रोबोट अब हमारे लिए नई चीज नहीं हैं. दुनिया के कई मुल्कों में वे तरहतरह के काम निबटा रहे हैं. हमारे देश की कई फैक्ट्रियों में भी रोबोभुजाएं एक ही तरह से किए जाने वाले कई कार्य कुशलता से संपन्न कर रही हैं. हाल में, मुंबई में एक निजी बैंक की शाखा में ‘इरा’ नामक रोबोट को ग्राहकों के स्वागत और उन्हें कई जानकारियां देने के लिए तैनात किया गया है जो एक यांत्रिक महिला कर्मचारी की तरह दिखता है. ‘इरा’ का मतलब है इंटैलीजैंट रोबोटिक असिस्टैंट और इसे भारत में ही विकसित किया गया है. एक समझदार महिला कर्मचारी की तरह ग्राहकों की समस्याएं हल करने के अलावा बैंक कर्मचारियों की मदद करने का जिम्मा भी इरा को दिया गया है.

हमारे देश में इस तरह के संवेदनशील रोबोट बनाने की यह एक शुरुआत है और ऐसी ही एक शुरुआत जापान और यूरोपीय संघ ने संयुक्त रूप से 20 लाख पाउंड के खर्च से ऐसा रोबोट बनाने की दिशा में की है, जो सांस्कृतिक और संवेदनशील हों और बुजुर्गों की देखभाल कर सकें. अगले 3 साल में बनाए जाने वाले ये पेपर रोबोट इंसानों की तरह ही दिखेंगे और उन्हें बुजुर्गों की देखभाल जैसे समय पर दवापानी देने और उन के रोजमर्रा के कई काम संपन्न करने में लगाया जाएगा. सब से उल्लेखनीय बात है रोबोट को आम इंसानों की तरह बुद्धिमान व संवेदनशील बनाया जाना. पेपर रोबोट बनाने वाली कंपनी ‘सौफ्टबैक रोबोटिक्स’ का कहना है कि वह ऐसी दुनिया बनाना चाहती है, जहां इंसान और रोबोट साथसाथ रह सकें और साथ रहते हुए सुरक्षित, सेहतमंद व खुशहाल जीवन बिताएं. हालांकि अभी भी जापान में सैकड़ों घरों में इसी तरह के पेपर रोबोट आजमाए जा रहे हैं, पर इस परियोजना के तहत बेहद समझदार और संवेदनशील रोबोट सब से पहले ब्रिटेन के एडवीनिया हैल्थ केयर के केयर होम्स में जांचापरखा जाएगा.

समझदार रोबोट बनाने की दिशा में एक प्रयोग फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने भी किया है. उन्होंने अपने घर पर आर्टिफिशियल इंटैलीजैंसी यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद से हौलीवुड की फिल्म ‘आयरनमैन’ में देखने वाले रोबोट जारविस की तरह का एक रोबोटिक सिस्टम तैनात किया है जो घर और औफिस के कामों में उन की मदद करता है.

जारविस सिस्टम उन की आवाज के  इशारे पर काम करता है और उस में लगी एआई तकनीक संगीत, लाइट से ले कर घर का तापमान तक नियंत्रित करती है. यही नहीं, जारविस उन के घर आने वाले दोस्तों की पहचान करता है, घंटी बजने पर उन के लिए घर का दरवाजा खोलता है और जुकरबर्ग की गैरमौजूदगी में उन की बेटी मैक्स की देखभाल भी करता है. घर पर मौजूद नहीं रहने पर औफिस में काम करते वक्त जुकरबर्ग को अपने कंप्यूटर जारविस की मदद से घर के भीतर की सारी जानकारी मिलती रहती है.

कौमनसैंस वाले रोबोट

ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि धीरेधीरे रोबोट हम इंसानों  के आदेशों के अलावा हमारी भावनाओं को समझते हुए कार्य करना सीख रहे हैं. असल में, अभी तक यही माना जाता रहा है कि जब बात सामान्य बुद्धि यानी कौमनसैंस की आती है, तो रोबोट इस मामले में इंसानों से पिछड़ जाते हैं, जबकि इंसान बहुत सारे काम कौमनसैंस (व्यावहारिक बुद्धि) के सहारे करते हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि अगर रोबोट को इंसानों के बराबर ला खड़ा  करना है, तो उन में कौमनसैंस विकसित की जाए, लेकिन रोबोट या कहें कि मशीनों में ऐसी क्षमता विकसित करना काफी कठिन काम माना जाता रहा है.

