अगर किसी देश की जनता सुखी नहीं है, भयग्रस्त है, घुटघुट कर जीने के लिए मजबूर है, उसे अपनी मरजी से पहननेओढ़ने, आनेजाने, बोलने और खाने की आजादी नहीं है तो ऐसे नागरिकों से भरा देश भले विश्व के अन्य देशों के मुकाबले मजबूत और विकसित दिखता हो परंतु वह भीतर से बिलकुल खोखला होगा. ऐसा देश एक दुखी देश ही कहलाएगा जहां जनता दबाव और प्रताड़ना की शिकार होगी, मगर उसे अपनी तकलीफ कहने तक की इजाजत नहीं होगी. सत्ता में बैठे लोग तानाशाह की तरह व्यवहार करेंगे, जनता से उन्हें कोई सरोकार नहीं होगा और दुनिया के सामने वे खुद को सब से ताकतवर दिखाने में मशगूल रहेंगे.

राष्ट्रहित के नाम पर ऐसे तानाशाह जो फैसले लेते हैं, उन से उन के देश की जनता का कोई हित नहीं जुड़ा होता है. अकसर बहुमत उन के साथ दिखता है या वे ऐसा दिखाते हैं और बहुमत की दुहाई दे कर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि वे जो कर रहे हैं उस में जनता का हित समाहित है और जनता उस फैसले की समर्थक एवं सहयोगी है. जबकि बहुमत दबाव डाल कर, डर दिखा कर, लालच दिखा कर या ?ाठे वादे कर के हासिल किया जाता है.

दरअसल राष्ट्रहित, जनहित और बहुमत तीनों बिलकुल भिन्न बातें हैं. दुनिया में ऐसे कई देश हैं जहां बहुमत सत्ता के पक्ष में दिखने के बावजूद राष्ट्रहित और जनहित के मुद्दों पर सवाल उठ रहे हैं. जहां जनता सत्ता के फैसलों से आक्रोशित है, लेकिन फिर भी बहुमत सत्ता के साथ दिखता है और इस की बिना पर लिया गया फैसला राष्ट्रहित में लिया गया फैसला करार दे दिया जाता है. तीनों चीजों को गड्डमड्ड कर के एक तानाशाह बड़ी चालाकी से अपना लक्ष्य साध लेता था.

अहम सवाल यह है कि एक शासक के लिए राष्ट्रहित, जनहित और बहुमत तीनों में क्या सब से ज्यादा जरूरी है? राष्ट्रहित में उठाए गए कदमों से अगर जनता को तकलीफ हो रही है तो ऐसे राष्ट्रहित के क्या माने हैं? बहुमत सत्ता के साथ होने पर भी यदि जनता तकलीफ में है तो ऐसा बहुमत किस काम का है? जब तक शासक द्वारा जनता का कल्याण न हो तब तक राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता. कोई भी राष्ट्र जनहित के बगैर मजबूत नहीं हो सकता. जनता की खुशहाली और जनता की तकलीफों का निराकरण ही जन को देश से जोड़ता है. इसी से राष्ट्रहित सधता है और इसी से सच्चा बहुमत हासिल होता है.

कुछ देशों की बात करते हैं. हाल ही में अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा कर वहां अपना शासन शुरू किया. तालिबान के आने से पहले अफगानिस्तान भले एक कमजोर देश था मगर वहां जनता खुशहाल थी. वह धीमी गति से विकास के पथ पर अग्रसर था. औरतें बिना दबाव के बाहर निकल कर काम कर रही थीं. बच्चियां शिक्षा पा रही थीं. वहां उन के लिए अच्छे शिक्षा संस्थान थे. लोग मनचाहा रोजगार कर पा रहे थे. उन पर कोई ड्रैस कोड लागू नहीं था. औरतों पर हिजाब की पाबंदी नहीं थी.

