निश्चित तौर पर प्रदीप मेहरा की मेहनत अद्भुत है. उस का आत्मविश्वास और संघर्ष आश्चर्यजनक है, पर प्रदीप की इस मेहनत पर टीवी जिस तरह टीआरपी की होड़ मचा कर जरूरत से ज्यादा एक्सपोजर दे रहा है, उस से प्रदीप जैसे युवाओं के सपने चकनाचूर न हो जाएं.

‘‘अभी से पांव के छाले न देखो,

अभी यारो, सफर की इब्तिदा है.’’

यह शेर मशहूर शायर एजाद रहमानी ने लिखा था, पर आज लगता है यह प्रदीप मेहरा जैसे नवयुवकों के लिए लिखा गया है. 19 साल का प्रदीप आर्मी की तैयारी के लिए आधी रात को नोएडा की सड़कों पर दौड़ रहा था. यह दौड़ उस के लक्ष्य की थी. उस की अपनी थी. लेकिन जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुई तो एक अजीब सी सेंधमारी इस दौड़ पर टीवी चैनलों की तरफ से देखने को मिली, जिस पर बात बाद में की जाएगी, पहले बात प्रदीप की.

19 साल के प्रदीप मेहरा ने इस देश के नेताओं, मीडिया और सम झदार लोगों को अपनी उस सचाई से रूबरू कराया है जिसे ये सब मिल कर जोश, हिम्मत, जज्बे और लगन जैसे फरेबी शब्दों से ढक देना चाहते हैं, क्योंकि प्रदीप मेहरा की यह दौड़ उच्चवर्ग से पलेपढ़े युवाओं की तरह हिम्मत या जज्बा साबित करने की नहीं है, बल्कि खुद के सर्वाइवल की है.

हम किस प्रदीप की बात कर रहे हैं? हौसले और जनूनी वाले प्रदीप की बात तो बिलकुल भी नहीं. एक 19 साल की कच्ची उम्र का लड़का जिस के सिर इतनी छोटी उम्र में परिवार के भरणपोषण की जिम्मेदारी आ गई है, जो पढ़ाई करने की जगह मैकडोनल्ड में आधीआधी रात तक नौकरी कर रहा है, जो दोस्तों के साथ खेलकूद की जगह अमीरों के सामान का बो झा लिए यहांवहां डिलीवरी का काम कर रहा है, वह किसी भी हाल में हौसले व जनूनी वाला नहीं बल्कि मजबूर कहलाया जाना चाहिए. लेकिन लोगों की मजबूरियों को और उन की कठिनाइयों को सड़ागला समाज अपने हिसाब से पेश करता आया है, ताकि इन हालात के पीछे उन की जवाबदेही न मांग ली जाए. लेकिन चूंकि बात निकल गई है तो इस पर कुछ सवाल तो जरूर बनेंगे ही, चाहे सारी दुनिया एक रट लगाए हो.

वायरल हुआ वीडियो

सोशल मीडिया से ले कर टीवी चैनल तक में हर तरफ दौड़ते हुए प्रदीप मेहरा की चर्चा हो रही है. प्रदीप मेहरा का यह वीडियो घूमफिर कर सब के पास आया भी होगा. वीडियो फिल्ममेकर विनोद कापड़ी द्वारा शूट किए गए नोएडा की सड़कों पर दौड़ लगाते उत्तराखंड के रहने वाले 19 वर्षीय प्रदीप मेहरा का है.

20 मार्च को विनोद कापड़ी ने अपने ट्विटर अकाउंट से 2 मिनट 20 सैकंड की एक वीडियो क्लिप पोस्ट की थी. इस वीडियो में प्रदीप कंधे पर बैग टांगे रोड के किनारे तेजी से दौड़ रहा था. वह पसीने से भीगा हुआ था. मेहनत उस के चेहरे से टपक रही थी.

यह वीडियो सोशल मीडिया से ले कर नोएडा स्थित फिल्मसिटी के न्यूज स्टूडियो तक में छाया हुआ है. हर तरफ इस वीडियो की बात हो रही है, प्रदीप के लगन और जज्बे की चर्चा हो रही है. इस वायरल वीडियो से जुड़े कुछ अहम सवालों पर हम आगे बात करेंगे लेकिन उस से पहले यह सम िझए कि आखिर इस लड़के का यह वीडियो इतना वायरल क्यों हो रहा है?

