लेखक- शुभम पांडेय गगन
हर बार की तरह आज भी बड़ी बेसब्री के बाद यह त्योहार वाला दिन आया है. पूरा औफिस ऐसे खाली है, जैसे कोई बड़ा सा गुल्लक, लेकिन उस में एक भी चिल्लर न हो. आज मैं भी बहुत खुश हूं. आखिरकार पूरे 8 महीने बाद घर जा रहा हूं, जहां मां, पत्नी और अपनी ससुराल से अगर दीदी आई होंगी तो मेरा इंतजार कर रही होंगी. सब से खास बात यह कि त्योहार भी होली का ही है. हर तरफ खुशी का माहौल है. दुकानों पर रंगगुलाल बिकने लगे हैं. बच्चों का झुंड भूखे भेड़ के झुंड की तरह रंगों पर टूट पड़ा है. अजीब नजारा है और मन ही मन में मौज की लहरें दिल के सागर में गोता लगा रही हैं. इन सब को देख कर अपना बचपन किसी फिल्म की तरह सामने चलने लगता है.
यह सब देखतेदेखते मैं अपने क्वार्टर पर पहुंचा. भागदौड़ के साथ जल्दबाजी में एक बैग में कपड़े, चार्जर, लैपटौप वगैरह रख स्टेशन के लिए आटोरिकशा पकड़ने भागा. आटोरिकशा वाला मिला. मैं ने कहा, ‘‘चल भाई, झटपट स्टेशन पहुंचा दे.’’ आटोरिकशा वाला अपनी चिरपरिचित रफ्तार में आटोरिकशा ले कर चलने लगा और हमेशा की तरह मुंबई की सब से बड़ी मुसीबत ट्रैफिक जाम सुरसा की तरह रास्ते में मुंह फैलाए खड़ी थी. आज ट्रैफिक जाम बिलकुल वैसे लग रहा है, जैसे किसी प्रेमिका को सावन की ठंडी बूंदें भी तपती ज्वाला की तरह लगती हैं. हौलेहौले बढ़ता आटोरिकशा… मानो लग रहा है कि हर सैकंड में 24 घंटे का समय बिता दें.
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ट्रैफिक खुला और आटोरिकशा सरपट भागा. अपनी मंजिल को पा कर ही आटोरिकशा रुका. मैं ने पैसे पहले ही निकाल कर रखे थे रोज के अंदोज से. मैं ने झट से उसे पैसे थमाए और अंदर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए, तभी पीछे से आटोरिकशा वाले की आवाज आई, ‘‘भाई, बाकी पैसे ले लो.’’ मैं ने हाथ उठाते हुए कहा, ‘‘भैया, दीवाली का शगुन समझ कर रख लो.’’ वह मुसकराया और वापस मुड़ गया. मैं स्टेशन के अंदर दाखिल हुआ और गाड़ी का पता किया, जो पूरे एक घंटे की देरी से थी. चूंकि मेरी एयरकंडीशंड कंपार्टमैंट में सीट थी, तो कोई समस्या होने से रही. स्टेशन पर ही बगल की दुकान से मैं ने एक पत्रिका ली और समय बिताने के लिए वेटिंगरूम में आराम से बैठ गया. मैं ने पत्रिका खोली और नएनए मुद्दों पर लिखे लंबेचौड़े लेख पढ़ने लगा. खाली बैठने पर अकसर लोग यही करते हैं. वहां मुश्किल से 8 या 10 लोग होंगे और सब अपने फोन में बिजी दिख रहे थे. आजकल डिजिटलीकरण के दौर में उम्मीद भी यही की जा सकती है. मैं डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल कम ही करता हूं.
