आज भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हैं. बड़ी बात यह है कि वे एक आदिवासी महिला हैं. एक ऐसा समुदाय (संथाल) जिस की 90 फीसदी आबादी आजादी के 75 सालों बाद भी हाशिए पर पड़ी प्रताडि़त, उपेक्षित, गरीब, अशिक्षित और बेबस है. मगर इसी समुदाय की एक लड़की ने सिर्फ अपनी शिक्षा के दम पर आज देश की प्रथम नागरिक होने का गौरव हासिल किया है.
द्रौपदी मुर्मू के मातापिता ने उन्हें शिक्षित करने का ‘दुस्साहस’ दिखाया. खुद द्रौपदी की दृढ़ इच्छाशक्ति ने उन्हें आगे बढ़ाया. उन को पढ़ाने वाले मास्टर बासुदेव बेहरा कहते हैं, ‘‘वे क्लास टौपर थीं. हमेशा सब से ज्यादा नंबर लाती थीं. नियम के मुताबिक मौनिटर उन्हें ही बनना चाहिए था, लेकिन क्लास में लड़कियों की संख्या काफी कम थी. 40 छात्रों में सिर्फ 8 लड़कियां थीं. इस वजह से हमारे मन में शंका थी कि लड़की हो कर वे पूरे क्लास को कैसे संभालेंगी, लेकिन द्रौपदी अड़ गईं. आखिरकार वही मौनिटर बनीं.’’
द्रौपदी ओडिशा के उपरवाड़ा गांव की अकेली लड़की थीं जो गांव के स्कूल में 7वीं कक्षा तक पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भुवनेश्वर गईं. उन्होंने अपने जीवन के तमाम फैसले खुद लिए और उन पर अड़ी रहीं. टीचर बनीं, अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी की, राजनीति में आने का फैसला किया और आज वे देश की राष्ट्रपति हैं. उन के जीवन में ऐसे बहुत से पल आए जिन्हें ‘भूचाल’ की संज्ञा दी जा सकती है, लेकिन मन को मजबूत रख कर उन्होंने हर संकट का सामना किया.
भारत की सफल महिलाओं में इंदिरा नूई एक जानामाना नाम है. जब भी पावरफुल और कामयाब महिलाओं की बात चलती है तो भारतीय मूल की अमेरिकी नागरिक इंद्रा नूई का नाम सामने आता है. तमिलनाडु में जन्मी नूई पेप्सिको की अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी रह चुकी हैं. साल 2018 में नूई पेप्सिको के सीईओ के पद से रिटायर हुईं. वे 2007 से 2019 तक पेप्सिको की अध्यक्ष रहीं.
इंद्रा नूई को यह कामयाबी यों ही नहीं मिल गई. इस कामयाबी के पीछे है उन की कड़ी मेहनत और लगन. नूई ने स्नातक की पढ़ाई मद्रास विश्वविद्यालय से की. उन्होंने भारतीय प्रबंधन संस्थान, कोलकाता से बिजनैस मैनेजमैंट में पोस्टग्रेजुएशन किया और फिर 1978 में उन्होंने येल स्कूल औफ मैनेजमैंट में दाखिला लिया. नूई जब येल में पढ़ रही थीं तो उन्होंने नाइट शिफ्ट में रिसैप्शसनिस्ट के तौर पर काम भी किया ताकि वे अपने पहले जौब इंटरव्यू के लिए एक वैस्टर्न सूट खरीदने के लिए पैसे जुटा सकें.
साल 2015 में फौर्च्यून ने सब से शक्तिशाली महिलाओं की लिस्ट में नूई को दूसरी सब से शक्तिशाली महिला का स्थान दिया.