प्रदीप की दौड़

दरअसल, विनोद कापड़ी ने जब वीडियो शूट किया था तब उन्होंने प्रदीप से कुछ सवाल किए थे. प्रदीप से पूछा गया कि तुम दौड़ते हुए क्यों जा रहे हो? तो युवक ने कहा, ‘मैं रोज दौड़ लगा कर ही जाता हूं.’ दौड़ने की वजह पूछी तो पता चला वह आर्मी में भरती होने के लिए रोज इसी तरह औफिस से घर तकरीबन 10 किलोमीटर दौड़ लगाता है. वीडियो में उस ने अपनी मां की खराब सेहत और नौकरी करने के कारण के बारे में भी बताया. यह वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया में आया, मात्र 24 घंटे में वायरल हो गया. देशविदेश से लोग प्रदीप की मेहनत को सलाम करने लगे.

दरअसल, प्रदीप इंडियन आर्मी में बतौर सिपाही भरती होना चाहता है लेकिन घर की आर्थिक तंगी ने उसे उस के होमटाउन अल्मोड़ा से नोएडा तकरीबन साढ़े तीन सौ किलोमीटर ला खड़ा किया है. प्रदीप बताता है कि वह नोएडा में अपने बड़े भाई के साथ रहता है. आर्मी में जाना उस का लक्ष्य है पर घर चलाने के लिए उसे काम करना पड़ रहा है.

जौब करते हुए तैयारी के लिए समय मिल नहीं पाता, क्योंकि रोज सुबह उठ कर खाना भी बनाना होता है और जल्दी जौब साइट पर पहुंचना भी होता है. इस कारण उसे तैयारी का समय नहीं मिल पाता. इसलिए रात को शिफ्ट पूरी होने के बाद घर वापस लौटते वक्त वह नोएडा सैक्टर 16 से बुराला तक 10 किलोमीटर दौड़ता है.

बुधिया न बन जाए प्रदीप

वीडियो के वायरल होने के बाद मीडिया में प्रदीप को स्टूडियो में बुलाया जा रहा है. उस का इंटरव्यू किया जा रहा है. चलो बुलाना, बातविचार करना एक तरफ, पर जिन हालात में वह अपनी जिंदगी जी रहा है, जिन कठिनाइयों को उसे सहना पड़ रहा है, उस की तह में जाने की जगह उसे स्टूडियो के भीतर ही भगाया जाना या सड़क पर दौड़ते हुए उस के पीछे गाड़ी ले जाने से, उस के या उस जैसे बाकी युवाओं के जीवन में कौन से बदलाव आने वाले हैं?

आनंद महिंद्रा जैसे उद्योगपति या अन्य खातेपीते लोगों का तबका उसे आत्मनिर्भर बता रहा है लेकिन कोई यह सवाल नहीं पूछ रहा कि आखिर प्रदीप जैसे लाखों युवाओं को नौकरी कब मिलेगी? सवाल बनता है कि आखिर क्यों प्रदीप जैसे युवाओं की मजबूरियों को हिम्मत का नाम दिया जा रहा है?

जाहिर है, ऐसा कर के ये लोग प्रदीप जैसे युवाओं की दिक्कतों को सुल झाने की जगह उन के दिमाग में यह बात आसानी से घुसाने की कोशिश कर रहे हैं कि तुम्हारी दिक्कतों का कारण तुम खुद ही हो. तुम्हारी गरीबी, पिछड़ेपन, बेरोजगारी का कारण तुम खुद ही हो, इस के लिए तुम्हें ही अतिविशिष्ट लगन, जोश, जनून और जज्बा लाना होगा.

कोई यह नहीं पूछ रहा कि आखिरकार देश के युवाओं को यों लाचार क्यों होना पड़ रहा है? कोई यह सवाल भी नहीं पूछ रहा कि हर साल 2 करोड़ रोजगार देने वाले कहां हैं? सरकारी नौकरियों का बंटाधार क्यों हुआ पड़ा है? क्यों छात्र समय पर एग्जाम होने को ले कर आवाज उठा रहे हैं और लाठीडंडा खा रहे हैं. आखिर क्यों प्रदीप को बेरोजगारी के सवाल से न जोड़ा जाए?

उत्तराखंड में जिस दौरान भरती प्रक्रिया शुरू होती है, तब के हालात देखने वाले होते हैं. हजारों की संख्या में युवा आर्मी की नौकरी के लिए आते हैं. उन युवाओं की संख्या इतनी होती है कि कई बार भगदड़ जैसी नौबत आ जाती है. कई बार भीड़ को संभालने के लिए लाठीडंडों का इस्तेमाल करना पड़ जाता है. उन युवाओं का सवाल क्या प्रदीप के बहाने उठाने का फर्ज इस मीडिया का नहीं था? जाहिर है देश में सिर्फ जज्बा, लगन, हिम्मत पर ही नहीं बल्कि बेरोजगारी पर भी बड़ी चर्चा होनी चाहिए.

