देश की इमेज खराब होती है तब बड़ी परेशानी आम लोगों को भी होती है क्योंकि हकीकत होती कुछ और है और दिखाई कुछ और जाती है. इस से आम लोगों का आत्मविश्वास कम होता है जिस से उन की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है. हर कोई चाहता है कि उस के देश का सिर दुनिया में ऊंचा हो, लेकिन ?ाठ, नफरत और हिंसा के चलते देश की छवि की भद पिट रही है.
अपने यूरोप टूर के दौरान 6 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में वहां रह रहे भारतीयों से रूबरू होते अपील की कि वे अपने कम से कम 5 गैरभारतीय दोस्तों को भारत आने को प्रेरित करें.
इस के एवज में वे राष्ट्रदूत कहलाएंगे. लगे हाथ उन्होंने इस मुहिम का नामकरण भी ‘चलो इंडिया’ कर दिया.
इस के क्या माने हुए और वे नव राष्ट्रदूतों के जरिए भारत लाने वाले विदेशियों को कौन सा इंडिया दिखलाना चाहते हैं, इस से पहले यह दिलचस्प बात जान लेना जरूरी है कि अब उन के विदेशी दौरों में आम लोगों की दिलचस्पी बेहद कम हो रही है वरना एक वक्त था जब नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा पर होते थे तब लोग न्यूज चैनल्स के सामने अगरबत्ती जला कर बैठे मुग्धभाव से उन्हें निहारा करते थे.
हालांकि इतना सन्नाटा नहीं पसरता था कि रामायण या महाभारत सीरियलों का दौर याद आ जाए लेकिन ‘मोदीमोदी…’ के नारे ड्राइंगरूम से ले कर सोशल मीडिया पर गूंजते जरूर थे. फिर भले ही वे प्रायोजित हों या भक्तिभाव से निकले हों. कई दिनों तक गागा कर बताया जाता था कि देखो, मोदीजी ने अमेरिका और इंगलैंड तक में ?ांडे गाड़ दिए और भारत अब विश्वगुरु बनने ही वाला है.
तय है महंगाई की मार, विकराल होते भ्रष्टाचार और देश के लगातार खराब होते माहौल से आजिज आ गए लोगों का भ्रम टूटा है और उन्हें सम?ा आ रहा है कि भक्ति और नारों से उन की समस्याएं हल नहीं होने वालीं, उलटे बढ़ने लगी हैं और न ही मोदीजी कोई चमत्कारी नेता या दैवीय अवतार हैं जैसी कि उन्हें घुट्टी पिला दी गई थी और उन्होंने गणेशजी दूध पी रहे हैं की तर्ज पर भरोसा भी कर लिया था.
चलो इंडिया मुहिम में भी किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई. हर कोई बिना किसी के बताए सम?ा गया कि यह एक बेकार की अपील थी जो ‘कुछ नया कहना है’ की गरज से की गई थी. इस से किसी को कुछ हासिल नहीं होने वाला. हां, इस पर वे कुछ कमीशन की पेशकश करते तो पैसों के लालच में थोड़ाबहुत रिस्पौंस मिल भी जाता. इस पर भी अनियुक्त राष्ट्रदूतों को अपने मित्रों को यह बताने में पसीने छूट जाने थे कि उन्हें भारत में क्या दिखाने लाए हैं. इन अतिथियों को भारत लाने व ले जाने के भारीभरकम खर्च पर चुप्पी ने भी इस योजना की भ्रूणहत्या कर दी.
फर्क डेनमार्क और भारत में
देश बहुसंख्यकवाद की गिरफ्त में है. ऐसे में यह हकीकत बताना कि डेनमार्क दुनिया के खुशहाल देशों की लिस्ट में टौप पर है और वहां भ्रष्टाचार न के बराबर है. राष्ट्रवादियों की हर मुमकिन कोशिश यह रहती है कि अपनी जिन खामियों और कमजोरियों को दूर न किया जा सके उन्हें उजागर मत होने दो, बल्कि धर्म और संस्कृति की चादर से ढक दो.
