कारोबार की निरंतरता बनी रहे, इस के लिए विशेष सावधानियों की जरूरत होती है. लोग इस के लिए बीमा भी कराते हैं. हर बीमा फायदा दे, जरूरी नहीं, इसलिए बीमा कराते हुए उस के टर्म्स एंड कंडीशंस पर ध्यान देना जरूरी रहता है.

कोविड महामारी के चलते

2 साल के दौरान लाखों लोग हताहत हुए और पूरी दुनिया इस का कहर सहती रही. वहीं, इन घटनाओं ने बीमे की जरूरत और महत्त्व को उजागर कर दिया है. कोविड के कारण हजारों व्यवसाय महीनों बंद रहे. इस दौरान उत्पादन नहीं हो सका. सुचारु रूप से काम होने में महीनों लगे. हजारों लोग बीमारियों में मारे गए. कंपनियों को व्यापार में हुए घाटे की भरपाई नहीं हुई.

हां, यदि एक विशेष बीमा लोगों ने कराया होता तो शायद उसे बीमा कंपनी द्वारा भरपाई मिल सकती थी. इस बीमा का नाम है- व्यापार व्यवधान (बिजनैस इंटरेप्शन) बीमा. संक्षेप में इसे ‘बीआई बीमा’ कहा जाता है.

इस दौरान लाखों मजदूर अपने काम की जगह छोड़ कर अपने निवास स्थान बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर आदि जहां के वे मूल निवासी थे चले गए. इस बीमारी ने एक भय की हवा भी फैला दी थी. पलायन की इस व्यापक घटना की बदौलत लाखों व्यापार ठप हो गए क्योंकि गए कर्मचारी लौटने को तैयार न थे. नए कामगार नियुक्त हुए.

इस दौरान हर व्यवसाय या कारोबार में हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति व्यवसाय मालिकों को नहीं मिल सकती. कारण, उन्होंने बीआई बीमा नहीं कराया था. ऐसे सैकड़ों दृष्टांत मिल जाएंगे आप को

जहां होटल, कारखाने, कार्यालय, अन्य व्यवसाय आदि में कामकाज में किसी न किसी वजह से रुकावट आती है और उत्पादन या कार्य निष्पादन में कमी होने की वजह से नुकसान उठाना पड़ता है. इस नुकसान की कोई पूर्ति नहीं होती क्योंकि जानकारी के अभाव में बीआई बीमा नहीं कराया गया होता. कोविड के अलावा और भी तरह के नुकसान हो सकते हैं.

क्या है बीआई बीमा

बीआई बीमा से तात्पर्य उस बीमा से है जो व्यवसाय में संलग्न कंपनी या संस्थान को किसी रुकावट की वजह से उत्पादन में कमी या घाटे के प्रति संरक्षण प्रदान करता है. दरअसल कारखानों में उत्पादन के क्रम में या कारोबार में हानि का हिस्सा बांटने के उद्देश्य से पहली बार वर्ष 1797 में यूरोप में ‘लौस औफ प्रौफिट’ चलन में आया और यही आधार है बीआई बीमा की शुरुआत का.

इस बीमे में सतत सतर्कता की आवश्यकता होती है, क्योंकि आपदा आने के बाद उसे टाला नहीं जा सकता. यह बीमा प्रौपर्टी क्षति बीमा से सीधेसीधे जुड़ा है एवं कई बार इसे परिणामी क्षति या ‘लौस औफ प्रौफिट’ भी कहा जाता है.

कारोबार की निरंतरता बनी रहे, यही इस बीमे का मकसद है. नाम से स्पष्ट है, बीमा उस नुकसान या हानि को कवर करता है जिसे कोई बिजनैस आपदा या संकट के बाद झेलने को मजबूर होता है. सवाल उठना लाजिमी है कि फिर यह किस प्रकार प्रौपर्टी या संपत्ति बीमा से अलग है क्योंकि आमतौर पर व्यवसायी या उत्पादक अपनी प्रौपर्टी का ही बीमा कराते हैं.