जापान और यूरोपीय संघ मिल कर पेपर रोबोट के संबंध में जो कर रहे हैं और जिस तरह  का एक काम अमेरिका की कोर्नेल यूनिवर्सिटी में हो रहा है, उस से लगता है कि जल्दी ही यह तसवीर बदल जाएगी. असल में, कोर्नेल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता रोबोट में ऐसी क्षमता विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि किसी धारदार चीज को हाथ में लेते समय उन में इस से पैदा होने वाले खतरे का एहसास हो सके. रोबोट यह जान सकने योग्य बनाए जा रहे हैं कि कांच जैसी आसानी से टूटने वाली चीजों को किस तरह संभालना है.

हालात के मुताबिक खुद सोच सकने वाले ऐसे रोबोट को ‘बैक्सटर’ नाम दिया गया है. ‘बैक्सटर’ अगर किसी मामले में कोई गलती करता है, तो उस के साथ मौजूद रहने वाला ह्यूमन हैंडलर उस केहाथ की दिशा ठीक कर देता है. यह काम तब तक दोहराया जाता है, जब तक कि रोबोट में कुछ खास किस्म के काम कर सकने की समझ विकसित नहीं हो जाती. लेकिन रोबोट में चीजों में अंतर करने की समझ विकसित करना आसान नहीं है. यों रोबोट्स को इंसान जैसा बनाने की जो कोशिशें चल रही हैं, उन्हें देखते हुए लगता है कि जल्द ही कोई ऐसा रोबोट सामने आएगा जिस से यह फर्क करना मुश्किल हो जाएगा कि वह मशीन है या जीवित प्राणी. पर क्या इस का पता किया जा सकेगा कि कोईर् रोबोट इंसान जैसा हो गया है क्योंकि अभी हम यह मानने को तैयार नहीं कि हमारे हावभाव की नकल करने वाली मशीन इंसान जैसी आखिर कैसे हो सकती है. एक ऐसी मशीन, जो हमारी तरह सोचसमझ नहीं सकती, हमारी जैसी चेतना नहीं रखती, जो इमोशंस की सिर्फ नकल कर रही होगी, यह असली नहीं हो सकती. वह तो रोबोट ही रहेगी, पर वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि असली और नकली का यह अंतर जल्दी ही मिटने वाला है. ऐसा दावा करने वाले वैज्ञानिक एक अनुमान लगाने को कहते हैं. वे कहते हैं कि यदि रोबोट को ऐसा बना दिया जाए कि वह हाड़मांस का लगे, तो हम उसे तब तक इंसान ही समझेंगे, जब तक कि वह खुद हमें न बताए कि  वह तो रोबोट है.

जिंदा हो रही मशीन

कोई चीज जड़ या चेतन या फिर कोई मशीन है या इंसान जैसा जीव इस का फर्क तो हम सामने से देख कर आसानी से कर लेते हैं, पर यदि आप के सामने एक परदा हो और उस पार कोई अजनबी, जिसे आप देख नहीं सकते, तो उसे पहचानना मुश्किल होगा. खासतौर से तब जब दूसरी तरफ से आप को सही जवाब मिल रहे हों.

कहा जा रहा है कि जिस दिन इंसानों की तरह बात और व्यवहार करने वाले रोबोट बना लिए जाएंगे, तब मशीनों को जिंदा ही मान लिया जाएगा. तब रोबोट एक ऐसी मशीन के  रूप में हमारे सामने होगा जो हम से बातचीत कर रहा होगा, हमारी भावनाओं को समझ रहा होगा और हमारे आदेशनिर्देश समझ कर कोई सही फैसला कर रहा होगा. हजारों तरह के कीड़े और जीव प्रजातियां तो हम से बात भी नहीं करतीं, पर हम उन्हें जिंदा मानते हैं. फिर यदि रोबोट सोचनेमहसूस करने की जरा भी योग्यता दर्शाने लगें, तो उन्हें जीवित मान लेने में क्या हर्ज है?

असल में चेतन और जड़ (लाइफ और नौनलाइफ) के बीच जो दूरी या परदा था, अब वह खत्म होता लग रहा है, क्योंकि मशीनें हमारे जीवन में काफी भीतर तक घुसपैठ कर चुकी हैं. कह सकते हैं कि मशीनें जिंदा होने जा रही हैं जिन से सारे समीकरण बदल सकते हैं. वैसे इस बदलाव के काफी संकेत तो अत्यधिक स्मार्ट हो चुके मोबाइल फोन, कंप्यूटर और इशारे से चलने और बंद होने वाली हमारे रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली मशीनें दे ही रही हैं, पर बड़ी तबदीली शायद रोबोट्स की वजह से आने वाली है.