भारत में कई महिलाएं हैं जो आज व्यापार व उद्योग जगत का बड़ा नाम हैं. वे देश की प्रतिष्ठित कंपनियों में बड़े पद पर कार्यरत हैं. देश की पहली स्वनिर्मित अरबपति महिला की बात करें तो किरण मजूमदार शा का नाम सब से पहले आएगा. फोर्ब्स सूची में भारत की 5वीं सब से अमीर महिला घोषित किरण मजूमदार शा ने अपने दम पर यह मुकाम बनाया है. किरण मजूमदार शा भारत की सब से बड़ी लिस्टेड बायोफार्मास्युटिकल कंपनी बायोकौन की फाउंडर हैं. यह दवा उत्पादन के क्षेत्र की बड़ी कंपनी है. किरण ने साल 1973 में बेंगलुरु विश्वविद्यालय से बीएससी (जूलौजी औनर्स) की डिग्री हासिल की. इस के बाद उन्होंने वैलेरेट कालेज, मेलबर्न यूनिवर्सिटी, आस्ट्रेलिया से ‘मौल्ंिटग और ब्रूइंग’ विषय पर उच्चशिक्षा हासिल की.
मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ वह नाम है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की फर्स्ट डिप्टी मैनेजिंग डायरैक्टर रहीं. भारतीय मूल का कोई व्यक्ति और वह भी एक महिला पहली बार आईएमएफ में इस पद पर पहुंचीं. गीता गोपीनाथ ने दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कालेज से अर्थशास्त्र में औनर्स की पढ़ाई की. फिर दिल्ली स्कूल औफ इकोनौमिक्स से अर्थशास्त्र में ही मास्टर की पढ़ाई पूरी की. इस के बाद 1994 में वे वाशिंगटन यूनिवर्सिटी चली गईं. साल 1996 से 2001 तक उन्होंने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी की. पोस्टग्रेजुएशन के दौरान उन की मुलाकात इकबाल से हुई. दोनों ने बाद में शादी कर ली.
गीता गोपीनाथ कई साल पढ़ाने के बाद फैडरल रिजर्व बैंक औफ न्यूयौर्क की सलाहकार भी हैं. व्यापार एवं निवेश, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट, मुद्रा नीतियां, कर्ज और उभरते बाजारों की समस्याओं पर उन्होंने लगभग 40 शोधपत्र भी लिखे हैं.
भारतीय फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर आज अपनी बेबाक राजनीतिक टिप्पणियों के लिए ख्यात हैं. उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं मगर स्वरा के स्वर ठंडे नहीं पड़े. स्वरा भास्कर ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की. स्वरा ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत 2009 के माधोलाल कीप वाकिंग में एक सहायक भूमिका के साथ की थी. व्यावसायिक रूप से सफल रही फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ (2011) में उन की सहायक भूमिका से उन्हें पहचान मिली और सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के नामांकन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया. स्वरा भास्कर एक हिम्मती और बेबाक महिला हैं जो सोशल मीडिया पर अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए पहचानी जाती हैं.
वहीं दूसरी ओर फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत भी अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए मशहूर हैं. ये दोनों ही महिलाएं काफी जीवट प्रवृत्ति की, बेखौफ, हिम्मती और बेबाक हैं. वे निजी विचारों को खुल कर सामने रखने में नेताओं को भी आड़े हाथ लेने से संकोच नहीं करती हैं.
एक्सेंचर इंडिया की चेयरपर्सन रेखा एम मेनन को बीते साल नैशनल एसोसिएशन औफ सौफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकौम) की चेयरपर्सन नियुक्त किया गया है, जो सौफ्टवेयर लौबी गु्रप के 30 साल के इतिहास में शीर्ष पद प्राप्त करने वाली पहली महिला हैं. मेनन भारत में एक्सेंचर में चेयरपर्सन और वरिष्ठ प्रबंध निदेशक भी हैं.
मल्लिका श्रीनिवासन मैसी फर्ग्यूसन ट्रैक्टर और कृषि उपकरण बनाने वाली कंपनी टैफे (टीएएफई) की अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं. उन्हें उद्योग जगत की आयरन लेडी के नाम से पुकारा जाता है. मल्लिका श्रीनिवासन ने 1986 में 27 वर्ष की उम्र में जब टैफे जौइन किया तब उन के पिता ने उन से कहा था, ‘‘पूरा परिवार तुम्हारे साथ है. कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी निर्णय लेने की पूरी आजादी है.’’ उन का नाम एशिया की 50 पावरफुल बिजनैस वुमन में शुमार होता है.
