गंदगी से बजबजाते एक शहर में पिछले दिनों कूड़े के बेहतर निबटान की एक स्कीम चली थी. इस में एक प्राइवेट कंपनी व सरकार के बीच हुए करार के तहत घरों से एक रुपए रोज ले कर कूड़ा उठाना था. उन से कंपोस्ट खाद, बिजली, ग्रीन कोल, गत्ता व प्लास्टिक दाना बनाया जाना था. स्कीम अच्छी थी. सो, नागरिकों ने तो खुशी से अपना सहयोग दिया, लेकिन आखिर में कुछ नहीं हुआ. कड़े पहाड़ बनते चले गए. कागजों पर बनी योजनाएं कागजों पर रह गईं. योजना बनाने वालों को जमीनी हकीकत मालूम ही न थी.

साफसफाई के मकसद से शुरू हुआ यह मिशन स्वच्छ शौचालय मिशन की तरह फेल हो गया. यह भी उसी तरह रुक गया जैसे फुजूल की स्कीमों से बहुत से काम बंद हो जाते हैं. साफसफाई ही क्या, हमारे देश में सुधार के लिए कोई भी नया काम आसानी से पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि कोई भी काम करना गुनाह समझता है. सब अपनेअपने स्वार्थ के लिए लोगों को भड़काने लगते हैं.

गंदगी के पहाड़

मैट्रो रेल, मौल्स, फ्लाईओवर व ऊंची इमारतें तेजी से बढ़ी हैं. मोबाइल फोन व कंप्यूटर बढ़े हैं. लोगों की तालीम व आमदनी भी बढ़ी है, लेकिन साफसफाई के मोरचे पर पिछड़ापन अभी बाकी है. गंदगी के अंधेरे में सफाई के चिराग जुगनू सरीखे लगते हैं. महानगरों की सड़कों, कोठीबंगलों व पौश कालोनियों को छोड़ कर देश के ज्यादातर इलाकों में भयंकर गंदगी है.

रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, सिनेमाहौल, पार्क, सार्वजनिक शौचालय, पेशाबघरों आदि का बुरा हाल है. गांवशहरों की गलियां, नालियां, रास्ते व रेल की पटरियां गंदगी से अटी पड़ी हैं. जहांतहां कूड़े, कचरे के ढेर लगे रहते हैं.

लापरवाही, निकम्मापन, जहालत व जानकारी की कमी गंदगी के कई कारण हैं. मनमानी कर के गंदगी फैलाने को लोग अपना हक समझते हैं. ज्यादातर लोग सिर्फ दूसरों से उम्मीद करते हैं. वे सफाई कर्मचारियों व नगरपालिका को कोसते हैं. आबादी का बड़ा हिस्सा बेपढ़ा व सेहत के मामले में जागरूक नहीं हैं. सो ज्यादातर लोग साफसफाई को तरजीह, तवज्जुह नहीं देते. किसी भी शहर के मुहाने को देख लीजिए. दूरदूर तक धूल, कीचड़, मैला व गंदगी पसरी दिखाई देती है.

कारण

अमीर मुल्कों में गंदगी फैलाने पर सख्त जुर्माना होता है. सो, वहां सब चौकस रहते हैं. लेकिन हमारे देश में राजकाज चलाने वालों को ऐसी बातें फुजूल लगती हैं. यहां ज्यादातर सरकारी दफ्तरों का बुरा हाल है. इस में दोष ओहदेदारों का भी है. भले ही विदेशियों के सामने उन की गरदन शर्म से झुके, लेकिन वे साफसफाई के लिए सख्त कायदेकानून नहीं बनाते. गरीबों के लिए घरों का सही इंतजाम नहीं करते. ऐसे में गंदगी का अंधेरा ले कर झुग्गीझोपड़ियों का सैलाब बढ़ता है.

लोग बेखोफ हो कर अपने घरों, दफ्तरों व कारखानों का कचरा कहीं भी फेंक देते हैं. ठीक से कचरे का निबटारा नहीं करते, क्योंकि ज्यादातर लोग तो कूड़े के बेहतर निबटान की तकनीक व तरीकों से ही नावाकिफ हैं. नतीजतन, नालियां व नाले पौलिथीन व कचड़े आदि से अटे पड़े रहते हैं. लोग गंदगी में रहने, जीने व खाने तक से परहेज नहीं करते. धार्मिक अंधविश्वासों ने इस आग में घी का काम किया है. वैसे, गंदगी तो सदियों से हमारे समाज में है. वहीं, बहुत से लोग गंदी आदतों के शिकार हैं.

ज्यादातर लोग खुद गंदे रहते हैं. अपना घर व आसपास का माहौल गंदा रखते हैं. पूजापाठ का सामान, मुर्दे, राख व मूर्तियां आदि बहा कर नदियों को गंदा करते हैं. भीड़भाड़ वाली जगहों खासकर मंदिर, मेले व तीर्थस्थानों आदि का तो इतना बहुरा हाल रहता है कि देख कर भी घिन्न आती है, क्योंकि जानवरों व इंसानों में ज्यादा फर्क नहीं दिखता. हमारी सोच ही गंदी है. जब दिमागों में ही गंदगी होगी तो बाहर साफसफाई कैसे व किसे रास आएगी?