यह तबदीली कैसी होगी, इस का संकेत यूरोप में चलाए जा रहे फेलिक्स ग्रोविंग प्रोजैक्ट से मिलता है. फेलिक्स का मतलब है फीलिंग (एहसास), इंटरैक्ट (क्रियाप्रतिक्रिया) और ऐक्सप्रैस (अभिव्यक्ति). इस के तहत रोबोटिक्स, साइकोलौजी और न्यूरो साइंस के कई विशेषज्ञों की साझा मेहनत से तैयार होने जा रहे रोबोट में पहली बार भावनाएं पैदा की जाएंगी. ऐसे रोबोट अपनी मशीनी आंखों, कानों और सैंसर्स से आसपास के माहौल को पहचानेंगे, अपने मालिक के इशारों, संकेतों और भावों को समझेंगे और जवाब में वैसी ही प्रतिक्रिया देंगे, जैसी जीवित प्राणी देते हैं.

रोबोट को लोग अपने नौकर या पालतू जानवर की तरह इस्तेमाल कर सकेंगे. वह सोनी के मशीनी कुत्ते ऐबो और होंडा के रोबोट आसिमो से कईर् पीढ़ी आगे का होगा. ऐबो चेहरे पहचानता है और अपने मालिक की कमांड सीखता है. आसिमो इस से थोड़ा आगे है. वह नाच भी सकता है. फुटबौल खेल सकता है पर ये दोनों हैं तो रोबोट ही.

खत्म हो रहा है फासला

अभी भले ही लोग यह फर्क कर पाएं कि इंसान जैसे दिखने के बावजूद कोई मशीन असल में रोबोट है और इंसान उन से अलग है, पर एक मशहूर वैज्ञानिक रे कुर्जवेल जल्दी ही इस अंतर के  खत्म होने की उम्मीद कर रहे हैं. कुर्जवेल का दावा है कि आने वाले कुछ ही वर्षों में रोबोट भी प्रयोगशाला रूपी कक्षाओं में नई चीजें सीखते और इस बारे में जानकारी को एकदूसरे से साझा करते दिखाई दे रहे होंगे कि वे हर मामले में इंसानों को कैसे पीछे छोड़ सकते हैं.

असल में इस उद्देश्य से रोबोट्स के लिए खासतौर से ऐसा वर्ल्ड वाइड वैब तैयार किया जा रहा है जहां वे इंसानी खूबियों को सीखेंगे. इस वर्ल्ड वाइड वैब का नाम है, ‘रोबोअर्थ’ और ‘रोबो ब्रेन’. रोबोअर्थ की जानकारियों का स्रोत प्रोग्रामिंग है, जबकि रोबो ब्रेन इंटरनैट से मिली सूचनाओं के प्रति खुद अपनी समझ बनाता है. रोबो बे्रन केवल वस्तुओं को पहचानता ही नहीं है बल्कि उस में मनुष्यों की भाषा और व्यवहार जैसी जटिल चीजों  को समझने की भी क्षमता है. यदि कोई रोबोट ऐसी स्थिति में फंसता है, जिस से उस का पहले कभी सामना नहीं हुआ था, तो वह रोबो ब्रेन से सलाहमशविरा कर सकता है.

असल में रोबो ब्रेन को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचना स्रोतों से कई प्रकार के हुनर और ज्ञान को हासिल कर ले. इस ब्रेन से संपर्क रखने वाले दुनिया के किसी भी हिस्से में मौजूद अन्य रोबोट अपने रोजमर्रा के कार्यों के लिए रोबो ब्रेन में जमा सूचनाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं. रोबोअर्थ नामक वैब का विकास करने वाले वैज्ञानिक इंडोवेन यूनिवर्सिटी में बनाए गए एक प्रायोगिक अस्पताल में ऐसी प्रणाली बना रहे हैं, जिस का मकसद रोबोटों को इस लायक बनाना है ताकि वे अपनी जानकारियों को डाटाबेस में डाल सकें. डाटाबेस में पहुंचाई गई ये सूचनाएं सभी मशीनों के साथ एक खास कृत्रिम मस्तिष्क के जरिए दूसरे रोबोटों से साझा की जाएंगीं.

रोबोअर्थ परियोजना के मुखिया रेने वान दे मोलेनग्राफ्ट के मुताबिक, रोबोअर्थ असल में रोबोटों के लिए तैयार किया गया एक ऐसा वर्ल्ड वाइड वैब है, जिस का विशाल नैटवर्क है. लंबेचौड़े आंकड़ों का गोदाम इस की खासीयत है. इस वैब पर रोबोट अपनी जानकारियां एकदूसरे से बांटेंगे और एकदूसरे से सीखेंगे भी. इस प्रणाली को जांचने के लिए 4 ऐसे रोबोट चुने गए हैं, जो अस्पताल में आने वाले मरीजों की मदद के लिए मिलजुल कर काम करेंगे. ये रोबोट काम कैसे करेंगे, इस का भी एक खाका तैयार है. जैसे इन में से एक रोबोट अस्पताल में भरती मरीज के बैड या कमरे का नक्शा वैबसाइट पर अपलोड करेगा, ताकि मरीज से मिलने वालों को यहां पहुंचने में कोई परेशानी न हो. इसी तरह दूसरा रोबोट ऐसे संदेश प्रसारित करेगा, जिस से मरीजों को पेय पदार्थ जल्दी और आसानी से मिल जाएं. इस तरह लग रहा है कि जल्दी ही कई तरह के सार्वजनिक कार्यों में रोबोट की मदद ली जाने लगेगी.