अगर इस से भी बात बनती न दिखे तो उस खामी को ही खूबी कहते प्रचारित कर दो. ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल के भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक 2021 के मुताबिक 180 देशों की सूची में डेनमार्क 88 अंक ले कर शीर्ष पर है जबकि भारत 40 अंकों के साथ 85वें स्थान पर है. हैरत की बात डेनमार्क का इस जगह पर 1995 से लगातार बने रहना है. रिपोर्ट बताती है कि डेनमार्क में सार्वजनिक लाभों और सेवाओं तक पहुंचने के लिए दी जानी वाली रिश्वत न के बराबर है, जबकि भारत में तसवीर उलट है कि न दी जाने वाली रिश्वत न के बराबर है.
भारत में वे लोग बड़े भाग्यवान होते हैं जिन के मकान या जमीन के नामांतरण जैसे मामूली काम बिना घूस दिए हो जाते हैं, फिर बड़े कामों की तो बात करना ही बेकार की बात है. हम में से हर किसी को जिंदगी में कम से कम 3 दर्जन बार रिश्वत देनी पड़ती है और जिस बार न देनी पड़े, उस दिन या तो बाबू, क्लर्क, सिपाही, पटवारी, चपरासी या उन से बड़े साहब का उपवास होता है या फिर बेटे का जन्मदिन होता है जिसे वे ईमानदारी से एक दिन अन्न की तरह घूस का सेवन न कर मनाते हैं.
डेनमार्क के लोगों या समाज, जिन्हें डेनिश कहा जाता है, को अगर घूस के लेनदेन का चलन और तौरतरीके सीखना हो तो जरूर ‘चलो इंडिया’ मुहिम उन के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी. मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के चर्चित व्यंग्य ‘इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर’ में यही सब बताया गया है कि कैसे एक भारतीय पुलिस इंस्पैक्टर चांद पर पहुंच कर वहां भी घूस का रोग फैला देता है.
इस आर्ट को सीखने डेनिशों को जरूर इंडिया आना चाहिए. पहले सबक से ही वे इंडियंस के कायल हो जाएंगे जब उन से कहा जाएगा कि ‘अगर सीखना है तो पहले लाख दो लाख ढीले करो वरना कुतुबमीनार देख कर और सीताराम दीवान चंद के छोलेभठूरे खा कर चलते बनो.’
जिस देश में भ्रष्टाचार नहीं होगा, जाहिर है, वहां खुशहाली भी ज्यादा होगी. संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी विश्व प्रसन्नता सूची 2022 में डेनमार्क को दुनियाभर के 146 देशों में दूसरा स्थान मिला है जबकि भारत इस में 136वें नंबर पर है. यानी भारत नीचे से लगभग टौप पर है. इस रिपोर्ट में जीडीपी, सामाजिक समर्थन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार जैसे कारक शामिल किए जाते हैं. जीवन की गुणवत्ता भी एक अहम पैमाना होता है.
डेनिशों को दुख के कारणों को सम?ाने के लिए भी भारत आना चाहिए. यकीन मानें, वे घबरा कर एक दिन में ही दुख के माने और कारण सम?ा कर अपने वतन वापस भाग जाएंगे. इसी एक दिन में उन्हें यह भी ज्ञान प्राप्त हो जाएगा कि बेवजह ही उन के देश के लोकतंत्र को सब से मजबूत और सशक्त नहीं कहा जाता.
स्वीडन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी स्थित वी डेम संस्था की हालिया एक रिपोर्ट में डेनमार्क को दुनिया का सब से बढि़या लोकतंत्र बताया गया है. इस रिपोर्ट में भारतीय लोकतंत्र को 97वें स्थान पर रखते कहा गया है कि भारत 2010 के चुनावी लोकतंत्र से अब चुनावी निरंकुशता में बदल गया है.
इसी तरह अमेरिका की मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वाच की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली सरकार की नीतियों ने हाशिए के समुदायों, सरकार की आलोचना करने वालों और धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों पर ज्यादा से ज्यादा दबाव डाला है.
इस हकीकत को और उजागर करते हुए एक और अमेरिकी एजेंसी फ्रीडम हाउस ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के तहत भारतीय लोकतंत्र अब पूर्णरूप से आजाद के बजाय आंशिक रूप से आजाद रह गया है. वह अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है.