वे आजाद थीं. खुल कर सांस ले रही थीं. खेलकूद में हिस्सा ले रही थीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेलों में भाग लेती थीं. अपनी क्षमताओं का भरपूर प्रदर्शन कर गौरव प्राप्त करती थीं, सुख और सुकून महसूस करती थीं. अनेकानेक औरतें उच्च शिक्षा प्राप्त कर डाक्टरइंजीनियर बन रही थीं. अनेकानेक औरतें शासनप्रशासन में अच्छे पदों पर कार्यरत थीं. मगर तालिबानी हुकूमत ने उन से यह सारा सुख छीन लिया, धर्म के नाम पर उन की आजादी छीन ली और उन्हें घररूपी पिंजरे में कैद कर दिया. कई सख्त पाबंदियां अफगान मर्दों पर भी लागू हुईं.

अब वहां आदमी कामधंधा छोड़ कर 5 वक्त की नमाज के लिए मसजिद की दौड़ लगा रहा है. पैंटशर्ट या सूटटाई की जगह अजीब ढीले कुरते और उटंगे पायजामे पहन रहा है. बड़ेबड़े ओहदों पर रह चुके उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष इन लिबासों में अजीब नमूना लगने लगे हैं. बहुतेरे ऐसे हैं जो सत्ता के दबाव में कंधे पर हथियार टांगने को मजबूर हैं.

मर्दों को सख्त आदेश है कि अपनी औरतों को घर में रखें. बेटियों की पढ़ाई छुड़ा दें. न चाहते हुए भी वे मारे डर के ऐसा कर रहे हैं. औरतों पर काले बुर्के डाल दिए गए हैं. उन की शिक्षा में व्यवधान आ गया है. उन की नौकरियां खत्म कर दी गई हैं. उन के ओहदे छीन लिए गए हैं. आगे आने वाले सालों में वहां की औरतें डाक्टरइंजीनियर नहीं बनेंगी, सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन होंगी.

आज दुनिया को अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि शरीयत का पालन कर के उन के मुल्क में अमन शांति कायम हो चुकी है. बहुमत उन के साथ है और राष्ट्रहित में वे सख्त से सख्त कदम उठाने के लिए तैयार हैं. उन का राष्ट्र इतना मजबूत और ताकतवर है कि वे अपने धर्म की रक्षा के लिए दुनिया के किसी भी मुल्क से युद्ध को तैयार हैं. मगर क्या अफगानिस्तान में जनता खुश है? औरतें और बच्चे खुश हैं? क्या तरक्कीपसंद लोग, आधुनिकता और विज्ञान की तरफ बढ़ते लोग धर्म के फंदे में फंस कर खुश हैं? क्या जनता खुद को आजाद महसूस कर रही है? क्या अफगानिस्तान में अब जनहित के काम हो रहे हैं? ऐसे तमाम सवाल हैं जिन का जवाब न में ही मिलेगा.

तालिबान के सत्ता में आते ही लाखों की संख्या में अफगान नागरिक अपना घरबार, जमीनजायदाद छोड़ कर भाग खड़े हुए. आज लाखों अफगानी अन्य देशों में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं. जो अफगानिस्तान में रह गए उन में निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है, खासतौर से महिलाओं में, क्योंकि वे अपनी मरजी से कुछ कर ही नहीं सकती हैं. उन के लिए वहां की सरकार कुछ सोच भी नहीं रही है. जनहित के सारे काज ठप हैं और राष्ट्रहित के नाम पर तालिबानी युद्ध के लिए तैयार दिखते हैं.

राष्ट्रहित को तमाम देश सर्वोपरि मानते हैं. इस के लिए वे युद्ध करने को भी तैयार रहते हैं. राजनीतिक पार्टियां बहुमत के बल पर सरकार बना लेती हैं, लेकिन क्या इस से जनहित भी सधता है? शायद नहीं.

राष्ट्रहित की दुहाई दे कर यूक्रेन पर बमबारी करने वाला रूस आज अपनी ही जनता के आक्रोश व विरोध का सामना कर रहा है. रूसी जनता में अपने शासक के खिलाफ रोष बढ़ता जा रहा है. वे जानते हैं कि राष्ट्रहित के नाम पर पुतिन ने रूस और यूक्रेन दोनों देशों के सैनिकों और आम जनता को जबरन बारूद में ?ांक दिया है. दोनों ओर जनता के जानमाल का नुकसान हो रहा है. फिर युद्ध में होने वाले खर्च का पूरा भार आने वाले समय में जनता पर होगा, कर बढ़ेंगे, तरक्की बाधित होगी, जनहित के कार्य पिछड़ जाएंगे. मगर सत्ता द्वारा, बस, खोखले राष्ट्रहित का ढोल पीटा जाएगा.

