चुनावी चक्कर
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर में अच्छेखासे बहुमत से विधानसभा चुनाव जीत कर भारतीय जनता पार्टी ने साबित कर दिया है कि अभी धर्म के नाम पर वोट पाना संभव है और बराबरी, स्वतंत्रताओं, विविधताओं के सवाल व आर्थिक समृद्धि, वैज्ञानिक चेतना की आवाज आदि इस देश में अभी भी खास महत्त्व नहीं रखतीं. यह इस देश में सदियों से चला आ रहा है और अंगरेजों के आने के बाद जो नई सोच व शिक्षा आई, उस को बड़ी आसानी से पुराने मटके में डाल दिया गया.
कांग्रेस 1947 में सत्ता में आईर् और लगभग 60 साल राज करती रही पर उस का एजेंडा कोई खास अलग नहीं रहा है. यही नहीं, आम आदमी पार्टी, बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस खास अलग की सोच रहे हों, ऐसा भी नहीं है. जिन वैयक्तिक स्वतंत्रताओं पर आज की वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति टिकी हुई है, वह किसी भी पार्टी की पहली वरीयता नहीं है. सभी पार्टियां अपना लोहे का पंजा लोगों के गले पर रखती हैं और लोग अब इसे पुरातन चलन मान कर सिरमाथे पर रखते हैं.
पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा से कांग्रेस को उम्मीदें थीं पर वे सब बह गईं. उत्तर प्रदेश में अखिलेश को उम्मीद थी पर वह असफल हुई. ये दोनों पार्टियां शायद जनता की निगाहों में कुछ नया नहीं देने वाली थीं.
भारतीय जनता पार्टी जहां हिंदू राष्ट्र, भारतीय प्राचीन संस्कृति के गौरव, देशप्रेम, राष्ट्रशक्ति की बातें करती थी चाहे इस के पीछे कोरी धर्म की दुकानदारी और वर्णव्यवस्था का उद्देश्य छिपा हो, वहां दूसरी पार्टियां इन का कोई पर्याय न दे रही थीं, न उन का पुराना इतिहास यह दर्शा रहा था कि उन का शासन कुछ अलग होगा. पूरे चुनावी कैंपेन में इन 2 मुख्य पार्टियों का जन विकास का कोई मुद्दा आगे नहीं रहा. ये सरकार की मुखालफत करती रहीं पर बदले में वे सपने भी नहीं दे रही थीं. जहां भारतीय जनता पार्टी हिंदू के नाम पर जीती, वहीं आम आदमी पार्टी शहरी लोगों से सुविधाजनक जीवन के वादे कर रही थी. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के पास ऐसा कुछ नहीं था.
लोकतंत्र में कई पार्टियों का होना जरूरी है वरना एक पार्टी दंभी और क्रूर हो ही जाएगी.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना कर चुनावी प्रबंध किया और विरोधियों की कमर वर्षों के लिए तोड़ दी. हतोत्साहित कांग्रेस अब जल्दी ही अपने शासन के दो राज्य छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान से भी हाथ धो बैठेगी और शिवसेना को फिर से विचार करना पड़ेगा कि वह किस खेमे में रहे.
जनता को कुछ मिलेगा, यह नहीं कहा जा सकता पर जनता आमतौर पर हर देश में भीड़ होती है जो अपने नेता के पीछे चलती है चाहे उस का अपना रंग या भाषा कैसी भी हो या वह किसी भी रंग के कपड़े पहनती हो. हर सत्तारूढ़ नेता को इतनी भीड़ मिल जाती है जो उस की जयजय करकर के फूलमाला भी पहनाती है और उस के जुल्मों को व्यक्तिगत दंड मान कर सह लेती है.
यूक्रेन पर रूसी हमले के मद्देनजर
पूरा यूरोप, जापान, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका के देश तेजी से लोकतंत्र को बचाने में जुट गए हैं. यह एक राहत की बात है. जो ढीलढाल दूसरे विश्व युद्ध के समय की गई थी, अब न की जाए और यूक्रेन चेकोस्लोवाकिया की तरह खूनी हिटलर का पहला निवाला न बए जाए, इस के लिए अब सारे देश जुट गए हैं.