ऐसे कई पैमाने हैं जिन पर भारत डेनमार्क के सामने बहुत बौना साबित होता है. मसलन, वहां प्रतिव्यक्ति सालाना आमदनी 48 लाख रुपए है जो भारत में मात्र 2.5 लाख रुपए है. डेनमार्क में कोई भी नागरिक बेघर नहीं है जबकि भारत में, एक रिपोर्ट के मुताबिक, करीब 6.8 करोड़ लोगों के पास अपना घर नहीं है.
2020 लोकतंत्र सूचकांक में भारत
2 पायदान नीचे फिसल कर 53वें नंबर पर आ गया है. यह गिरावट नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में दर्ज की गई, नहीं तो साल 2014 में भारत 27वें नंबर पर था. डैमोक्रेसी इन सिकनैस एंड इन हैल्थ शीर्षक वाले ईआईयू (द इकोनौमिस्ट इंटैलिजैंस यूनिट) की हालिया सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राधिकारियों के लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने और नागरिकों के अधिकारों पर कार्रवाई करने से भारत में यह गिरावट और आई. बकौल ईआईयू, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्त्व को शामिल किया है और इसे कई आलोचक भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर पर देखते हैं.
कोई वजह नहीं कि अंधभक्त, कट्टरपंथी और भगवा गैंग के सदस्यों से इन रिपोर्टों के बाबत किसी सीख या सबक की उम्मीद रखी जाए क्योंकि उन की नजर में यह साजिश है. उलटे, वे लोग तो लोकतंत्र को ले कर यह दम भरते हैं कि उन्हें कोई लोकतंत्र के माने न सिखाए. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री जयशंकर तो बात पूरी सुनने से पहले ही तिलमिला उठते हैं, लेकिन सपना विश्वगुरु बनने का देखते हैं.
रही बात डेनमार्क की तो उस से तुलना बेकार या हर्ज की बात नहीं है बल्कि इस से पता चलता है कि भारत को तो डेनमार्क सरीखे छोटे देश से सीखना चाहिए कि जीवन की गुणवत्ता, रहनेबोलने की आजादी और सभी को खाना किसी भी देश की खुशहाली की वजह होते हैं. इस से उस की इमेज बनती और बिगड़ती है और एक हमारे प्रधानमंत्री हैं जो सुख और संपन्नता धर्म व संस्कृति में बताते फिरते हैं जो एक ?ाठा दंभ और हीनभावना ही कही जाएगी.
जमीनी हकीकत बताते हैं आरहूस विश्वविद्यालय के भारतीय मूल के एसोसिएट प्रोफैसर ताबिश, जो 25 वर्षों से डेनमार्क में रह रहे हैं और हर साल भारत आते हैं. बिहार के गया शहर के ताबिश ने एक दर्जन किताबें भी लिखी हैं और कई पुरुस्कार भी उन्हें मिले हैं. कुछ दिनों पहले ही एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि डेनमार्क जैसी जगहें भारत जैसी जगहों से कहीं बेहतर हैं. इस की 4 बड़ी वजहें हैं जवाबदेही, पारदर्शिता, राजनीतिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण और एक सिविल सोसाइटी. ये चारों भारत में कमजोर हैं और हाल के सालों में हालात और भी खराब हुए हैं.
ताबिश कहते हैं, ‘‘हम 1975 में इंदिरा गांधी के दौर में पीछे गए और हम 2014 से पीछे जा रहे हैं. इस की कई समान वजहें हैं जिन में से प्रमुख है शीर्ष पर बैठे शख्स का कल्ट में बदलना, शासन व्यवस्था की बढ़ती फुजूलखर्ची, नौकरशाहों व व्यापारियों की सांठगांठ और संविधान की अनदेखी करना.
उपनिषद का सफेद ?ाठ
नरेंद्र मोदी के भाषणों में धर्म का जिक्र होना एक अनिवार्यता है. भारत में वे अकसर संस्कृत के श्लोकों को अपने भाषणों में शामिल करते हैं जो किसी धर्मग्रंथ से ही लिए गए होते हैं. इस से पब्लिक उन्हें विद्वान मान लेती है. डेनमार्क में उन्हें एहसास था कि शून्य फीसदी बेरोजगारी और सौ फीसदी साक्षरता वाले इस देश में धाक जमाने के लिए कोई ऐसी गूढ़ सी बात कहनी जरूरी है जिस से लोग उन की विद्वत्ता के कायल हो जाएं. वक्त का तकाजा यह भी था कि इस बात में भारत और डेनमार्क दोनों शामिल हों.
