हम दिसंबर में जबलपुर गए. ट्रेन अपने कसबे से दूर जिला लुधियाना से थी जो मौसम व कोहरे की वजह से 16 घंटे लेट थी. सफर मुझे अपनी बेटी के साथ करना था. गाड़ी के इंतजार में मेरे पति 10 घंटे इंतजार कर के घर वापस लौट गए. दोपहर से रात हो गई.

विश्रामगृह में न जाने कितने यात्री आए, समयसमय पर प्रस्थान करते गए. मगर हम मांबेटी वहीं बैठे रहे क्योंकि गाड़ी मध्यरात्रि 1 बजे के करीब आने वाली थी.

हमारे पास सामान बहुत था. एक तो लंबा इंतजार, ऊपर से बैठेबैठे थकावट, और अभी कम से कम गाड़ी का 36 घंटे का सफर करना था. बड़ी कोफ्त हो रही थी. पिछले 2 घंटों से 2-3 अनजान पुरुष बातें करतेकरते हमें भी आंखों ही आंखों में टटोल रहे थे.

हमें कुछ घबराहट भी थी कि इस अनजान शहर में कुछ अप्रिय न घटित हो जाए. फिर भी हम ने मन कड़ा किया हुआ था किसी भी हालत से दोचार होने के लिए. हमें देख एक आदमी, जो शायद किसी और राज्य से था, जानबूझ कर मुझ से कहने लगा, ‘‘मैडम, आप अकेले जा रही हैं? समय बड़ा खराब है. यह आप की बेटी है?’’

मैं ने जब ‘हां’, कहा तो वह और बातों में उलझाने लगा कि आप कहां जा रही है, क्यों जा रही हैं आदि.

तभी मुझे एक तरकीब सूझी. मैं ने अपनी 25 वर्षीय बेटी की तरफ इशारा कर के उस से कहा, ‘‘दरअसल, मेरी बेटी ने आईपीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की है. हम इस की मैडिकल परीक्षा हेतु दिल्ली जा रहे हैं. वहीं से इसे तैनाती एरिया में भेजा जाएगा.’’

जबकि मेरी बेटी साइंस अध्यापिका है, मगर उस के व्यक्तित्व व कदकाठी से वह व्यक्ति गलतफहमी में आ गया. यह सुन कर वह थोड़ा सकपका सा गया कि यह तो भावी पुलिस अध्यक्षा है. फिर तो उस के बातचीत करने का लहजा भी एकदम बदल गया.

वह हम से थोड़ी दूरी बना कर सम्मानपूर्वक तरीके से बैठ कर बड़ी इज्जत से बातें करने लगा. जब गाड़ी प्लेटफौर्म पर आई तो वह हमारा समान भी डब्बे तक छोड़ आया.

मेरे एक झूठ ने शायद कुछ अप्रिय क्षणों को अवतरित होने से पहले ही मिटा दिया. हम सुरक्षित भी रहे और सम्मानपूर्वक भी.

आज भी उस यात्री विश्रामगृह की याद आते ही होंठों पर मंद मुसकान थिरक उठती है.      

कुलविंदर कौर वालिया

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