बेअक्ली

बाल व नाखून बढ़ाना, धूनी रमाना, बदन पर राख मलना, गंदीगंदी गालियां देना, गंद नहीं तो और क्या है? ये सब हमारी उसी संस्कृति के हिस्से रहे हैं, जिस के हम आज भी गुणगान गाते हुए नहीं अघाते. गंदे रीतिरिवाजों की वजह से हमारे देश के बहुत से लोग आज भी गंदगीपसंद हैं. वे जागरूक नहीं हैं. वे साफसुथरे ढंग से रहने या सफाई आदि करने की परवा ही नहीं करते. क्योंकि गंदगी तो हमारी जिंदगी में रचीबसी व जेहनियत में भरी हुई है.

खुद साफसुथरे रहने या अपने आसपास साफसफाई रखने का ख़याल पहले दिलोदिमाग में आता है. तभी तो हमारे कामधाम व रहनसहन में सफाई झलकती है. तभी हम गंदगी से बच कर सफाई को तरजीह देते हैं. लेकिन हमारे देश में तो ज्यादातर लोग गंदा रहने व गंदगी करने के आदी हैं. पानगुटखा खाने वाले वाहन चलाते हुए ही पीक मार देते हैं. जहां चाहा थूक दिया, मूत दिया. जहां मन किया खुले में फारिग हो लिए. जब ऐसी बातों पर नकेल नहीं होती तो फिर गंदगी तो बढ़ेगी ही. हालांकि साफसुथरे रहना मंहगा, मुश्किल या नामुमकिन नहीं है.

फिर भी ज्यादातर लोग सफाई पर ध्यान नहीं देते, नशेड़ी, भिखारी, मिस्त्री, कारीगर, हलवाई, ठेले, खोमचे व रिकशा वाले आदि बेहद गंदे रहते हैं. ऐसे आलसी बहुत हैं जो कई दिनों तक नहीं नहाते, दाढ़ीबाल नहीं कटाते, दांत नहीं मांजते, कपड़े धोने, बदलने की जहमत नहीं उठाते. इस वजह से उन के बदन व कपड़ों पर मैल दिखता है. पास आने से बदबू आती है, लेकिन फिर भी वे जरा नहीं शरमाते. यह सच है कि इंसान यदि चाहे तो मामूली सा धन खर्च कर के भी साफसुथरा रहा जा सकता है.

जातिवाद

हमारे देश में खूब उलटबांसियां देखने को मिलती हैं. मसलन, लोगों को गंदा रहने या गंदगी फैलाने में जरा शर्म नहीं आती और उन्हें खुद साफसफाई करना हिमाकत लगती है. सदियों से चला आ रहा जातिवाद का जहर उस की बड़ी वजह है. खासकर अगड़े, अमीर व पंडेपुजारी साफसफाई करने को नीची जाति वालों का काम समझते हैं. सफाई करने वालों को शूद्र समझते हैं: अपने मतलब के लिए उन्हें नहाने, धोने व साफसुथरा रहने से रोक कर गंदा बने रहने के लिए मजबूर करते हैं. सो, हमारी आबादी के बड़े हिस्से को गंदा रहने की आदत पड़ चुकी है.

हम अपने धर्म व संस्कृति की शान में कितने ही कसीदे क्यों न काढ़ें, लेकिन जातिप्रथा उसी की देन है. पंडेपुजारी बिना करेधरे मौज उड़ाते हैं. ऊपर से लोगों को यही समझाते व बताते हैं कि ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सब के दाता राम.’ ज्यादातर लोग भगवान को अपना सबकुछ मान कर काम को हाथ नहीं लगाते. वे इतने निकम्मे हो जाते हैं कि उन्हें खुद गंदा रहना बुरा रहना बेजा नहीं लगता. गंदगी को बनाए रखने व गंदगी करने में उन्हें अफसोस नहीं होता. सो, जहांतहां गंदगी के अंबार दिखाई देते हैं.

नुकसान

गंदगी से इंसान, समाज व पूरे देश का बहुत नुकसान होता है. गंदगी एक बदनुमा दाग, गंभीर समस्या व तरक्की के रास्ते में बड़ी रुकावट है. यह हमारे समाज का कोढ़ व बदहाली की जड़ है. गंदगी की वजह से भी बहुत सी बीमारियां फैलती हैं: जिन के बेवजह इलाज में धन जाया होता है. गुरबत बढ़ती है. गंदगी में रहने से कमजोरी, दिमागी परेशानी व तनाव बढ़ता है. गंदे बने रहने से काम करने व कमाने की कूवत घटती है. भयंकर गंदगी देख कर बहुत से सैलानी भारत घूमने की हिम्मत नहीं कर पाते. सो, गंदगी को जड़ से दूर करना बेहद जरूरी है.

यदि हर देशवासी अपने आसपास थोड़ी सी भी कोशिश करे तो यह मसला हल हो सकता है. कूड़ेकचरे का बेहतर निबटान, पुरानी कुप्रथाओं का खात्मा तथा गंदगी वाली जगहों पर फूलों की खेती कर के अपने देश को चमन बनाया जा सकता है. कई इलाकों में ऐसा हुआ भी है. मुफ्त जमीन, छूट व ईनाम आदि की सहूलियतें दे कर सरकार सफाई को बढ़ावा दे सकती है.

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