ये तमाम नाम ऐसी भारतीय महिलाओं के हैं जिन्होंने अपनी जीवटता, दृढ़ इच्छाशक्ति, जिद और लगन से उच्चशिक्षा हासिल की और अपने कैरियर में ऊंचा मुकाम प्राप्त कर अपनी शिक्षा व अनुभवों का फायदा देश और दुनिया को दे रही हैं.
मगर यह संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है. 140 करोड़ आबादी वाले भारत देश में ऐसी प्रतिभाशाली महिलाओं की संख्या लाखों में हो सकती थी अगर उन को शिक्षा पाने का समुचित मौका मिलता. लेकिन आजादी के 75वें साल को अमृत महोत्सव के रूप में मनाने वाले राष्ट्र में अगर औरतों की सही और तार्किक शिक्षा और अधिकारों की बात करें तो वह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है. अपने आसपास नजर डालें तो अधिकांश औरतें सिर्फ घरेलू काम करती, शादी कर के बच्चे पैदा करती और पति का घर संभालती ही नजर आती हैं. जो पढ़लिख रही हैं वे भी इसलिए कि उन की अच्छे घरों में शादियां हो जाएं.
सुबहसुबह घर में कामवाली बाई आई तो उस से यों ही पूछ लिया, ‘कुछ पढ़ाईलिखाई की है?’ उस ने ‘न’ में सिर हिला दिया. उस का नाम देवी है. उम्र कोई 22-23 साल. मध्य प्रदेश में जबलपुर के नजदीक के एक गांव की है. परिवार मजदूरी करने दिल्ली आया जब देवी 7-8 साल की थी. उस के मातापिता ने दिल्ली में ठेकेदारों के तहत मजदूरी की. जहांजहां नई बिल्ंिडग बनती, पूरा परिवार उसी जमीन पर तिरपाल डाल कर रहता था. देवी के अन्य परिजन भी दिल्ली के विभिन्न इलाकों में रहते हुए मजदूरी करते हैं. फसल बुआई और कटाई के वक्त कुछ लोग गांव लौट जाते हैं और महीनेदोमहीने खेतों का काम कर के वापस आ जाते हैं.
देवी दिल्ली में बड़ी हुई. मां के साथ गारामिट्टी ढोते या कोठियों में बाई का काम करते हुए जवान हुई. यहीं सगी मौसी के लड़के से उस की शादी हो गई. हालांकि वह रिश्ते में भाई हुआ मगर उन के वहां रिश्तेदारी में शादी का प्रचलन है. (किसी सनातनी हिंदू के लिए यह कान खड़े कर देने वाली बात है मगर देश के कई गांवों में ये बातें नौर्मल हैं.) देवी की मौसी उस की सास भी है. अब देवी के पास 2 बेटे हैं. उस का पति राजकुमार, जो उम्र में देवी के बराबर ही है, दिल्ली के सरकारी स्कूल में 6ठी कक्षा तक पढ़ा है मगर देवी को नहीं पढ़ाया गया. उस के परिवार की किसी लड़की ने पढ़ाई नहीं की है जबकि सभी देश की राजधानी में रहते हैं.
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, केरल, तमिलनाडु से आ कर दिल्ली में काम करने वाले मजदूर परिवारों की संख्या लाखों में है. दिल्ली में इन की कई बस्तियां और ?ाग्गी?ांपडि़यां हैं. इन बस्तियों में बहुत बड़ी तादाद लड़कियों की है.
गांव में न सही मगर राजधानी में होते हुए तो इन्हें शिक्षा मिलनी चाहिए थी, कम से कम इतनी कि ये बच्चियां अपना नाम लिख सकें, मगर इन लड़कियों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा. ये घर में रहती हैं और चूल्हाचौका करती हैं, सरकारी नल से प्लास्टिक की बोतलों में जरूरतभर पानी भरभर कर लाती हैं, मां काम पर जाती है तो पीछे से अपनी मांओं के बच्चे पालती हैं, कपड़े धोती हैं, साफसफाई करती हैं. जहां 14-15 साल की हुईं, मां के साथ मजदूरी या कोठियों में बाई का काम करने निकल पड़ती हैं और 17-18 की होतेहोते ब्याह दी जाती हैं.
