अमेरिका में डौनल्ड ट्रंप की सरकार को कुछ मोरचों पर शिकस्त मिल रही है पर फिर भी वे अपने चुनावी नारों को थोपने में लगे हैं. आईटी प्रोफैशनल्स को एच-1बी वीजा अब कठिनाई से मिलेगा और अमेरिकी कंपनियों में अमेरिकियों को ही नौकरियों पर रखना होगा. यह सोचना कि अमेरिकी कंपनियां पहले पैसा बचाने के लिए भारत जैसे देशों से आईटी प्रोफैशनल्स को बुलाती थीं, गलत होगा. असल में अमेरिका में पढ़ाई महंगी है और एकदो दशकों से वहां के युवा मौजमस्ती में ज्यादा लगे हैं, काम के प्रति गंभीर होने के बजाय. इधर भारत में ऊंची जातियों के पढ़ेलिखे लोगों के बच्चे और मेहनत कर के अपना स्तर सुधारने में लगे हैं. भारत में नौकरी के अवसर कम मिलने के कारण उन्होंने अमेरिका में नौकरियां ढूंढ़ी और अपनी मेहनत से अपना रंग जमा लिया.

इन कंपनियों के आम गोरे मालिक या मैनेजर भारतीयों को आदर से देखते हों ऐसा नहीं है. जैसा व्यवहार वे अपने देश के काले या दक्षिण अमेरिका से आए मिश्रित लैटिनों से करते रहे हैं, उस से थोड़ा सा अच्छा है. अंगरेजी के ज्ञान के कारण उन की दोस्ती अच्छी चलती है और इसीलिए कंपनियां उन्हें एशिया के दूसरे क्षेत्रों से ज्यादा पसंद करती हैं. पर अमेरिकियों के मन में भारतीयों के बारे में भी वैसा ही भेदभाव व गुस्सा है जैसा दूसरे बाहरियों के साथ. यह ट्रंप की जीत ने साबित कर दिया है. वैसे ऊंची जातियों के अमेरिकी नागरिकता प्राप्त मूल भारतीयों में से ज्यादातर ने कट्टर रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन किया था पर उन्हें अब असल रंग समझ आ रहे हैं.

अमेरिका जा कर अपना भविष्य बनाने का सपना हर भारतीय युवा का होता है और मातापिता लाखों इस पर खर्च करते हैं. असल में इंजीनियरिंग व मैडिकल प्रवेश परीक्षाओं में जो मारामारी है वह इसी अमेरिकी नौकरी की वजह से है और यही नहीं मिली तो समझो कि पूरा भविष्य चौपट हो गया. अब यह सपना टूट रहा है. न अमेरिका में नौकरियां मिलेंगी, न अमेरिकी कंपनियां भारतीय कंपनियों को काम के ठेके दे पाएंगी. एक तरह से दोनों को टाइट बकसों में रहना पड़ेगा. वैश्वीकरण के सपनों में अब क्रैक पड़ रहे हैं. ऊपर से भारत में अफ्रीकियों के साथ जो व्यवहार हो रहा है उस से अफ्रीका में मिलने वाली मोटे वेतन वाली नौकरियों पर आंच आने लगी है. सिंगापुर भी कुछ बंधन लगाने लगा है.

अगर ऐसे में देश में ही नौकरियों के अवसर न मिले तो बच्चों की पढ़ाई पर किया खर्च बेकार हो जाएगा और अच्छे मेधावी छात्रों को छोटी नौकरियों से संतोष करना होगा. भारत अमेरिका तो क्या न चीन बन पाएगा और यहां तक कि शायद वियतनाम जैसे देश से भी पिछड़ न जाए.

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