इस में ज्यादा श्रेय व्लोदोमीर जेलेंस्की को जाता है जिन्होंने देश छोड़ने से इनकार कर दिया. रूस ने साम्राज्य का पहले अंग रहते हुए भी अब हर सड़क, हर खेत, हर फैक्ट्री, हर घर, हर जंगल, हर पहाड़ से लड़ने को अपने देश को तैयार किया है. यूरोप ने जिस तेजी से रूस के हाथपैर बांधने के लिए आर्थिक प्रतिबंध लगाए और जिस तत्परता से यूक्रेन को हथियार भेजने शुरू किए, वह अद्भुत है.
यह एक देश की जनता के अपने अधिकारों की रक्षा की परीक्षा है और फिलहाल यह दिख रहा है कि यूरोप और एशिया तक फैला विशाल रूस छोटे से यूक्रेन के आगे ढीला पड़ रहा है.
इतिहास में यह पहली बार नहीं हो रहा है. छोटेछोटे देशों ने अकसर बड़े देशों को हराया है.
भारत एक क्लासिक उदाहरण है जहां मुट्ठीभर लोग दशकों नहीं, सैकड़ों साल बाहर से आ कर राज करते रहे हैं. कई बार वे इसी मिट्टी में घुलमिल कर वैसे ही बन गए तो परिणाम उन्होंने ?ोला जो कुछ दशकों या सदी पहले यहां के निवासियों ने ?ोला था.
यूक्रेन कोई धर्मराष्ट्र नहीं बन रहा था. वहां की जनता, जो कई दशकों तक रूसी तानाशाही शासन ?ोल चुकी थी, अब फिर से गुलामी का जीवन जीने को तैयार नहीं है. यूक्रेन वाले अब कठपुतली बन कर नहीं रहना चाहते. उन्हें एक कौमेडियन में एक कर्मठ, हिम्मत वाला नेता मिल गया जो आर्मी का भी हिस्सा बन चुका है, जो दिलेर है, जो अपने घर का पता भी दुश्मन को देने से नहीं हिचकता.
यूक्रेन में रूसी समर्थक नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता पर आज उन के मुंह और हाथ बंद हो गए हैं क्योंकि उन्हें एहसास हो गया है कि जनता के अधिकार एक बड़े देश, धर्म की धौंस से ज्यादा महत्त्व के हैं. यूरोप ने यूक्रेन को पूरा सहयोग दिया है और यूक्रेनियों को न भूखे मरने दिया जा रहा है, न निहत्थे छोड़ा जा रहा है.
जोड़फोड़ व तोड़ नीति
जोड़ लो, फोड़ लो और अगर न माने तो तोड़ दो. भारतीय जनता पार्टी की यह नीति हमारी संस्कृति में नई नहीं है. अमृत मंथन करना था तो पहले दस्युओं को जोड़ लिया, फिर उन में से कुछ को फोड़ा और जब अमृत मिल गया तो भगवान विष्णु स्वयं एक युवती बन कर मोहिनी अवतार के रूप में दस्युओं को तोड़ने पहुंच गए और उन्हें शराब पिला दी.
यह आज भी हो रहा है. भारतीय जनता पार्टी की चुनावी नीति रही है कि पहले तो सभी मंदिरों, मठों को जोड़ लो ताकि जातियों और उपजातियों में बंटे लोगों को एक मकसद के लिए तैयार किया जा सके. राममंदिर को ले कर उन्हें जोड़ा गया. जो इस खेल को सम?ा गए कि यह दिखावा है, वे फोड़ लिए गए. किसी को राज्यसभा मिली, किसी को विधायकी. जो फिर भी नहीं माने, उन पर तोड़ने की ताकत लगा दी गई. पुलिस, एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट, ?ाठे मुकदमों के जरिए उन को डराया व प्रताडि़त किया गया.
संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी की इस जोड़, फोड़ और तोड़ की नीति का बहुत ही प्रभावशाली ढंग से विश्लेषण किया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तिलमिला गए. दुर्वासा की तरह क्रोधित हो कर उन्होंने उत्तर में 100 मिनट का भाषण दिया जिस में 90 मिनट उस कांग्रेस को कोसने में लगाए.
इस अभिभाषण में नरेंद्र मोदी ने उन भूखे मजदूरों को भी दोषी ठहरा दिया जो पहले लौकडाउन में नौकरी खत्म होने के बाद गांवों को लौटने को मजबूर हो गए थे और उन को टिकट या बसें दिलवाने वालों को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया. कांग्रेस और दिल्ली सरकार को तो कोसा ही, अपरोक्ष रूप से सोनू सूद जैसे भी लपेटे में आ गए जो अपनी जेब से बसें या खाने का इंतजाम करते रहे थे.