चीन की तानाशाही तो सर्वविदित है. चीन एक शक्तिशाली देश है मगर अपनी जनता पर अत्याचार कर रहा है. कम्युनिस्टों द्वारा शासित चीन में लोगों का रहना मुहाल होता जा रहा है, खासतौर पर उइगर मुसलमानों का, जिन्हें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आदेशों से जेलनुमा जगहों पर रख कर उन पर तमाम पाबंदियां लगा दी गई हैं. उन के धार्मिक रीतिरिवाजों पर सरकार का पहरा है. चीन की सरकार ने अपने हजारों मुसलिम नागरिकों को हिंसा के बलबूते जबरन उन के परिवार से दूर डिटैंशन कैंपों में भेज दिया है, जहां उन्हें इसलाम का त्याग करने के लिए मजबूर किया जाता है और चीन की सत्तारूढ़ पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति वफादार रहने की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है.

एक समुदाय विशेष को टारगेट करने के लिए बनाए गए सामूहिक हिरासत केंद्र, सांस्कृतिक और धार्मिक क्रियाकलापों को रोकने और उन पर कड़ी निगरानी की रिपोर्ट्स को ले कर दुनियाभर में चिंता जताई जा रही है. मगर चीन इसे राष्ट्रहित में किए जाने वाले कार्य कहता है. आखिर अपनी ही जनता के हितों पर कुठाराघात कर के चीन किस तरह का राष्ट्रहित साध रहा है?

ऐसा ही कुछ भारत में भी देखने को मिलता है. आप यह जानकार चौंक जाएंगे कि पिछले लगभग एक दशक से भारत सरकार राष्ट्रहित के नाम पर अपने ही नागरिकों के हितों की कितनी अनदेखी कर रही है. एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत अब उच्चतम बेरोजगारी दर से पीडि़त है. वर्ल्ड हैल्थ और्गेनाइजेशन के मुताबिक, दुनिया के सभी शीर्ष 10 सब से प्रदूषित शहर अब भारत में हैं.

भारत सरकार दावा करती है कि वह विश्वगुरु बनने की राह पर है मगर भारत की जनता भुखमरी से नहीं उबर पा रही है. भारत में आज 80 वर्षों में सब से अधिक आय असमानता है. भारत विश्व का दूसरा सब से असमान देश है. थौमस रौयटर्स का सर्वे कहता है कि भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सब से खराब देश बन चुका है. भारत सरकार द्वारा जनहित का नाम दे कर जबरन थोपे गए कानूनों के खिलाफ देशभर का किसान डेढ़ साल घरबार छोड़ कर सड़कों पर खुले आसमान के नीचे आंदोलनरत रहा, 700 से ज्यादा किसान मर गए, मगर मोदी सरकार कहती है हम राष्ट्र प्रथम की नीति का पालन करते हैं. आखिर वे किस राष्ट्र की बात कर रहे हैं?

इस बार भारतीय किसानों को पिछले 18 वर्षों में सब से खराब कीमत का सामना करना पड़ा है. मोदी सरकार में अब तक की सब से ज्यादा गाय से जुड़ी हिंसा और रिकौर्ड मौबलिंचिंग की घटनाएं हुई हैं. भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों को प्रैस कौन्फ्रैंस कर के कहना पड़ा कि लोकतंत्र खतरे में है और हमें काम नहीं करने दिया जा रहा है. असहिष्णुता और धार्मिक अतिवाद भारत में अपनी चरम पर हैं. सरकार की आलोचना करने वालों को देशद्रोही का लेबल लगा कर जेल भेज दिया जाता है. चुनाव के वक्त तमाम जांच एजेंसियों और पुलिस एजेंसियों को सत्ताधारियों द्वारा अपनी उंगलियों पर कठपुतली की तरह नचाया जाता है और विरोधी पार्टियों के नेताओं को जेल में ठूंस दिया जाता है. धार्मिक उन्माद और ध्रुवीकरण के जरिए मासूम जनता में डर कायम किया जाता है.

