, क्या ये खोजें भारत में हुईं? क्या फेसबुक या माइक्रोसौफ्ट, गूगल, यूट्यूब हमारे देश की पैदाइश हैं? जवाब है नहीं.

दरअसल हकीकत यह है कि साइंस और टैक्नोलौजी में जितने बजट की जरूरत होती थी, उतना कभी दिया ही नहीं गया. उलटे, जितना दिया जाता रहा उसे भी घटा दिया गया. इसी साल का आंकड़ा है केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को 2022-2023 के केंद्रीय बजट में 14,217 करोड़ रुपए दिए गए हैं जो पिछले साल की तुलना में

3.9 प्रतिशत कम है, जो कि कुल केंद्रीय बजट 39,44,908 करोड़ रुपए का केवल 0.3 प्रतिशत ही बनता है.

इस से जुड़े वैज्ञानिकों और जानकारों ने सरकार के इस तरह के बजट को ले कर कई सवाल खड़े किए. शिक्षा के क्षेत्र में लगातार बजट कम किया गया, जो कि टोटल बजट का 2.5 फीसदी के आसपास है. जबकि इस से जुड़े जानकार इसे 10 प्रतिशत बढ़ाए जाने की मांग काफी सालों से करते रहे.

आज जब हम देश की आजादी की बात कर रहे हैं तो इस का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना जरूरी है, क्योंकि ऐसा कर के हम अपनी स्थिति का सही आकलन कर सकते हैं. तुलना उन देशों से जिन्होंने तकरीबन हमारे साथ अपनी यात्रा शुरू की, जो आजादी के समय हमारी ही तरह लगभग एक स्टार्टिंग पौइंट से अपना रास्ता तय कर रहे थे पर उस के बावजूद उन से हमारा फासला कोसों दूर का हो चला है.

1950 में साथ चले हौंगकौंग, मंगोलिया, जापान, ताइवान, साउथ कोरिया की जीडीपी पर कैपिटा इनकम के मामले में भारत से कहीं बेहतर हैं. कुछ लोगों का तर्क रहता है कि ये देश भारत के मुकाबले छोटे व कम जनसंख्या घनत्व वाले हैं पर हकीकत यह भी है कि इन देशों में जिस तरह की उठापटक और युद्ध जैसे हालात बने रहते हैं वैसे भारत में लंबे समय से रहे नहीं. साउथ कोरिया का नौर्थ कोरिया से और ताइवान का चीन से युद्ध जैसे टसल चलते रहते हैं और जहां तक जनसंख्या वाली बात है तो चीन हमारे सामने बड़ा उदाहरण बन कर सामने है जिस की जीडीपी पर कैपिटा भारत से काफी बेहतर है.

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत को चीन से व्यापार के कुछ गुर सीखने की जरूरत है, जो 1990 तक प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत से ‘गरीब’ देश था. आज चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत का 4.6 गुना है. हम इन देशों से अपनी तुलना कभी नहीं करते, हमेशा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश जैसे देशों को चुनते हैं, क्योंकि ये देश हमें तुलना के लिए सहज दिखाई देते हैं.

कुछ वर्षों पहले खबर आई कि भारत जापान को पछाड़ कर परचेजिंग पावर पैरिटी में अमेरिका, चीन के बाद तीसरे नंबर पर पहुंच गया. इस पर होहल्ला हुआ कि देश तीसरे नंबर की इकोनौमी बन गया पर फैक्ट यह कि यह सिर्फ इसलिए हो पाया कि हमारे देश की जनसंख्या इतनी है कि किसी भी समय वह टौप 5 में ही रहेगी.

कोई यह क्यों नहीं कहता कि हम ने तकनीक के मामले में जापान को पछाड़ दिया है, क्योंकि यह बात हास्यास्पद लगेगी, जो कि दुनिया में तकनीक के मामले में पहले नंबर पर है. स्वतंत्रता से देश को वह मुकाम नहीं मिल पाया जो कोरिया, जापान, चीन, ताइवान सिंगापुर ने पा लिया, जो लगभग एक समय हम जैसे फटेहाल व गरीब थे.

आजादी का मतलब

आजादी होती क्या है? आजादी जैसे विषयों पर तार्किक विचार करना शायद कुछ लोगों को देशविरोधी लगे पर इस प्रश्न से बचा तो नहीं जा सकता.

कितना मुश्किल है इसे सम झना कि देश लोगों से बनता है, इसलिए देश की आजादी का मतलब लोगों की आजादी होनी चाहिए पर हकीकत यह है कि आजाद भारत आज गरीब लोगों का अमीर देश है. हमें दुनिया के टौप अमीरों में हमारे अमीर तो दिखाई देते हैं पर असंख्य गरीब दिखाई नहीं देते. जिन उपलब्धियों की बात ऊपर गिनाई गई, वे उपलब्धियां किन के लिए उपयोगी हो पाईं, इस पर सोचविचार किया जाए तो देश की 80 फीसदी आबादी अभी भी दूर दिखाई देगी.