इस के मद्देनजर उन्होंने कहा, हम वे लोग हैं जो नदी को मां मानते हैं और पौधों में भी परमात्मा देखते हैं. इस गैरजरूरी और अप्रासंगिक वक्तव्य का वाजिब असर न पड़ते देख वे आध्यात्म के छज्जे से कूदते धर्म की जमीन पर आते बोले, कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी में नील्स बोर का नाम है, वे खुद की जरूरत के समय भारत के उपनिषद के पास आते थे.
विदेशों में भी बड़ी सफाई से नरेंद्र मोदी ?ाठ बोल जाते हैं जो किसी की सम?ा में नहीं आता. नील्स बोर भौतिकी के नामी वैज्ञानिक थे. उन के योगदान के चलते उन्हें 1922 में नोबेल पुरस्कार भी दिया गया था. वे भारत उपनिषद के पास आते थे (इस की जांचपड़ताल शायद ही कोई करे). डेनिशों से उन्होंने आग्रह किया कि आप भी अपनी समस्याओं के लिए भारत आइए. नील्स बोर अब दुनिया में नहीं हैं जिन के नजदीकी लोग मानते थे कि वे नास्तिक थे और चर्चों से भी उन्होंने नाता तोड़ लिया था.
यह सच है कि 1960 में नील्स बोर भारत आए थे लेकिन उन के किसी मठमंदिर में जा कर उपनिषद पढ़ने की बात सिरे से ?ाठी है. अब यह डेनिशों की जिम्मेदारी है कि वे खामोशी से यह मान लें कि नील्स बोर ने परमाणु संरचना और क्वांटम सिद्धांत पढ़ कर, रिसर्च कर और प्रयोगशालाओं में हाड़तोड़ मेहनत कर नहीं बल्कि उपनिषदों में कहीं पढ़ कर दिए थे.
जब भारतीयों के पास गिनाने को कुछ नहीं होता तो वे अपने धर्मग्रंथों का हवाला देने लगते हैं कि देखो, हम नदियों और पहाड़ों को भी पूजते हैं, हमारे यहां हजारों साल पहले कृत्रिम गर्भाधान की तकनीक थी. और तो और हम इतने उन्नत थे कि एक वक्त में बच्चा पैदा करने में हमें कोख की भी जरूरत नहीं पड़ती थी. हमारे यहां जमीन से बच्चे पैदा होते थे, शरीर के मैल से भी हो जाते थे, नाक से भी बच्चे होते थे और मेढक से भी पैदा होते थे.
डेनिशों को ये बेहूदगियां पूरे आत्मविश्वास और विस्तार से जानने को इंडिया जरूर आना चाहिए और अपनी संपन्नता व खुशहाली पर लानतें भेजनी चाहिए कि देखो, वे तो इन के मुकाबले अभी तक पिछड़े ही हैं. एक ये महान लोग हैं कि अपने मृत पूर्वजों को
ऊपर खाना, बिस्तर, रुपयापैसा और जूतेचप्पल तक पंडों के मार्फत भिजवा देते हैं. ऐसे कई प्रसंग डेनिशों का सिर शर्म और हीनता से ?ाका देंगे.
और हमारा सिर…
मान भी लिया जाए कि 6 मई के बाद मोदीजी की अपील पर कुछ डेनिश भारत आ जाते तो उन के साथ आया राष्ट्रदूत उन्हें क्या दिखाता और जो बिना दिखाए दिख जाता, उस से देश की इमेज कौड़ी भर की भी न रह जाती. इस वक्त आगरा में ताजमहल को ले कर विवाद और तनाव था. सनातनी कोर्ट के भीतर और बाहर हल्ला मचा रहे थे कि ताजमहल के 22 कमरों में हिंदू देवीदेवताओं की मूर्तियां हैं, इसलिए यह भी हमें सौंप दिया जाए. इस के कुछ दिनों पहले ही भगवा कपड़े पहने कई हिंदू संतमहंत कानून को ठेंगा दिखाते ताजमहल पर कब्जा करने की नीयत से पहुंच गए थे.
