सिनेमा में फराज अंसारी एलजीबीटीक्यू समुदाय के चित्रण को ले कर विशेष समझ रखते हैं. उन का मानना है कि एक ‘गे’ फिल्मकार ही सिनेमा में ‘गे’ किरदार को असल न्याय दे सकता है. इसीलिए समाज की समलैंगिकता, स्त्री व मुसलिम विरोधी प्रकृति को उजागर करने के मकसद से वे फिल्म ‘शीर कोरमा’ ले कर आए हैं. 1996 में जब फिल्म ‘फायर’ आई थी, उस वक्त फिल्म के पोस्टर पर 2 महिला कलाकारों को एकदूसरे के प्यार में खोए हुए देखा गया था और अब 25 वर्षों बाद ‘शीर कोरमा’ के पोस्टर में लोग ऐसा देख रहे हैं. यह महज संयोग है कि इन दोनों फिल्मों में शबाना आजमी हैं. 25 वर्षों बाद यह साहस फिल्मसर्जक फराज अंसारी ने दिखाया है.

लेखक, निर्माता, निर्देशक, अभिनेता फराज अंसारी कभी खुद डिस्लैस्किया से पीडि़त रहे हैं और ‘डिस्लैक्सिया’ पर अमेरिका में एक लघु फिल्म भी बनाई थी. उसी के चलते मुंबई में उन्हें ‘डिस्लैक्सिया’ पर आधारित आमिर खान व दर्शील सफारी वाली फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में एसोसिएट डायरैक्टर के रूप में काम करने का अवसर मिला. उस के बाद फराज अंसारी ने बतौर एसोसिएट निर्देशक फिल्म ‘स्टेनली का डिब्बा’ भी की. फिर स्वतंत्ररूप से काम करते हुए भारत की एलजीबीटीक्यू प्रेम कहानी पर मूक फिल्म ‘सिसक’ बनाई, जिसे 60 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. अब उन्होंने समाज की समलैंगिकता, स्त्री विरोधी और प्रतिगामी प्रकृति को उजागर करने के मकसद से फिल्म ‘शीर कोरमा’ का लेखन, निर्माण व निर्देशन किया है. ‘शीर कोरमा’ एलजीबीटीक्यू समुदाय पर बनी पहली फिल्म है जिस में सारे किरदार औरतें हैं. फिल्म की कहानी एक मुसलिम परिवार से आने वाली लेस्बियन महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती है जो एकदूसरे से प्यार करती हैं.

फिल्म ‘शीर कोरमा’ कई वर्जनाओं को चुनौती देती है और कुछ समुदायों या लोगों के समूहों को सौंपी गई रूढि़यों को तोड़ने की कोशिश करती है. शबाना आजमी, दिव्या दत्ता और स्वरा भास्कर के अभिनय से सजी फिल्म ‘शीर कोरमा’ ने पूरे विश्व के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में न सिर्फ हंगामा बरपा रखा है बल्कि 10 से अधिक पुरस्कार भी हासिल कर लिए हैं. हाल ही में फिल्म ‘शीर कोरमा’ को इंडियन फिल्म फैस्टिवल औफ मेलबर्न (आईएफएफएम) में ‘इक्वैलिटी इन सिनेमा’ के अवार्ड से नवाजा गया. फराज ने अमेरिका में रहते हुए डिस्लैक्सिया पर एक लघु फिल्म बनाई थी. जब उन से पूछा गया कि वहां काम के दौरान बच्चों के साथ जो कुछ उन्होंने सीखा, क्या वह ‘तारे जमीं पर’ में भी काम आया. इस पर वे बताते हैं, ‘‘उस सीख ने मेरी बेहिसाब मदद की. भारत में बच्चों के साथ काम करने की समझ ही नहीं है. बच्चों से अभिनय कराने के लिए सब से पहले खुद एक इंसान बनना पड़ता है. आप अच्छे इंसान न हों तो भी आप को अच्छा इंसान बनना पड़ता है. ‘‘इस के अलावा, बच्चों का दोस्त बनना पड़ता है.