सुबह घरघर से कचरे की थैलियां उठाने वाली अनुसूचित जाति की 60 वर्षीया कमला भी अनपढ़ है और उस की 35 वर्षीया बहू शकुंतला भी अनपढ़ है. ये दोनों कचरा उठाने के साथसाथ कोठियों में साफसफाई का काम करती हैं.
पास की मंडी में बैठी सब्जी बेचने वाली सावित्री भी अनपढ़ है. सावित्री की उम्र 40 के आसपास होगी. दिल्ली में पैदा हुई, यहीं बड़ी हुई मगर स्कूल का मुंह कभी नहीं देखा. आप अपने आसपास दिखने वाली इन औरतोंबच्चियों से पढ़ाई के विषय में पूछिए, आप को ‘न’ में ही जवाब मिलेगा.
भारत के गरीब तबके में अनपढ़ औरतों और लड़कियों की बहुत बड़ी तादाद है. बचपन से राष्ट्रीय राजधानी में रह रही लड़कियां जब अक्षर ज्ञान से महरूम हैं तो अन्य छोटे शहरों, बस्तियों और गांवों में क्या हाल है, इस का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.
भारत सरकार स्वतंत्र दिवस की 75वीं वर्षगांठ को ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ के तौर पर मना रही है. मगर आजादी के 75 सालों में भी भारत सरकार अपनी करोड़ों बेटियों के लिए प्राइमरी शिक्षा तक की व्यवस्था नहीं कर पाई. इस से बड़ी शर्म की बात क्या होगी? आप को जान कर हैरानी होगी कि आज भी भारत का हर चौथा बच्चा स्कूली शिक्षा से वंचित है.
जब हमें आजादी मिली थी उस समय 19 फीसदी आबादी साक्षर थी. भारत सरकार कहती है कि 75 साल में यह आंकड़ा 80 फीसदी तक पहुंच गया है, लेकिन इस दावे में कितनी सचाई है, यह बड़े शहरों में रहने वाले आप अपने आसपास काम करने वाले लोगों से, घरों में काम करने वाली औरतों से, बाजार में सब्जी बेचने वालों से, मजदूरों से, रिकशाचालकों से, सड़क की गंदगी साफ करने वालों से, कचरा उठाने वालों से पूछ कर सम?ा सकते हैं कि इस दावे में कितनी सचाई है.
भारत में शिक्षा की दर बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव लगातार बना रहता है. सरकारें शिक्षा नीतियां बनाती हैं, शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने और प्रोत्साहन बढ़ाने के लिए समयसमय पर कुछ योजनाएं भी घोषित करती रहती हैं. फिर भी इतने सालों में अगर अपेक्षित परिणाम नहीं निकल पाए तो निश्चित रूप से इस में सरकारों और समाज की नीयत और नीतियों में बुनियादी खामियां हैं. 75 सालों में शिक्षा का शतप्रतिशत आंकड़ा प्राप्त न करना शासन की नाकामी है.
शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए 11 साल हो गए हैं. इस कानून के तहत 14 साल तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने का वादा है. अनिवार्य शिक्षा का मतलब है कि सभी बच्चों को औपचारिक स्कूलों में दाखिला दिलाया जाए. यह दायित्व सरकारी, निजी और सभी धार्मिक संस्थाओं के तहत चलने वाले स्कूलों पर डाला गया है कि वे इस कानून के तहत बच्चों को शिक्षा दें. लेकिन व्यवस्थागत खामियों के चलते बच्चे, खासकर लड़कियां, शिक्षा से दूर ही हैं.