दिखाने को तो धार्मिक नगरी काशी भी थी जहां की ज्ञानवापी मसजिद को ले कर खासा बवंडर मचा हुआ था. वाराणसी पुलिस छावनी में तबदील थी. कोर्ट के आदेश पर यहां सर्वे चल रहा था. हिंदू संगठन मांग कर रहे थे कि ज्ञानवापी के भीतर मौजूद शृंगार गौरी की रोज पूजाअर्चना की इजाजत दी जाए. मुसलिम पक्ष इस बात पर अड़ा हुआ था कि उसे सर्वे पर एतराज नहीं है बल्कि इस बात पर आपत्ति है कि कोर्ट ने मसजिद के अंदर जा कर सर्वे करने को नहीं कहा है, लिहाजा, सर्वे टीम को अंदर दाखिल नहीं होने दिया जाएगा.
डेनिशों के सामने हमारा सिर हिमाचल प्रदेश के विधानसभा विवाद को ले कर भी ?ाकता जहां हाई अलर्ट था क्योंकि वहां खालिस्तान के ?ांडे लगा दिए गए थे. इस मसले को सुल?ाने के लिए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एक एसआईटी गठित कर दी थी. आलम यह था कि हिमाचल के बसअड्डों, रेलवे स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर पुलिस ही पुलिस थी जिस से पर्यटकों और स्थानीय लोगों में दहशत थी.
इन्हीं दिनों में राष्ट्रदूत अपने डेनिश मित्रों को यह भी बताता कि एक राज्य ?ारखंड की आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल के यहां से करोड़ों की नकदी बरामद हुई है जो घूसखोरी से ही इकट्ठा हो सकती है और एक तुम्हारा देश है जहां न सांप्रदायिक दंगे होते और न ही तुम लोग घूस का लेनदेन करते. ऐसी दर्जनों दिलचस्प घटनाओं से डेनिश रूबरू होते तो उन के दिमाग में भारत की क्या इमेज बनती, सहज सम?ा जा सकता है. नरेंद्र मोदी का न्यू इंडिया देख कर वे चमत्कृत रह जाते.
इमेज की चिंता किसे
जब देश की इमेज खराब होती है तब बड़ी परेशानी आम लोगों को भी होती है क्योंकि हकीकत होती कुछ और है और दिखाई कुछ और जाती है. इस से बड़ा नुकसान आम लोगों का आत्मविश्वास कम होना है जिस से उन की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है. हर कोई चाहता है कि उस के देश का सिर दुनिया में ऊंचा हो, लोग जरूरत से ज्यादा अभावों में न रहें और सब से बड़ी बात, देश में अमनचैन रहे.
यह सब दूरदूर तक नजर नहीं आ रहा है. उलटे, माहौल और बिगड़ता जा रहा है. इस के चलते लोग तरहतरह की आशंकाओं से घिरे रहते हैं. इसी वजह से हम खुशहाली के मामले में पिछड़ते रहे हैं. हीनता को श्रेष्ठता बताने से देश की इमेज बनती नहीं, बिगड़ती ही है और लोग बारबार बोले गए ?ाठ या अस्तित्वहीन बातों को ही सच मान तर्क तो दूर, आम बुद्धि का भी इस्तेमाल नहीं कर पाते.
इस ध्वस्त होती इमेज को ले कर कई लोग चिंतित हैं जिन में एक बड़ा नाम भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का है. उन्होंने एक कार्यक्रम में बड़ी पीड़ा के साथ कहा, ‘‘भारत की अल्पसंख्यक विरोधी इमेज से दुनियाभर में भारतीय बाजार का नुकसान हो रहा है.’’ बकौल रघुराम राजन, देश की छवि का असर उपभोक्ताओं के साथसाथ दूसरे देशों की सरकारों पर भी पड़ता है. उन्होंने इस का सटीक उदाहरण देते हुए बताया
कि यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमीर जेलेंस्की को अपने देश की रक्षा के लिए खड़े व्यक्ति के रूप में देखा जाता है. यही वजह है कि दुनियाभर के देश यूक्रेन का साथ देने से पीछे नहीं हट रहे जबकि कुछ देश रूस के साथ व्यापार करने में लगे हैं.