आप बच्चों के साथ निर्देशक जैसा व्यवहार नहीं कर सकते. आप को उन के स्तर पर जा कर उन की भाषा में बात करनी पड़ती है. इस का मुझे ज्ञान था.’’ फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में आमिर को ले कर फराज कहते हैं, ‘‘आमिर खान फिल्म में इंटरवल के बाद आते हैं. फिल्म की कहानी तो दर्शील सफारी के बारे में थी. आमिर खान के आने से फिल्म में स्टार पावर आ गया था. इस ने फिल्म को ज्यादा लोगों तक पहुंचाया. फिर आमिर खान बेहतरीन कलाकार हैं.’’ पर जब उन से कहा गया कि कुछ लोगों की राय में फिल्म ‘तारे जमीं पर’ का माइनस पौइंट आमिर खान थे तो वे कहते हैं, ‘‘फिल्म देखने से पहले यूएसपी आमिर खान थे. मगर फिल्म देखने के बाद लोगों को फिल्म की यूएसपी दर्शील सफारी नजर आया. फिल्म देख कर लोगों की अपने बच्चों के प्रति सोच बदली.’’ सिनेमा की शुरुआत मूक फिल्मों से हुई थी, पर बाद में बंद हो गई. 1987 में मूक फिल्म ‘पुष्पक’ बनी. ऐसे ही फराज ने भी अपनी मूक फिल्म ‘सिसक’ बनाई. इस संबंध में फराज कहते हैं, ‘‘हमारी फिल्म ‘सिसक’ 2 पुरुषों की प्रेम कहानी थी. ये दोनों मुंबई में लोकल ट्रेन में मिलते हैं और इन के बीच मोहब्बत हो जाती है.

इस फिल्म में 2 पुरुषों की मोहब्बत को दर्शाया गया है. यह एलजीबीटी फिल्म थी, मगर इस में संवाद नहीं थे. ‘‘यह 2016 में बनी थी. उस वक्त होमोसैक्सुअलिटी को ले कर सैक्शन 377 अपराध था. वैसे कुछ समय के लिए रद्द हुआ था पर फिर यह अस्तित्व में आ गया था. अब तो खैर यह अपराध नहीं रहा. उन दिनों मेरे तमाम दोस्तों ने अपनी सचाई के साथ जिंदगी जीने के लिए काफी संघर्ष किया था. पर जब कानून फिर से अस्तित्व में आया था तब उन्हें काफी तकलीफ हुई थी. ‘‘उस वक्त एलजीबीटी समुदाय के लोगों को एहसास हुआ था कि हमें कुछ पलों की जो आजादी मिली थी वह छीन ली गई. उसी एहसास को दिखाने के लिए बिना संवाद की यह फिल्म बनाई थी. मैं दिखाना चाहता था कि 2 लोगों के बीच बिना कुछ कहे, बिना एकदूसरे को छुए भी मोहब्बत हो सकती है. मोहब्बत को दुनिया का कोई कानून नहीं रोक सकता. यदि मोहब्बत होनी है तो उसे कोई नफरत भी नहीं रोक सकती. मोहब्बत को इंसान या खुदा कोई नहीं रोक सकता. मोहब्बत होनी है तो वह हो कर रहेगी.’’ ‘सिसक’ के बाद फराज अंसारी ने होमो सैक्सुअलिटी पर फिल्म न बनाने की बात कही थी.

पर उन्होंने अपनी नई फिल्म ‘शीर कोरमा’ फिर उसी विषय पर बनाई है. इस बारे में पूछने पर वे बताते हैं, ‘‘मैं ने ‘सिसक’ और ‘शीर कोरमा’ के बीच ‘दूल्हा वांटेड’ और नैटफ्लिक्स के लिए ‘बिग डे’ बनाई. दोनों बहुत अलग और बड़े स्तर के काम थे, जिस से लोगों की समझ में आया कि मैं बड़े स्तर का भी काम कर सकता हूं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा एलजीबीटीक्यू+ कम्युनिटी के संबंधों को अपराध न मानने का आदेश जारी होने के बाद आज भी समाज इन्हें स्वीकार नहीं कर पाया. समाज में इस की स्वीकार्यता न हो पाने पर फिल्म के माध्यम से इस विषय को उठाया गया है. फराज कहते हैं, ‘‘हम चाहे जितने कानून व संविधान संशोधन कर डालें, पर जब तक समाज के अंदर समझदारी नहीं बढ़ेगी तब तक हम पुरानी दुनिया में ही रहेंगे. ‘‘आज अगर मैं एक लड़के का हाथ पकड़ कर अपने घर से निकलूंगा तो दुनिया मुझे अपराधी की ही नजर से देखेगी. इस नजरिए को बदलने के लिए बारबार ‘शीर कोरमा’ जैसी फिल्म बनाने की जरूरत है. इस मुद्दे को सामान्य करने की जरूरत है. हर इंसान को समझना होगा कि ‘गे’ अथवा एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का इंसान भी एक आम इंसान की ही तरह मोहब्बत करता है.

