सरकारी स्कूलों के भाषाई माध्यम के पढ़े बच्चों को आमतौर पर किसी न किसी बहाने से ऊंची शिक्षा हासिल करने से रोक लिया जाता है. अगर उन्होंने ज्यादा अंक पा लिए हों तो भी कई शर्तें रख दी जाती हैं जिन में होस्टल फीस, स्पोर्ट्स फीस जैसे बहाने शामिल कर ऊंची शिक्षा मंहगी कर दी जाती है. तर्क यह होता है कि हिंदी माध्यम से आने वाले गरीब घरों के बच्चों को ऊंची इंग्लिश शिक्षा देने में मुश्किल होती है और वे लगातार फिसलते रहते हैं.

असल वजह यह है कि देश का संपन्न ऊंची जातियों वाला समाज अब किसी तरह फिर से पौराणिकवाद लाना चाहता है जिस में केवल ऊंची जातियों वाले पुरुषों का बोलबाला हो. वे औरतों को भी स्थान नहीं देना चाहते जो चाहे ऊंची जातियों की ही क्यों न हों. विधानसभाओं और संसद तक में औरतों को सजावटी गुडिय़ाओं की तरह रखा जाता है जबकि इंदिरा गांधी खुद प्रधानमंत्री रह चुकी हैं और तमिलनाडु में जयललिता व पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी यह दिखा चुकी हैं कि वे किसी भी पुरुष से कम नहीं हैं. वहीं हिंदी माध्यम वाले छात्र भी दिखा देते हैं जब वे ऊंची शिक्षा में हर बाधा पार कर लेते हैं.

तमिलनाडु ने मैडिकल कालेजों में 7.5 फीसदी सीटें तमिल माध्यम के सरकारी स्कूलों से आने वाले व नीट परीक्षा क्वालीफाई करने वालों के लिए एक कानून बना कर आरक्षित की थीं. इस में केवल 1 फीसदी सरकारी स्कूल के छात्र मैडिकल कालेजों में नीट के बावजूद एडमीशन पा रहे थे. अब मद्रास हाईकोर्ट ने इस कदम को संवैधानिक मान लिया है. आमतौर पर न्यायालय भी इंग्लिश पढ़ेलिखों का साथ देता है और इसलिए यह फैसला सुखद है. सुप्रीम कोर्ट अब क्या कहता है, देखना है.

सरकारी स्कूलों की जरूरत एक बार फिर समझी जा रही है क्योंकि निजी इंग्लिश मीडियम स्कूल वर्णवाद और जातिवाद दोनों के बीज बुरी तरह बो रहे हैं. अमीर घरों से आए ये बच्चे पैसे का दुरुपयोग कर के हर ऊंची पोस्ट पर जमने लगे हैं और देश का नैरेटिव फिर बदल गया है और पूजापाठ, जाति, जैंडर भेदभाव, धर्म के नाम पर अलगाव फैशनेबल बता डाला गया है. जो उत्पादन नहीं करते उन्हें हर अवसर मिल रहा है और जो उत्पादन कर रहे हैं, वे सामाजिक षड्यंत्र का हिस्सा बन कर 1941 में मिली आजादी का लाभ हर रोज खो रहे हैं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...