राजनीति गरीबी और अशिक्षा को अपने वोटबैंक के तौर पर भुनाती है. अगर गरीब शिक्षित हो गया तो खड़ा हो कर अपने अधिकार मांगने लगेगा, इसलिए उस के सामने सिर्फ शिक्षा का ?ान?ाना बजाते रहो मगर उस ?ान?ाने तक उस को पहुंचने न दो.
शिक्षा का बंटाधार
गांवकसबों के सरकारी स्कूलों में शिक्षक मोटी तनख्वाह के लालच में अपनी हाजिरी लगाने स्कूल जाते हैं. बच्चों को शिक्षित करने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उन से कोई जवाब मांगने वाला नहीं है.
उत्तर प्रदेश के गांवों से कई बार यह खबर आई कि वहां 5वीं का बच्चा अपना नाम तक लिखना नहीं जानता है. इंग्लिश के शिक्षकों को इंग्लिश पढ़नीबोलनी नहीं आती. अंकगणित का टीचर 4 का पहाड़ा नहीं जानता. ऐसे शिक्षकों से भारत को शिक्षित करने के उपक्रम क्या हास्यास्पद नहीं हैं?
देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नगरनिगम के विद्यालयों में नर्सरी टीचर की एक क्लास में 100 से 150 बच्चे तक एक कमरे में कीड़ेमकोड़ों की तरह भरे दिखते हैं. एक टीचर के सिर पर सौडेढ़सौ बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी. ऐसे में वे क्या पढ़ेंगे जब चिलचिलाती गरमी में बैठे ये बच्चे इन कमरों में ठीक तरीके से सांस तक नहीं ले पाते हैं. वे अपनी कौपीकिताबों से खुद को पंखा ?ालते दिखाई देते हैं. बच्चों को कमरे में बंद कर टीचर्स स्टाफरूम में चायसमोसे का लुत्फ उठाते नजर आते हैं.
निगम के पुराने टीचर्स की तनख्वाहें आज एक से डेढ़ लाख रुपए महीना हैं, मगर उस के बदले में वे बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं, यह सचाई किसी भी स्कूल में जा कर देखी जा सकती है.
हर साल जुलाई महीने में स्कूल खुलने पर टीचर्स को टारगेट दिया जाता है कि आसपास तीनचार किलोमीटर के दायरे में जो ?ाग्गी?ांपड़ी और गरीब परिवारों, मजदूरों आदि के बच्चे हैं उन को मिड डे मील के बहाने, नकद पैसे देने के बहाने ला कर उन का एडमिशन निगम के स्कूलों में करवाया जाए और इस तरह सरकारी कार्यक्रम पूरा किया जाए. टीचर्स इस टारगेट को पूरा करते हैं मगर जब शिक्षा देने की बात आती है तो व्यवस्थाएं इतनी जर्जर हैं, नीयत इतनी खोटी है कि बच्चे स्कूल आ कर भी शिक्षा से वंचित ही रहते हैं.
खैर, यह एक बहुत बड़ा रिसर्च का विषय है. दिल्ली के सरकारी स्कूलों से ले कर गांवदेहात तक के स्कूलों की पड़ताल करना आसान भी नहीं है. मगर एक सवाल इस से भी ज्यादा अहम है कि अजादी के 75 सालों में मध्यम और उच्च वर्ग की जितनी लड़कियां और महिलाएं पढ़लिख गई हैं, क्या वे अपनी शिक्षा से आज देश को कुछ लौटा रही हैं?
आम राय यह है कि भारतीय परिवार जहां लड़कों को नौकरी करने के उद्देश्य से शिक्षित करते हैं वहीं वे अपनी लड़कियों को ग्रेजुएशन तक सिर्फ इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उन की अच्छी शादी हो जाए. एक उच्चशिक्षा प्राप्त लड़की को भी ससुराल में चूल्हाचौके तक ही सीमित रहना पड़ता है. वह एक घरेलू नौकर से ज्यादा कुछ नहीं है.