भारतीय जनता पार्टी बारबार उन पौराणिक ऋषिमुनियों की याद दिलाती है जो दम तो भरते थे कि उन के पास समस्त ब्रह्मांड को नष्ट करने की दैविक शक्ति है लेकिन हर छोटे से छोटे संकट पर इंद्र, विष्णु, राजाओं या बंदरों की शरण में जा पहुंचते थे.
जिस महान वक्ता, विचारक, देश परिवर्तक, सामाजिक क्रांति के सूत्रधार नरेंद्र मोदी की आस में देश पलकें बिछाए था, वह कहीं खो गया है. नरेंद्र मोदी की पार्टी विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल कर पाई है पर देश को जो चाहिए वह शायद अभी कहीं नहीं दिख रहा.
शहरी निकायों में क्षेत्रीय दल
पश्चिम बंगाल के शहरी निकायों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का ‘जयश्रीराम’ का छद्म नारा एक भी शहर में नहीं चला. 107 शहरी निकायों में से 102 पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने कब्जा कर लिया.
दक्षिण में तमिलनाडु में भी यही हुआ जब नगर पंचायतों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी समर्थक अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम को न के बराबर सीटें मिलीं और कांग्रेस व द्रविड़ मुनेत्र कषगम के
सहयोग वाले गठबंधन ने लगभग सारे
जिले जीत लिए. 21 कौर्पोरेशनों, 138 म्युनिसिपलिटीज और 489 शहरी पंचायतों की 12,500 सीटों में से दोतिहाई से ज्यादा एम के स्टालिन की ?ाली में जा गिरीं.
ओडिशा के स्थानीय चुनावों की 852 सीटों में से 766 सीटों पर नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल को जीत मिली, दूसरे नंबर पर 42 सीटें भारतीय जनता पार्टी को मिलीं. भाजपा ने 5 वर्षों पहले 297 सीटों पर कब्जा किया था. गरीब मेधावी दुनिया में भटके भारत सरकार की विदेश नीति के परखच्चे अगर किसी ने उड़ाए हैं तो वे यूक्रेन में फंसे छात्र रहे. यूक्रेन में करीब 20 हजार छात्र मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे और वे बहुत साधारण घरों से आते हैं जो बड़ी मुश्किल से पैसा जुटा कर डिग्री पाने के लिए ठंडे, बेगाने देश में मांबाप से दूर रह कर पढ़ रहे थे. उम्मीद थी कि जिस भारत सरकार ने यूक्रेन पर रूसी हमले में रूस का साथ दिया है, बदले में रूस इन छात्रों को सुरक्षित रखने की गारंटी देगा.
ऐसा कुछ नहीं हुआ. राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक शब्द भी इन छात्रों के लिए नहीं बोला. उधर, यूक्रेन के लोगों ने इन छात्रों के साथ कोई खास दुर्व्यवहार तो, उन के देश के खिलाफ भारत के रूस को नंगे समर्थन के बावजूद, नहीं किया पर जब खुद उन की जान के लाले पड़े हों तो वे दूसरों की सहायता कैसे करते.
यूक्रेन में 19 से 25 साल के अनुभवहीन भारतीय छात्रों, जिन की जेब में पैसे न के बराबर होते हैं, की सहायता बहुत देर बाद की गई जब वे कईकई दिन मौत के दरवाजे पर खड़े रहे.
यूक्रेन में भारतीय एंबैसी ने एक नोट जारी कर दिया कि यूक्रेन में स्थिति खराब हो रही है, छात्र सतर्क रहें और तैयारी कर लें. उस ने न हवाईजहाज भेजे जब एयरपोर्ट चल रहे थे, न पैसे दिए, न भारत सरकार का कोई मंत्री कीव पहुंचा था. बाद में पोलैंड और रोमानिया में मंत्री अवश्य गए.
‘आज जो हो रहा है, वह आप के भाग्य में लिखा हुआ है’ का पाठ पढ़ाने वाले जानते हैं कि भारतीय जनता दोचार रोज रोधो कर फिर पूजापाठ में पड़ कर अपने उन्हीं नीतिनिर्माताओं का गुणगान करने लगेगी जिन की वजह से उसे भयंकर कष्ट हुए.
इन छात्रों के मांबापों के लाखों रुपए तो बरबाद हुए ही. जो लौट आए वे भी मरतेपिटते, ठंड में ठिठुरते, मीलों पैदल चल कर यूक्रेन सीमा से बाहर पहुंचे.