भारत मे भ्रष्टाचार कोई अपराध नहीं, बल्कि हिंदू संस्कृति का मूलभूत सिद्धांत है. भ्रष्टाचार भारत के लोगों के स्वभाव का हिस्सा बन चुका है, इसलिए यह कोई विचारणीय मुद्दा नहीं रहा है. यह राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था में अर्थात सर्वव्यापी है.

भारतीयों ने भ्रष्ट व्यक्तियों को न केवल स्वीकार करने की आदत बनाई है बल्कि भ्रष्ट लोगों को सम्मान की नजरों से देखना शुरू कर दिया है. लड़के की नौकरी में ऊपरी कमाई को देख कर रिश्ते तक होते है.

भारत की जनता परंपरागत रूप से भ्रष्ट है.भ्रष्टाचार भारतीयों की जीवनशैली का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है. भारत को कोई ऐसा वयस्क नहीं मिलेगा जो भ्रष्टाचार की संस्कृति का हिस्सा न रहा हो.

भारत में धर्म में भी लेनदेन का विषय है यानि धार्मिक भ्रष्टाचार खुलेआम चलता है. अपने भगवान को नकद धन देना व उस के बदले में उच्चतम इनाम पाने की चाहत रखते हैं. धार्मिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए साहित्य रचते है और लिखते है कि दान/धर्म करने से धन में बढ़ोतरी होती है.

नौकरियों में जो पैसे के बल पर पहुंचता है, उस को पता होता है कि मैं योग्य लोगों का हक मार रहा हूं. अपनी अयोग्यता जानते हुए भी, योग्य व्यक्ति पर भ्रष्ट तरीके से खुद को तरजीह देना उन्हें गलत नहीं लगता और मांबाप इस प्रक्रिया में शामिल होते है, समाज के लोग भी शामिल होते है और समाज इसे गलत नहीं बल्कि कुछ बड़ा नैतिक कार्य करने की तरह लेता है.

धर्मस्थलों के भीतर हो रहे इस रिश्वत के कारोबार को कोई अनैतिक नहीं समझता, जब कि सत्ता/सिस्टम के साथ इस तरह के लेनदेन को ही “भ्रष्टाचार” की श्रेणी में सरकारी तौर पर माना जाता है.

भारत का धनिक वर्ग मंदिरों में नकदी, हीरेजेवरात देने को नैतिक कार्य मानता है, लेकिन वह ग़रीबों की मदद नहीं करता. किसी जरूरतमंद व्यक्ति की मदद उस की नजर में व्यर्थ की बर्बादी है, उसे वो धर्म नहीं मानता है.

कर्नाटक के पूर्व मंत्री जनार्दन रेड्डी ने तिरुपति को 45 करोड़ रुपए के सोने और हीरे के मुकुट चढ़ाये.अम्बानी ने भी श्रीनाथजी को सोने का मुकुट भेंट किया था. इस तरह के हजारों उदाहरण भरे पड़े है.

इन धनिक भक्तों द्वारा बड़ी चाहत के बदले दी रिश्वत से इतनी संपत्ति इन धर्मस्थलों के पास एकत्रित हो गई कि हीरे/मोती/जवाहरात तहखानों में धूल खा रहे हैं. धर्मस्थलों पर काबिज लोगों की बुद्धि का स्तर मानवीय सभ्यता से सैंकड़ों साल पीछे का है. यही कारण है कि भारत मे करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे है, देश विदेशी कर्ज तले दबता जा रहा है. इस पूंजी का समाज व देश निर्माण में कोई उपयोग नहीं है.

जब अंग्रेज भारत मे आये तो उन्होंने स्कूल खोले और हम भारतीय बाहर जाते है तो अमेरिका, लंदन, अबूधाबी तक मंदिर बनाते है. भारत के लोगों की अंतश्चेतना में यह स्थापित है कि भगवान कृपा के बदले नकदी लेते है तो काम के बदले रिश्वत लेने में अनैतिकता जैसा कुछ नहीं है. यही कारण है कि भारत में रिश्वत का लेनदेन कोई नैतिक कलंक नहीं है.

भ्रष्टाचार हमारे स्वभाव में है और इस को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तानांतरण करते जाते है. हजारों सालों से हम भारतीय यही करते आये है. विदेशी आक्रमणकारियों को बुलावा भेजना, मार्ग बताना, गढ़किलों के गेट जानबूझ कर खुले छोड़ देना, सेनापतियों द्वारा रिश्वत ले कर आत्मसमर्पण कर देने जैसे सैंकड़ों उदाहरणों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है. मुगलों से ले कर अंग्रेजों तक, भले नाम संधि का दिया गया हो लेकिन पैसे के बदले में ही अधीनता स्वीकार की थी.

भारत के लोगों ने कभी एकजुट हो कर विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध नहीं लड़ा. विदेशियों को भारत के लोगों की भ्रष्ट संस्कृति का जैसे ही पता चलता, वैसे ही नकदी ले कर युद्ध के मैदान में आ जाते थे. पड़ौसी राजा या जिस के साथ युद्ध होना था उस के सैन्य कमांडर ही खरीद लिए जाते थे. आंग्ल-सिक्ख व प्लासी के “युद्ध” में भारतीयों द्वारा थोड़ा प्रतिरोध किया गया लेकिन यहां भी अंत मे मीर जाफर बिक गए.

भारतीय सदा से एकजुटता, अखंडता, देशभक्ति पर रिश्वत द्वारा निज हित को तवज्जो देते है.आईएसआई के लिए जासूसी करते जब पकड़े जाते है तब नाम भले ही हनी-ट्रेप का दे दिया जाएं लेकिन पैसे के बदले जमीर बेचना एक सामान्य घटना है. जिस के स्वभाव में स्वहित है, रिश्वत है तो विखंडन का शर्तिया गुण भी साथ होता है.

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में कुछ जन्मजात उच्च होते हैं, तो कुछ जन्म से ही निम्न. समानता की बुनियाद तक इस समाज मे नहीं है. पूरा का पूरा समाज जात व धर्म मे विखंडित है. यहां हिन्दू है, मुस्लिम है, सिक्ख है, ईसाई है लेकिन भारतीय ढूंढे नहीं मिलता है. जाट है, तिवारी है, यादव है, राजपूत है, मेघवाल है, कुर्मी है, कोइरी है लेकिन भारतीय नहीं है. भारतीय सिर्फ कागजी तमगा है. आपसी विश्वास की खाई बहुत गहरी है. हम भूल चुके है कि हमारी ऐतिहासिक आस्था एक ही थी.

विभाजन की इसी सड़ी हुई संस्कृति और असमानता ने ही भारतीय समाज को भ्रष्टाचार के रोग से ग्रसित किया है. समाजहित, देशहित पर इसी कारण स्वहित भारी पड़ जाता है. जहां सोच सामूहिकता से एकाकीपन पर सिमटती है वहां भ्रष्टाचार की जड़ें जमती है. समाज ही अनैतिक रवायत में हलक तक डूबा हुआ है, इसलिए सरकारों के खिलाफ आंदोलन करने से भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हो सकता.

समानता, स्वतंत्रता व बंधुता की भावना पैदा करने वाली शिक्षा जिस की बुनियाद विज्ञान पर टिकी हो, ही इस समस्या का समाधान है. यहां भारतीय जनता का मतलब समाज, धर्म, सत्ता, न्यायपालिका, मीडिया के शीर्ष पर काबिज लोगों से है.

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