निश्चित तौर पर प्रदीप मेहरा की मेहनत की कहानी अद्भुत है. उस का आत्मविश्वास और संघर्ष आश्चर्यजनक है, पर प्रदीप की इस मेहनत पर टीवी वाले जिस तरह टीआरपी बटोर रहे हैं और सोशल मीडिया एंफ्लुएंसर फौलोअर्स बटोरने की होड़ में हैं उस से प्रदीप के जीवन में मूल बदलाव आने की जगह, जरूरत से ज्यादा मिला यह एक्सपोजर कहीं उस के सपने को ही चकनाचूर न कर दे.

हम ने पहले भी देखा है, इस मीडिया को अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए समयसमय पर बुधिया और प्रदीप जैसे लोग भाते हैं, जिन की कहानी पेश कर उन का अपना धंधा चलाया जा सके. वे इन्हें लाते हैं ताकि युवाओं में नौकरियों की निराशा को दूर किया जा सके, सवाल है कि आखिर क्या हुआ बुधिया का? 2007 में चमका वह काबिल लड़का, जिस ने मात्र 7 घंटे में 65 किलोमीटर दौड़ लगाई, आखिर कौन सी गुमनामी में खो गया. वह आगे क्यों नहीं बढ़ा. उस पर फिल्म बनाने वाले निर्देशक, लेखक, ऐक्टर अपना पैसा बनाया और चल पड़े. मीडिया टीआरपी ले गया. लेकिन बुधिया, वह कहां गया.

असल यह है कि हिम्मत और जज्बे के नाम पर सिर्फ यहां कहानी बेचीखरीदी जा रही है, जो उन दिक्कतों से जू झ रहा है उन के हल नहीं खोजे जा रहे.

फिर अमीरों के बच्चे क्यों नहीं हिम्मत वीर

जिस आर्थिक पृष्ठभूमि से प्रदीप जैसा युवा आया है वह सलाम करने योग्य बनता है, मसलन भारत में इस उम्र की इस दहलीज में जो भी युवा कठिनाइयों से लड़भिड़ कर आ रहे हैं वे प्रदीप के परिश्रम से प्रेरणा ले रहे हैं, हालांकि उन के लिए प्रदीप की कहानी बहुत हद तक उन से अलग नहीं.

अकसर गांव की सड़कों, शहर के स्टेडियम और पब्लिक पार्कों में सुबहशाम इसी तबके के युवक दौड़ते मिल जाते हैं. ये नवयुवक लड़के पसीने से भीगे, पैरों में सस्ते जूते या कुछेक बार वह भी नहीं, कईकई किलोमीटर दौड़ लगाते हैं. इन में अधिकतर युवा बेहद गरीब पृष्ठभूमि से होते हैं, जिन के लिए सरकारी नौकरी घर कीमाली हालत सुधारने का टर्निंग पौइंट होती है.

ये दौड़ते हैं कि इन्हें बस एक मौका मिले आर्मी में भरती होने का, क्योंकि ये युवा आर्मी में भरती होने को अपना पैशन और बहुत हद तक अपनी पारिवारिक जरूरत मानते हैं, क्योंकि आर्मी में भरती होने के लिए शारीरिक मेहनत के अलावा 10वीं पास योग्यता चाहिए होती है, जिसे पाने के लिए ये युवा जीजान लगा देते हैं. लेकिन क्या कभी किसी नेता, उद्योगपति, मीडियाकर्मी या एंकरों के बच्चों को इस तरह की हिम्मत और जज्बा दिखाते देखा है? नहीं, क्योंकि उन के हिस्से इस तरह की मजबूरियां हैं ही नहीं. वे संसाधनों से लैस हैं. वे बड़े स्कूलों और फिर विदेश में महंगे कालेजों में पढ़ कर अपने मातापिता की पदवी संभालते हैं. फिर वापस स्वदेश लौट कर लगन, जज्बा और हिम्मत का ज्ञान देश के गरीबों में बांटते हैं. यही इन की सत्ता और एकाधिकार को बनाए रखता है, जिसे देश के बहुसंख्यक गरीब सम झ नहीं पाते.

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