भारत जैसे महादेश में जहां की अधिकांश आबादी को दो जून रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत से फुरसत नहीं है, वह राजनेता और राजनीति की गूढ़ बातों से लगभग अनभिज्ञ होती है. उसे थोड़ा सा लालच दे कर, थोड़ा सा डर दिखा कर, थोड़े से सपने दिखा कर जिधर हांको वह उधर चल पड़ती है.

चुनाव में उतरने वाले ताकतवर नेता सब से पहले अपने चुनाव क्षेत्र में आने वाले सभी गांवों के प्रधानों को अपनी पावर और पैसे से साधते हैं. फिर प्रधान गांव वालों से जहां वोट डालने को कहता है, पूरा गांव उस नेता के पक्ष में वोट डाल आता है. बदले में 500 रुपए का एक नोट या एक साड़ी या एक शराब की बोतल पा कर वह निहाल हो जाता है. यानी भारत में आम आदमी शासक नहीं चुनता, उस से शासक के चुनाव पर मोहर लगवाई जाती है, कभी बंदूक से तो कभी बैलेट से.

सवाल यह है कि चुनाव के वक्त बहुसंख्यकों को धर्म की घुट्टी पिला कर और अल्पसंख्यकों को डरा कर अगर बहुमत हासिल कर भी लिया तो जनहित और राष्ट्रहित में क्या इजाफा हुआ? जनता तो त्राहित्राहि कर रही है. भूख, गरीबी, बेरोजगारी, कर्ज उस का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं. उस के जीवन में असंतोष और दुख भरा पड़ा है. ऐसे टूटेफूटे, घायल और दर्द से कराहते लोगों से भरे देश में तानाशाही प्रवृत्ति के नेता जब राष्ट्रहित और राष्ट्र प्रथम की बातें बोलते हैं तो आलोचना के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं.

राष्ट्रहित या राष्ट्रीय हित जैसे शब्द को राजनेताओं और नीतिनिर्माताओं ने हमेशा अपने लिए उपयुक्त तरीकों से और अपने राज्यों के कार्यों को सही ठहराने के अपने उद्देश्य के लिए उपयोग किया है.

हिटलर ने ‘जरमन राष्ट्रीय हितों’ के नाम पर विस्तारवादी नीतियों को सही ठहराया. अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने हमेशा ‘अमेरिकी राष्ट्रीय हित’ के हित में अधिक से अधिक विनाशकारी हथियारों के विकास के लिए अपने निर्णयों को उचित ठहराया है. डिएगो गार्सिया में एक मजबूत परमाणु आधार बनाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ने तत्कालीन यूएसएसआर द्वारा पेश की गई चुनौती को पूरा करने के साथसाथ हिंद महासागर में अमेरिकी हितों की रक्षा के नाम पर उचित ठहराया था.

1979-89 के दौरान तत्कालीन यूएसएसआर ने ‘सोवियत संघ राष्ट्रीय हितों’ के नाम पर अफगानिस्तान में अपने हस्तक्षेप को उचित ठहराया. वहीं, चीन के राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने के प्रयासों के नाम पर चीन ने भारत और सोवियत संघ के साथ अपने सीमा विवादों को सही ठहराया.

सच तो यह है कि जनहित के बगैर किसी भी राष्ट्र का हित हो ही नहीं सकता है. जन के मजबूत होने से ही राष्ट्र मजबूत होता है. जन के सुखी और संपन्न होने से ही राष्ट्र सुखी और संपन्न होता है.

जो सरकार अपनी जनता के हितों के लिए कार्य करती है, उसे बहुमत जुटाने के लिए ?ाठ का सहारा नहीं लेना पड़ता है. बहुमत स्वयं उस के साथ चलता है. जनहित के उस के कार्य राष्ट्रहित को स्वयं साध लेते हैं. जनता की ताकत

ही किसी राष्ट्र की सच्ची ताकत है. इसलिए जनहित सर्वोपरि है. नेताओं को सम?ाना चाहिए कि जब जन प्रथम होगा, तभी राष्ट्र प्रथम होगा.   द्य

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