भारत की आजादी से संसाधनों पर भारत के लोगों का हक कायम हुआ पर हम क्या देख रहे हैं कि आज भी उन संसाधनों पर मुठ्टीभर लोगों का ही अधिकार है. ‘भारत माता की जय’ का नारा तो बराबर लगवाया जा रहा है पर उसी मां के सपूतों में भारी आर्थिक विषमताएं दिखाई देती हैं जो बढ़ती ही जा रही हैं.

इस समय भारत के एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 58.4 प्रतिशत है, वहीं देश की 70 प्रतिशत जनता के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का केवल

7 प्रतिशत ही है. वहीं, 85 फीसदी आबादी 2 डौलर यानी 150-160 रुपए से भी कम में अपना गुजारा कर रही है.

एसबीआई रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना संकट में 2018 के मुकाबले 2021 में आम आदमी का कर्ज दोगुना हो चुका है. अमीरों और गरीबों की संपत्ति में फैलते फर्क को ले कर सरकारी सर्वे कहता है कि भारत की 10 प्रतिशत सब से अमीर आबादी देश की आधी से भी ज्यादा संपत्ति की मालिक है. वहीं

50 प्रतिशत आबादी के पास देश की 10 प्रतिशत से भी कम संपत्ति है. क्या आर्थिक आजादी के माने में देश बेहतर साबित हो पाया? जवाब इस देश की भुखमरी, कुपोषण और गैरबराबरी के कई आंकड़ों से मिल जाएंगे.

आम इंसान के लिए आजादी का मतलब है कि वह अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सके, अपनी इच्छा के अनुसार अपना भोजन चुन सके, पसंद के अनुसार सिनेमा देख सके तथा अपना पहनावा खुद चुन सके और सब से जरूरी यह कि बिना डरे सवाल कर सके. ये सब अधिकार हमें आजादी के बाद हमारे संविधान ने दिए हैं. लेकिन वर्तमान में ये सब अधिकार कूड़ा पेटी में डाल दिए गए हैं. विभिन्न तरीकों से आम नागरिक को पाबंद किया जा रहा है.

सत्ताधारी जनता के नेता नहीं शासक

75 साल देश में कई सरकारें आईंगईं, अधिकतर राजपाट कांग्रेस-भाजपा के हाथ में रहा. तकरीबन 55 साल कांग्रेस और मोदी के 8 साल के कार्यकाल को मिला कर 14 साल भाजपा सत्ता में रही. देश में 15 प्रधानमंत्री बने. कुछ के कार्यकाल 2 या उस से अधिक बार भी रहे पर इतनी स्थिरता के बावजूद देश की स्थिति सतही बढ़ती रही.

जवाहरलाल नेहरू से शुरू हुई प्रधानमंत्रियों की गिनती नरेंद्र मोदी तक पहुंच चुकी है. इस बीच गुलजारीलाल नंदा, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे. फिलहाल नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं.

नेहरू के काल में चुनौतियां जरूर थीं पर उन चुनौतियों को पार पाने व जिस तरह का सुनहरा विजन ले कर वे सत्ता में आए, उस से वे भी बहुत बदलाव लाने में असफल रहे. उस के बाद लालबहादुर शास्त्री कम समय के लिए आए. इंदिरा गांधी काल आया तो ‘जनता का नेता’ कम, शासक वाली छवि भारतीय राजनीति में पनपती दिखाई दी. सत्ता की ललक नेताओं पर हावी होने लगी. राजीव गांधी के बाद राजनीति में टूटफूट, जोड़तोड़ खूब हुई.

इस के बाद जोड़तोड़ राजनीति और देश में धार्मिक चैप्टर के शुरू होने से देश इन्हीं मसलों में उल झा रहा. समस्या यह कि इन मसलों को सुल झाने वाले नेता ही इन्हें उल झाते रहे. ध्यान देने वाली बात यह कि यह वही दौर था जिस समय चीन, जो हम से पिछड़ा था, वह प्रगति पथ पर दौड़ लगा रहा था और हम इन  झमेलों में फंसते रहे.

वी पी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, एच डी देवगौड़ा व गुजराल कमकम समय के लिए सरकार में आए. 1996 के बाद तो 2 वर्षों के भीतर

3 प्रधानमंत्री बने. अटल बिहारी वाजपेयी, पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री, 1999 से 2004 तक अपना कार्यकाल पूरा कर पाए पर उन 5 सालों में वे भी देश को दिशा नहीं दे पाए.