ऐसे हुई छवि धूमिल
यह कोई इत्तफाक की बात नहीं थी कि फ्रांस से डेनमार्क पहुंचने के ठीक पहले 3 मई को प्रैस स्वतंत्रता दिवस वाले दिन आरएसएफ (रिपोर्ट्स सैंस फ्रंटियर्स) द्वारा जारी प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग 180 देशों में 150वें नंबर पर थी जबकि डेनमार्क की ऊपर से चौथे नंबर पर थी. पिछले साल भारत 142वें नंबर पर था, यानी एक साल में वह 8 पायदान नीचे खिसका. देश की दरकती इमेज की और वजहें भी हैं. इन पर दुनियाभर की नजर थी. आइए कुछ ताजा घटनाओं और हादसों पर सरसरी नजर डालें जिन्होंने छवि धूमिल की-
ईद और रामनवमी के त्योहारों पर हुई व्यापक हिंसा खासतौर से मध्य प्रदेश के पिछड़े जिले खरगौन की हिंसा, जिस में कई कथित आरोपी मुसलमानों के घर बुलडोजर से ढहा दिए गए. सांप्रदायिक हिंसा राजस्थान के जोधपुर में भी एक खंडहरनुमा मंदिर को ढहाने के बाद हुई.
गुजरात के निर्दलीय दलित विधायक जिग्नेश मेवानी की गिरफ्तारी और कोर्ट द्वारा उन्हें जमानत देने के बाद फिर से गिरफ्तारी.
सीबीआई द्वारा मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली नोबेल पुरस्कार प्राप्त संस्था एमनेस्टी इंटरनैशनल के भारतीय अध्यक्ष आकार पटेल के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी कर उन्हें विदेश यात्रा से रोका जाना. यहां गौरतलब है कि एमनेस्टी की संपत्ति को सितंबर 2020 में मोदी सरकार द्वारा जब्त कर उसे भारत से खदेड़ दिया गया था.
एमनेस्टी ने कहा था कि विरोधी आवाजों के लिए जगह संकुचित कर भारतीय अधिकारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मजाक बना रहे हैं. अधिकारियों के आलोचकों के खिलाफ उन का लगातार विच हंट भारत के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों और संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद के सदस्य के रूप में उस की भूमिका को पूरी तरह खंडित करता है.
मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में 3 आदिवासियों को इस शक की बिना पर बजरंग दल के लोगों द्वारा पीटपीट कर मार डाला गया कि वे कथित रूप से गौमांस ले जा रहे थे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि पिछले 2 सालों में भारत में कोरोना से 47 लाख मौतें हुई हैं जबकि सरकारी आंकड़ा मात्र 4 लाख 80 हजार के लगभग है यानी सरकार हकीकत छिपा रही है जिस से उस की बदनामी न हो.
पंजाब के पटियाला में खालिस्तानविरोधी मार्च को ले कर 2 समूहों के बीच हिंसा के बाद इंटरनैट सेवाएं बंद, हिंसा भड़काने के आरोप में 2 सप्ताह बाद एक भाजपा नेता तेजिंदर पाल बग्गा गिरफ्तार और फिर रिहा भी.
इन और ऐसी तमाम घटनाओं में सरकार की भूमिका संदिग्ध है. अब छिटपुट ही सही, देश के बाहर से भी भारत को ले कर चिंता जताई जाने लगी है कि आखिर यहां हो क्या रहा है और क्यों राष्ट्रवादियों को शह दी जा रही है. यह कोई राज की बात नहीं है कि भगवा गैंग हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए अपने पर उतारू है और इस के लिए वह लोकतंत्र व संविधान की बलि देने को तैयार है. अखंड भारत का नारा कहीं देश के और खंड न कर दे, इस की चिंता होना स्वाभाविक बात है लेकिन चिंता व्यक्त करने वालों को ही राष्ट्रद्रोही करार दे दिया जाए तो जाहिर है यह तानाशाही का अभिजात्य रूप है.