मैं किताबों का बड़ा शौकीन हूं. बचपन से मुझे पढ़ना बहुत पसंद है और समय मिलते ही मैं किसी न किसी पत्रिका या किताब में खो जाता हूं और उसे समझने की कोशिश करता हूं. मैं काफी देर से ही पत्रिका पढ़ रहा था, तभी मेरी नजर अचानक सामने वाले कौर्नर पर बैठी एक लड़की पर पड़ी. मैं उसे देखता रह गया. वह बेहद खूबसूरत थी, जिस की उम्र तकरीबन 25 साल रही होगी. गोरा बदन, हिरन जैसी आंखें, होंठ सुर्ख गुलाबी मूंगे जैसे चमक रहे थे. वह अपने फोन में बिजी थी. शायद वह कुछ देख रही थी या सुन रही हो, हैडफोन जो लगाया था उस ने. उस लड़की ने गुलाबी टौप और नीली जींस पहनी हुई थी, जो उस के बदन की कसावट में खुद को कसे जा रहे थे. मैं पत्रिका से छिपछिप कर उसे देखता रहा, तभी अचानक रेलवे की सूचना ने मेरी तंद्रा तोड़ी. मेरी ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई थी और मैं अपनी सीट पर जा कर बैठ गया. अभी ट्रेन चलने में 15 मिनट बाकी थे. मैं ने उतर कर पानी की बोतल खरीदी और चढ़ने लगा. बोगी में तभी वह लड़की मेरी तरफ आती दिखी. मैं डब्बे में लगे हैंडल को पकड़े उसे निहारने लगा. वह मेरे एकदम करीब आ कर बोली, ‘‘हैलो, रास्ता देंगे आप?’’ मैं अचानक खयालों की दुनिया से बाहर आया और उसे रास्ता दिया. वह मेरे ही कंपार्टमैंट में चढ़ गई और मेरे ही सीट के ठीक सामने वाली सीट पर बैठ गई. सच बताऊं, मैं तो मन ही मन बहुत खुश हुआ.
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अब हमारे साथ सिर्फ रात और एक लंबा सा सफर था. मैं भी अपनी सीट पर आ कर बैठ गया. थोड़ी देर बाद ट्रेन चल दी और मैं ने हिम्मत कर के उस का नाम पूछा. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘प्रिया.’’ प्रिया की मीठी आवाज ने मन को अजब ही सुकून दिया, फिर हमारी औपचारिक बात शुरू हो गई जैसे काम, छुट्टी, मुंबई की वगैरह. बातों ही बातों में पता चला कि वह यहां फैशन मौडलिंग की पढ़ाई और मौडलिंग दोनों करती है. मैं ने उस से बोल दिया, ‘‘आप बेहद खूबसूरत हैं. मन करता है कि आप को देखता रहूं.’’ यह सुन कर वह मुसकरा दी. हमारी बातें आगे बढ़ीं और मुझे ऐसा लग रहा था, वह भी मेरे करीब आ रही है. तभी खाने का और्डर लेने वाला आया और हम ने और्डर दिया. अब मैं फिर उस से बातें करने लगा और धीरेधीरे हम मुंबई को पीछे छोड़ रहे थे, लेकिन एकदूसरे के करीब आ रहे थे. मैं घरपरिवार, अपनी सीमाओं को दिमाग में न याद आने वाले हिस्से में छोड़ कर पुराने समय में जब मैं कुंआरा था, वहां प्रवेश कर चुका था. उस से पता चला कि वह मेरे शहर में उस की दीदी के यहां जा रही है.
वह उन से 5 साल बाद मिल रही है, जो उन की बूआ की बेटी हैं. धीरेधीरे हम दोनों में अच्छी बौंडिंग बन गई. हम ने खुल कर बातें करनी शुरू कर दीं और कई बार मैं ने उसे नौनवैज चुटकुले सुनाए, जिस पर उस ने कंटीली मुसकान दी. मैं ने मौडलों के बारे में सुना था कि वे बड़ी तेज होती हैं और आज देख भी लिया. प्रिया ने यह भी बताया कि उस का एक बौयफ्रैंड था, जिस से उस का अब ब्रेकअप हो गया है, क्योंकि वह किसी और को भी डेट कर रहा था. मैं ने उस से झूठ बोल दिया कि मैं तो सिंगल हूं. उस की खूबसूरती में इतना डूबा था कि अपना वजूद ही भूल गया था कि मेरा तो सबकुछ वह है, जो घर पर मेरा इंतजार कर रही है. तभी अचानक बोगी के बाहर आवाज हुई. खाने वाला आया था. हम दोनों ने खाना खाया. उस के बाद हम ने सोने की तैयारी की और अपनीअपनी सीट पर लेटेलेटे हम दोनों बातों में फिर मशगूल हो गए. बातोंबातों में कभीकभी मैं अपने हाथ उस की पीठ पर छू देता था, लेकिन उस ने कभी बुरा नहीं माना. वह भी मेरे ऐसा ही कर रही थी.