एलजीबीटी समुदाय का इंसान भी हमारे जैसा ही है. यही बात हमारी फिल्म ‘शीर कोरमा’ भी कहती है. हमारी फिल्म कहती है कि मोहब्बत गुनाह नहीं है. जब तक हम एकजुट हो कर आवाज नहीं उठा सकते तब तक समाज में बदलाव नहीं आएगा.’’ महिला लैस्बियन के मुद्दे पर ‘डौली किट्टी और सितारे’ सहित कई फिल्में बन चुकी हैं. उन से पूछा गया कि क्या इन फिल्मों में एलजीबीटी+ से जुड़े मुद्दे सही ढंग से आ नहीं पाए? इस बारे में फराज कहते हैं, ‘‘पहली बात तो यह है कि इन सभी फिल्मों के लेखक व निर्देशक एलजीबीटी समुदाय से संबंध नहीं रखते हैं तो फिल्म में जिस नाजुक तरीके व संजीदगी से रिश्तों को दिखाना है, वह कभी किसी फिल्म में आया ही नहीं. ‘‘इन फिल्मों में जिया हुआ अनुभव व एहसास होने के बजाय शोधकार्य ही है. जो इंसान उस जिंदगी को जिया होता है उसे ही वह अनुभव होता है. जब मैं स्कूल में था, मेरी बुलिंग होती थी, मुझे इतना परेशान किया जाता था, उस के बावजूद मैं आज एक मुकाम पर पहुंच कर अपनी कहानियों को खुलेदिल से दर्शा रहा हूं. ‘

‘इस यात्रा का तत्त्व बेहतर ढंग से मैं ही दिखा सकता हूं. शोध करने वाला उसे उस हिसाब से नहीं दिखा सकता. सब से बड़ी बात यह है कि इन फिल्मों में सचाई व संजीदगी का घोर अभाव है, इसलिए ये फिल्में लोगों के दिलों को नहीं छू पाईं. यदि आप किसी मुद्दे को अपनी फिल्म में उठा रहे हैं तो पहले उस मुद्दे को समझिए. उस मुद्दे को समझ कर उसे सामान्य बनाएं. जब तक आवाज दिल से नहीं आएगी तब तक उस आवाज में मजा नहीं आएगा.’’ यह दिलचस्प है कि जिस समय फराज ‘शीर कोरमा’ बना रहे थे, उस वक्त आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ प्रदर्शित हुई थी. इस फिल्म में भी मां द्वारा अपने बेटे की स्वीकृति का मसला था. इस संबंध में दोनों फिल्मों की तुलना में फराज कहते हैं, ‘‘पहली बात तो आयुष्मान खुराना की फिल्म के लेखक व निर्देशक दोनों ही ‘गे’ यानी कि एलजीबीटी+ समुदाय से नहीं थे. शोधकार्य पर आधारित उन की फिल्म काफी सीमित थी. ‘‘दूसरी बात, फिल्मकार एलजीबीटी समुदाय पर फिल्म बनाते हुए लोगों को हंसाने के लिए उस में बेवजह कौमेडी भर देते हैं. लोग भूल जाते हैं कि लोग उन पर हंस रहे हैं या उन के साथ हंस रहे हैं.

परिणामतया सुधार या प्रगति के बजाय ये फिल्में नुकसान पहुंचाती हैं. तीसरी बात कि इस फिल्म में कई समस्याएं थीं. किसी भी चीज या दृश्य को सामान्य नहीं बता रहे है, बल्कि हर चीज का मजाक उड़ा रहे हैं अथवा कैरीकेचर कर रहे हैं.’’ भारत में ‘गे’ यानी कि एलजीबीटीक्यू समुदाय पर बनी फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते हैं. इस पर फराज कहते हैं, ‘‘ऐसा होमोफोबिया के चलते होता है. भारतीय होमोफोबिक बने हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने तो एलजीबीटीक्यू समुदाय को आजादी दे दी मगर भारतीय समाज स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. मजेदार बात यह है कि ओटीटी प्लेटफौर्म पर ‘गे’ फिल्में ज्यादा देखी जा रही हैं. गे/क्वीर कंटैंट केवल ओटीटी प्लेटफौर्म पर मौजूद होना चाहिए, यह भी एक होमोफोबिक बात है. ‘‘क्वीर फिल्में सिनेमाघरों में क्यों नहीं प्रदर्शित होनी चाहिए. हमें लगातार एकदूसरे को अपने पूर्वाग्रहों की याद दिलाते रहने की जरूरत है. हम सभी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. मुझे लगता है कि जब ‘शीर कोरमा’ जैसी फिल्में बनती हैं तो ये लोगों के पूर्वाग्रहों और भावनाओं को उजागर करती हैं. हमारे पास अच्छी और ईमानदार क्वीर फिल्में न होने का कारण होमोफोबिया की मौजूदगी है.