दशकों से शहरी क्षेत्रों में उच्चवर्ग और मध्यवर्ग की लगभग सभी लड़कियां उच्चशिक्षा प्राप्त कर रही हैं. उच्चवर्ग की तो अधिकांशतया इंग्लिश मीडियम में पढ़ती हैं. मगर उन की शिक्षा राष्ट्र के कामों में, विकास और उन्नति में क्या योगदान देती है? क्या वे पढ़लिख कर नौकरी करती हैं? अधिकारीकर्मचारी बनती हैं? नहीं. अपनी शिक्षा के आधार पर नौकरी प्राप्त कर आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी महिलाओं का प्रतिशत आधी आबादी का शायद 5 फीसदी ही होगा. उस में मध्यम और उच्चमध्य वर्ग की ज्यादा हैं.
उच्चवर्ग में भी लड़कियों से नौकरी कराने की इच्छा न के बराबर ही है. ऊंचीऊंची डिग्रियां पा कर वे बड़े सरकारी अधिकारियों, डाक्टरों, इंजीनियरों, व्यवसायियों से शादी कर के घरों में कैद हो जाती हैं.
उन की हालत रेशमी कपड़े पहने एक घरेलू नौकर की सी ही होती है. सब के खाने का इंतजाम करना, घर की साफसफाई करवाना, गेस्ट को एंटरटेन करना, बुजुर्गों की देखभाल करना, बच्चों की परवरिश करना, बस इसी तरह की जिम्मेदारियों का निर्वहन वे ताउम्र करती हैं, जबकि निम्नवर्ग की 90 फीसदी औरतें घरों से निकल कर काम करती हैं और पैसा कमाती हैं मगर वे अशिक्षित हैं.
देखा जाए तो एक उच्चवर्ग की उच्चशिक्षा प्राप्त गृहिणी और उस के घर में काम करने वाली अशिक्षित बाई दोनों एकजैसी ही हैं. एक पढ़लिख कर किचन संभाल रही है, दूसरी अनपढ़ हो कर उस के किचन के कामों में मदद कर रही है.
रेलवे के एक उच्चाधिकारी की पत्नी बीटैक है. बीटैक यानी इंजीनियर. अपने स्कूलकालेज में थ्रूआउट फर्स्ट डिवीजन रही. मांबाप ने उन की पढ़ाई पर कई लाख रुपए खर्च किए. मगर उन की योग्यताएं देश के काम नहीं आईं. शादी हुई तो अधिकारी पति ने बीवी से नौकरी करवाने में अपना अपमान सम?ा. अब उस बीटैक महिला का कार्यस्थल सिर्फ उस का किचन है जहां वह पति और बच्चों के पसंद के पकवान बनाती रहती है और घर में आने वाले पति के मेहमानों की खातिरदारी में अपना समय व्यतीत करती है.
शिक्षित महिलाएं किसी भी राष्ट्र की आधारशिला होती हैं मगर ध्यान रहे, विवेकहीन, लक्ष्यहीन और उपयोगहीन शिक्षा पूरे समाज को पतन की ओर ले जाती है. भारत को स्वतंत्र हुए 70 साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन महिलाएं, जो देश की 49 फीसदी आबादी का गठन करती हैं, अभी भी सुरक्षा, गतिशीलता, आर्थिक स्वतंत्रता, पूर्वाग्रह और पितृसत्ता जैसे मुद्दों से जू?ा रही हैं. हिंदू धर्म हो या इसलाम औरतों के अंगूठे के नीचे दिखना चाहता है और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को ही निर्णय लेने की शक्ति देता है लड़कियों को नहीं.
पढ़ने या काम करने के विकल्प से ले कर आर्थिक निर्णय और कमाई के इस्तेमाल तक अकसर महिलाओं को इन अहम मुद्दों पर अपनी राय रखने से मना कर दिया जाता है. उन का पढ़नालिखना उन के जीवन में कभी काम नहीं आता. वे पढ़लिख कर अपने जीवन के फैसले भी नहीं ले सकती हैं. शायद इसलिए, भारत दुनिया में सब से ज्यादा महिलाओं के प्रति हिंसा और कन्याभ्रूण हत्याओं का दोषी है. द्य