अभी जो सब से बड़ी समस्या है, वह यह है कि हम इंसान जिन कामों को आसानी से करते हैं, रोबोट के लिए वे सभी काम मुश्किल होते हैं, जबकि जो काम इंसानों के लिए कठिन माने जाते हैं, उन्हें रोबोट आसानी से कर लेते हैं. जैसे, लावा उगलते ज्वालामुखी में उतरना या समुद्र की गहराइयों में किसी चीज को खोज निकालना ऐसे सक्षम रोबोट अब अस्तित्व में हैं पर चाय का गरम प्याला उलटने से हाथ जल सकता है, यह समझ रोबोट में प्राय: नहीं होती.

खतरा क्या है

सवाल यह है कि जब रोबोट इंसानों जैसी समझ आदि से जुड़ी बहुत सारी बातें सीख रहे हैं, तो उन से खतरा क्या है? उन्हें तो यही सिखाया जा रहा है कि कैसे किसी आदेश का पालन किया जाए या कैसे किसी परिस्थिति का सामना किया जाए? यह तो हम इंसानों के लिए अच्छी बात है कि हमारे काम में मददगार रोबोट हमारे आसपास होंगे पर असल में खतरा यही है. वैज्ञानिकों के मुताबिक एक जिंदा और बुद्धि से लैस रोबोट अगर हमारी सारी भावनाओं को समझने लगेंगे, तो उसी वक्त हमइंसानों की हस्ती खतरे में पड़ जाएगी. यह मामला मशीनों के जिंदा हो जाने का है.

एक खतरा तो यह हो सकता है कि हमारी किसी बात पर रोबोट रूठ जाए, तुनक जाए या क्रोधित हो जाए. ऐसी स्थिति में वह हमारे लिए समस्या पैदा कर सकता है. क्या पता हमला ही कर बैठे. यही नहीं, वह या तो आदेश का पालन करने से इनकार कर दे. संभव है कि वह अपने लिए आदरणीय संबोधन का इंतजार करे और कहे कि मिस्टर, जरा तमीज से पेश आइए. आखिर जब रोबोट जैसी मशीनें हमारी भावनाओं को समझने लगेंगी, तो वे अपने सम्मान की फिक्र भी तो करने लगेंगी. यह भी सकता है कि भविष्य की मशीनें हम से भी ज्यादा समझदार हों. वे चुपचाप विकसित होती रहें और हमें इस की भनक न लगने दें यानी तब सब से बड़ा खतरा हम इंसानों के लिए होगा. शायद यही वजह है कि दुनिया में कुछ लोग अभी से रोबोटों को मानवाधिकार देने की बात करने लगे हैं. ब्रिटिश सरकार के एक अध्ययन के अनुसार अगले 20 से 50 वर्ष में रोबोट्स को उन के हक देने होंगे. यही नहीं, दक्षिण कोरिया में कुछ वैज्ञानिक तो रोबोटों के लिए नैतिक नियम तय कर रहे हैं, ताकि वे इंसानों को नुकसान न पहुंचाना सीख लें. पर क्या एक दिन रोबोट इंसानों पर हमला कर देंगे? यह आशंका भी अकसर जताई जाती है, क्योंकि जिस तरह से उन्हें बुद्धिमान बनाने के प्रयास हो रहे हैं, मुमकिन है कि एक दिन वे इंसानों से हर मामले में आगे निकलना चाहें और दुनिया पर कब्जा करना चाहें.

‘बैक्सटर’ जैसे रोबोट को ले कर अभी से सी बातें की जा रही हैं, पर वैज्ञानिक कहते हैं कि अगले 500 साल में तो ऐसा नहीं होगा. अगर किसी रोबोे के हाथों कोई खून होगा तो वह गलत कमांड या रोबोट से भूलवश ही होगा. ऐसे कुछ हादसे विदेश में और भारत में गुड़गांव तक में हो चुके हैं, पर अंतत: वे हमारी बनाई मशीनें हैं जिन्हें हमारे ही निर्देशों की जरूरत है. बिना मानवीय दखल के रोबोट विद्रोह तो हरगिज नहीं कर सकेंगे.

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