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धड़धड़ की आवाज से रेल अपनी तेज रफ्तार में पटरियों को पीछे धकेल रही थी और बाहर कितने गांव, गली, शहर पीछे छूटते जा रहे थे. हम दोनों बाहरी दुनिया से बिलकुल अनजान थे. बस अपनीअपनी दुनिया में बिजी थे. रात के 1 बज गए थे, दिनभर के काम और भागदौड़ के बाद भी आंखों में नींद का अतापता नहीं था. उसे भी नींद नहीं आ रही थी. लेकिन हम दोनों लेकिन करीब जरूर आ रहे थे. तकरीबन एक घंटा और बीता होगा यानी आधी रात कट चुकी थी. रात पूरे शबाब पर थी और रेल की चाल भी. प्रिया अब अपनी सीट से उठ कर मेरी सीट पर थी. हम दोनों एकदूसरे के मन में उतर रहे थे. जैसेजैसे रात बढ़ी, हमारी दूरियों में कमी आई. प्रिया की सांसों की बढ़ती तेजी मेरी सांसों को पूरी तरह से छू रही थी. उस के जिस्म और जवानी का जोश मुझ पर अपनी पूरी ताकत से वार कर रहा था, जैसे समुद्र के किनारे बैठे किसी शख्स को उस की तेज लहरें नहला कर चली जाती हैं.
लेकिन वह भीग कर मजा पाता है, ठीक वैसे ही मैं भी हर पल मस्ती में डूब रहा था. मेरे मन में यही था कि यह वक्त यहीं ठहर जाए. उस के साथ हो रहे प्रेम हवन में दोनों के जिस्म अपनीअपनी आहुति पूरे मन से दे रहे थे. न वक्त की परवाह और न ही जगह, न ही सफर. बस अजीब सी मंजिल की तलाश में दो मुसाफिर चल रहे थे. हम दोनों एकदूसरे में उतर गए थे और अब दोनों के चेहरे पर अलग मुसकान थी. उस ने प्यार से मेरे गालों को चूमा और फिर मेरे सीने पर सिर रख कर किसी बच्चे की तरह सोने लगी. मैं भी उस के सिर पर हाथ फेरने लगा और दोनों नींद की गोद में आ गए. सुबह हुई, हमारा स्टेशन आया और हम दोनों आखिरी बार गले मिले और अपनीअपनी मंजिल को निकल लिए. हम इतने करीब आए, लेकिन मैं ने न उस का फोन नंबर लिया और न ही उस का कोई सोशल मीडिया का पता.
शायद ये मेरी बेवकूफी भी थी. मैं स्टेशन से सीधे बाजार गया और मिठाई व कुछ दूसरा सामान लिया, फिर तकरीबन 2 घंटे की देरी से घर पहुंचा. अमूमन मुझे स्टेशन से घर आने में आधे घंटे का समय लगता है. घर पहुंचने पर मातापिता के पैर छुए और फिर पत्नी भी मिली. मैं अपने कमरे में आया, तभी मेरी पत्नी ने थोड़ी देर रुक कर कहा, ‘‘सुनोजी, मुझे आप को किसी से मिलाना है. मेरी बहन, जो शादी में न आ पाई थी, मैं ने उसे त्योहार पर घर बुलाया है.’’ ‘‘जी…’’ मैं ने भी सहमति दी. तभी उस ने आवाज लगाई. आवाज सुन कर एक लड़की पीले सूट में कमरे में आई. उसे देखते ही मैं चौंक गया, क्योंकि वह कोई और नहीं बल्कि वही थी, जो रातभर मेरी सहयात्री थी. उस ने मुझे देखा, मुसकराई और नमस्ते बोल कर चली गई. उसे देख कर मेरी तो जैसे जबान ही बंद थी. तकरीबन एक घंटे बाद मैं उस से अकेले में मिला, तब मैं ने उस से कहा, ‘‘सौरी, हम से शायद भूल हो गई.’’ प्रिया ने कहा, ‘‘भूल हम दोनों से हुई जीजाजी. अब भूल को भी भूल कर आप त्योहार का मजा लीजिए. एक हसीं सपना समझ कर उसे भूल जाइए और मैं भी. दीदी को कुछ पता न चले, वरना वे बहुत दुखी होंगी.’’ इतना कह कर प्रिया अपनी दीदी के पास चली गई. मैं अकेले बैठ कर उसी हसीं भूल के बारे में सोचता रहा.