10 साल मनमोहन काल से परेशान जनता ने आखिरकार 2014 में प्रधानमंत्री मोदी को चुना पर जनता के विश्वास के बावजूद चीजें बनने की जगह बिगड़ती चली गईं. मोदी काल के पिछले 8 साल देश फिर उन्हीं धार्मिक और जातीय मसलों में फंसा रह गया. ‘फूट डालो राज करो’ की नीति देश में चलाई जा रही है. हालत यह है कि लोगों में पहले के मुकाबले असुरक्षा की भावना ज्यादा बढ़ी. देश इकोनौमी के मामले में पिछड़ता जा रहा है. गृहयुद्ध जैसे हालात बनने लगे हैं.

समस्याएं जो खत्म होनी चाहिए थीं

आजादी के 75 साल बाद भी आज तक हम उन्हीं समस्याओं से लड़ रहे हैं जो कब की खत्म हो जानी चाहिए थीं. सही मानो में हम ने कभी उन समस्याओं को हल करने की दिशा में काम नहीं किया. हमारे नेता जनता के नेता बनने की जगह उन के शासक बनने लगे हैं. हमारे राजनीतिज्ञ वही करते रहे हैं जो 200 वर्ष तक अंगरेज भारत में किया करते थे.

उन्होंने 2 संप्रदायों के बीच फूट डाली, आजकल हमारे राजनीतिज्ञ भी यही कर रहे हैं. जाति भावना की प्रबलता अभी तक गई नहीं. इन सभी के चलते राजनेताओं की नीतियों ने ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं जिन का जवाब ढूंढ़ा जाना चाहिए. बदलती सरकारों के साथ बस जवाब बदलते रहे हैं, कोई हल नहीं मिला.

दिक्कत यह कि जिन देशों से तुलना में हम सहूलियत महसूस करते भी हैं उन से भी कुछ मामलों में हमारे आंकड़े चिंताजनक हंगर इंडैक्स रिपोर्ट बताती है कि भारत, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देशों के मुकाबले खराब हालत में 101वें स्थान पर है. यह तब की हालत है जब सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है.

तमाम कानून होने के बावजूद दलितों को सिर उठाने की सजा तो ऊंची जाति के लोग आज भी दे ही देते हैं. यही कारण भी है कि देश में जाति आधारित अपराधों में हर साल बढ़ोतरी दर्ज हो रही है. अल्पसंख्यक विरोधी घटनाओं में वृद्धि हुई है. बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य को ले कर तैयारियां किस स्तर पर हैं, यह हम कोरोनाकाल में देख ही चुके हैं. बेरोजगारी के आंकड़े किसी से छिपे नहीं.

डैमोक्रेसी इंडैक्स में भी हम कोई बहुत अच्छे पायदान पर नहीं. प्रैस फ्रीडम में देश रिकौर्ड खराब 150वें पायदान पर पहुंच गया है. जाहिर है जिस देश में आर्थिक, सामाजिक चिंताएं खड़ी होती हैं वहां लोग भी खुश नहीं रहते. यही कारण है कि वर्ल्ड हैप्पीनैस इंडैक्स में भी 136वें पायदान पर गिर चुके हैं, जो पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों से भी खराब है.

कर्तव्य जरूरी

यह अच्छी बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस दिन को ग्रैंड बनाने के लिए 21 मार्च, 2021

को अहमदाबाद से ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ कैंपेन की शुरुआत कर चुके हैं, वहीं देशवासियों से अपील भी कर चुके हैं कि 13 से ले कर 15 अगस्त तक अपने घरों में तिरंगा फहराएं. आजादी दिवस एक राष्ट्रीय गर्व का दिन है तो इस का सैलिब्रेशन भी बड़ा होना

चाहिए पर सवाल यह कि जिन घरों में तिरंगा फहराने की बात हो रही है उन घरों को नौकरी देने की बात क्यों नहीं हो रही?

यह बिलकुल सही है, इस आजादी दिवस को जज्बे के साथ मनाना हमारी जिम्मेदारी है क्योंकि यह हमारी आजादी है, हमारे पुरखों ने बेहतर कल के लिए इस आजादी को हासिल किया है पर यह ध्यान रखना होगा कि देश की आजादी का मतलब है लोगों की आजादी. सिर्फ 2 प्रतिशत लोगों की नहीं. जब लोग गरीबी, जाति, मनुवाद, पितृसत्ता के गुलाम रहेंगे तो आजादी का जश्न भी फीका पड़ जाता है. ऐसे में जरूरी है कि सब से पहले इस गुलामी से खुद को आजाद किया जाए.

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