यह एक दुखद वास्तविकता है.’’ फिल्म ‘शीर कोरमा’ के बारे में फराज बताते हैं, ‘‘पहले मैं यहां यह याद दिला दूं कि जिस वक्त फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी, उसी वक्त हमारी फिल्म ‘शीर कोरमा’ का ट्रेलर रिलीज हुआ था. आप यकीन नहीं करेंगे, मगर ‘गे’ समुदाय के लोगों ने फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ के पोस्टर, ट्रेलर, फोटो आदि को खूब शेयर किया, पर किसी ने भी ‘शीर कोरमा’ का ट्रेलर वगैरह शेयर नहीं किया. ‘‘इस की पहली वजह यह थी कि हमारी फिल्म में लैस्बियन औरतों की कहानी है. हम औरतों को इस रूप में देखना नहीं चाहते. दूसरी बात हमारी फिल्म एक मुसलिम परिवार के बारे में है. हम इतना अधिक ‘इसलामिक फोबिया’ से ग्रसित हैं कि अगर कोई लिखता है कि यह एक आम मुसलिम परिवार है, इस परिवार में कोई आतंकवादी नहीं है, हरे रंग के घर में नहीं रह रहा है और इस परिवार का कोई भी सदस्य पांचों वक्त की नमाज नहीं पढ़ रहा है, आंख में सुरमा लगा, टोपी और सफेद कुरता पहन कर बातें नहीं कर रहा है तो लोगों को यह इसलाम समझ में नहीं आता है. ‘‘मगर हमारी इस फिल्म में यही है. हमारी फिल्म में सभी उच्चशिक्षित हैं.

हमारी फिल्म में मां की भूमिका निभा रही शबाना आजमी साड़ी पहनती हैं. कुछ लोगों ने मुझ से सवाल भी किया कि, ‘तुम्हारी फिल्म में जब शबाना आजमी साड़ी पहनती हैं तो फिर वे मुसलिम कैसे हैं?’ तब मैं ने उन्हें जवाब दिया कि साड़ी का कोई मजहब नहीं होता. मेरी मां बचपन से साड़ी पहनती आई हैं. किसी ने पूछा कि, ‘तुम्हारी फिल्म में उर्दू भाषा नहीं है?’ मैं ने कहा कि उर्दू भाषा का भी कोई मजहब नहीं होता. किसी ने कहा कि, ‘फिल्म में शीर कोरमा है, शीर कोरमा तो सिर्फ मुसलिम पीते हैं?’ मेरी राय साफ है कि जबान या पोशाक या खाने का कोई मजहब नहीं होता. ‘‘अब तक सामान्य मुसलिम परिवार की फिल्म कभी बनी ही नहीं है. हर फिल्म में मुसलिम किरदार बारबेरियन या आतंकवादी या गुंडे या बड़ेबड़े बालों के साथ भारत पर कब्जा करने वाले ही दिखाई देते हैं. हाल ही में राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘तूफान’ में भी फरहान अख्तर को ऐसा मुसलिम दिखाया गया है जो मारामारी करता है.

खून बहाता है अथवा सिनेमा के शुरुआती दौर में फिल्म के अंदर हम ने उन मुसलिमों को देखा है जो तवायफ, रंडी, कोठे पर बैठती थीं, जो नाचती थीं, जो मुजरा करती थीं, जो उमराव जान थीं, पाकीजा थीं. ‘‘मैं मुसलिमों की इस छवि को बदलना चाहता था क्योंकि मेरे परिवार में कोई नहीं कहता कि ‘माई नेम इज खान एंड आई एम नौट ए टैररिस्ट.’ मुझे अपनी फिल्म में दिखाना था कि मुसलिम परिवार की महिलाएं साड़ी पहनती हैं. ऐसा मुसलिम परिवार है जिस के घर में एक हिंदू बहू है. एक हिंदू दामाद और एक कैथोलिक दामाद है. हमारी फिल्म राष्ट्रीय व सैक्यूलरिजम की कहानी है. हमारी एकता ही भारत को सुपर पावर बनाती है. हमारी फिल्म एक परिवार के बारे में है. ‘‘मेरी राय में समाज में बदलाव लाने के लिए मेनस्ट्रीम वाला सिनेमा बनाना पड़ेगा. ‘शीर कोरमा’ मेनस्ट्रीम वाली फिल्म है. यह फिल्म हर उम्र, हर पीढ़ी, हर लिंग व हर धर्म के लोगों से बात करेगी.’’

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