दरअसल, जहां प्रौपर्टी बीमा सिर्फ संपत्ति की भौतिक क्षति की भरपाई करता है, वहीं बीआई बीमा कारोबार में लाभ में हुई कमी या नुकसान को भी कवर करता है. अर्थात कोई भी कारोबार या व्यवसाय संकट के पूर्व जिस स्थिति में था, संकट या विपत्ति के उपरांत भी वह उसी स्थिति में रहे, इसे सुनिश्चित करना ही इस बीमे की जरूरत है.

गौरतलब है यह बीमा अलग से नहीं दिया जाता बल्कि प्रौपर्टी बीमा या व्यापक (कंप्रिहैंसिव) पैकेज बीमा के साथ जारी होता है. एक ही कार्यालय से दोनों पौलिसियां ली जानी अनिवार्य हैं.

एक उदाहरण लीजिए. किसी संकट के आ पड़ने पर कोई व्यवसाय तात्कालिक रूप से पूरी तरह ठप हो जाता है. कारण परिसर या फैक्ट्री आदि की मरम्मत एवं उसे फिर से प्रचलन के अनुरूप लाने में वक्त लगता है. कई बार अस्थायी रूप से परिसर को बदलने की भी जरूरत होती है. ऐसे में बीआई बीमा सहारा बनता है क्योंकि संपत्ति आदि के नुकसान की पूर्ति के लिए तो प्रौपर्टी बीमा कराया ही जाता है, जिस में प्रौपर्टी का फायर बीमा होता है लेकिन कारोबार के ठप रहते हुए जो लाभ प्राप्त नहीं हो सका, उस का क्या? उस की ही भरपाई यह बीमा करता है. अमूमन हर व्यवसायी अपना व्यवसाय शुरू करने से पहले प्रौपर्टी बीमा करवाता है. परंतु गिनेचुने कारोबारी ही बीआई बीमा लेने के बारे में सोचते हैं. बीमा एजेंट आमतौर पर 2-4 उदाहरणों से इस महंगे इंश्योरैंस को बेचते हैं.

मुंबई के अंधेरी इलाके में रहने वाले आलोक शंकर ने 4 साल पूर्व कपड़ा निर्यात करने की कंपनी खोली. चूंकि आलोक बीमा में सर्वेयर के रूप में काम करते रहे हैं, इसलिए उन्हें अलगअलग प्रकार के बीमों की जानकारी है. उन्होंने कंपनी खोलने के साथ ही उस का बीआई बीमा करवा लिया.

2 वर्षों तक तो सब ठीकठाक चलता रहा, लेकिन डेढ़ वर्ष पूर्व कंपनी के कार्मिकों ने 23 दिनों तक कामकाज बंद रखा. कारोबार बंद रहने से उन्हें काफी आर्थिक क्षति हुई, लेकिन बीमा कंपनी ने उन्हें कुल आर्थिक क्षति का करीब

70 फीसदी अदा कर दिया. अब उन की देखादेखी उन के कई चिरपरिचित कारोबारियों ने भी ‘बीआई बीमा’ संरक्षण लेना प्रारंभ कर दिया है.

कोविड, बाढ़, आग में कितनों को प्रौपर्टी लौस या प्रौफिट लौस का क्लेम मिला, इस के आंकड़े कभीकभी ही जारी होते हैं. बैंक और इंश्योरैंस कंपनियां मिल कर पैसा कमाने का साधन इस बीमा को बनाते हैं.

प्रीमियम कितना और क्लेम कितना

प्रीमियम नुकसान की प्रकृति पर निर्भर करता है. जैसे, रैस्तरां के लिए प्रीमियम रियल एस्टेट एजेंसी की अपेक्षा अधिक होगा. कारण, वहां आग संबंधी जोखिम ज्यादा है. संकट के बाद रियल एस्टेट एजेंसी को अन्य लोकेशन पर फिर शुरू करना अधिक आसान है, जबकि आग लगने के उपरांत रैस्तरां को फिर ग्राहकों के लिए खोलना कठिन. उसे नए लोकेशन पर ले जाना भी टेढ़ी खीर है.

कारण, बनेबनाए ग्राहकों के बिखरने का अंदेशा रहता है. सो, रैस्तरां के लिए प्रीमियम रियल एस्टेट एजेंसी की तुलना में थोड़ा ज्यादा होता है. प्रति लाख रुपए के बीमे के लिए 1,200 रुपए से 2,250 रुपए तक प्रीमियम हो सकता है. प्रीमियम निर्धारण के वक्त विगत 2-3 सालों का वार्षिक लेखा भी देखा जाता है. साथ ही, पौलिसी जारी करने से पूर्व कंपनी की ओर से व्यवसाय स्थल का निरीक्षण करना भी जरूरी होता है.

क्लेम संकट के बाद उस अवधि तक के लिए देय होता है जब तक कि आप के कारोबार का टर्नओवर सामान्य नहीं हो जाता. हां, दावा देते वक्त कंपनियां

7 दिनों का सकल लाभ (ग्रौस प्रौफिट) दावा राशि से काट लेती हैं जो अनिवार्य कटौती है. व्यवधान अवधि के दौरान बिजनैस को सुचारु रूप से चलाने के एवज में खर्च हुई किसी भी अन्य राशि का आमतौर पर भुगतान नहीं किया जाता और कई तरह की कटौतियां क्लेम अफसर से ले कर ऊपर तक के अधिकारी करना शुरू कर सकते हैं.

बिजनैस शुरू करना चाह रहे हैं या कोई फैक्ट्री लगाने के बारे में निर्णय लेने वाले हैं, जो भी फैसला लें लेकिन उस पर अमल करने से पूर्व इस की तसल्ली जरूर कर लें कि आप ने अपने नए कारोबार के लिए पर्याप्त बीमा कवरेज लेने का मन बनाया है अथवा नहीं. और फिर, यदि आप को कारोबार में किसी भी प्रकार की अनहोनी या नुकसान होने का अंदेशा हो तो संपत्ति, व्यक्तिगत दुर्घटना, चोरीडकैती, प्राकृतिक विपदा आदि जैसी प्रचलित बीमा पौलिसियां तो लें ही, बीआई बीमा पौलिसी बेचने वालों से होशियारी से ही व्यवहार करें.

कानून इस बारे में इंश्योरैंस कंपनियों का साथ देता है. बीमा कराते समय सैकड़ों धाराओं वाला अनुबंध पढ़ना हरेक के बस का नहीं होता. जो इसे पढ़ने की मेहनत करे और विसंगतियों को एजेंट को बताए तो भी कंपनी इन में बदलाव नहीं करती. वे दूसरे क्लाइंट की तलाश में लग जाते हैं.

इंश्योरैंस का नाम प्रचलित है कि इस के नाम पर कुछ भी बेचा जा सकता है. इस तरह रहेसहे इंश्योरैंस किसी भगवान को चढ़ावा चढ़ाने के बराबर का सा होता है. किसी 2-4 को चढ़ावे के बाद फायदा हो भी जाता है पर ज्यादातर कष्ट ही भोगते रहते हैं.

इस का प्रीमियम काफी ज्यादा होता है. यदि वर्षों तक कुछ नहीं होता तो लोगों को भारी पड़ने लगता है. अब कुछ घटना घट जाए तो इंश्योरैंस कंपनियां अपनी नीतियों को आगे कर के इस का मुआवजा देने में आनाकानी करती हैं पर बैंक लोन लेने में यह काफी काम आता है.

बहुत थोड़े से मामलों में ही कोविड के कारण हुए नुकसान को कंपनियों ने भरा है, वह भी लंबी जद्दोजेहद के बाद. इसलिए आकर्षक दिखने के बावजूद यह बहुत लोकप्रिय नहीं है. इंश्योरैंस कंपनियों का तर्क था कि इस का क्लेम तब मिलेगा जब प्रौपर्टी या बिजनैस के फिजिकल नुकसान हों. कुछ मामले आज भी अदालतों में चल रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में 10-15 साल बाद अंतिम फैसले देता है.

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