लेखक-सरोज बाला
अगर प्राकृतिक सुंदरता के लिए ‘धरती का स्वर्ग’ कहा जाता है, तो इसी कश्मीर को पूरी दुनिया में केसर की उम्दा खेती के लिए भी जाना जाता है. यही वजह है कि आज कश्मीर के केसर की मांग भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी बढ़ती जा रही है. केसर दुनिया का सब से महंगा मसाला है. इंटरनैशनल मार्केट में कश्मीरी केसर को जीआई टैग दिया गया है. इस की कीमत की बात करें, तो साल 2020 में 100 ग्राम केसर की कीमत 30,000 रुपए थी और 50 ग्राम की कीमत 17,000 रुपए थी. कश्मीर में केसर की खेती पंपोर से सटे गांव जेवन, लैथपौरा, बालहामा और किश्तवाड़ जिले के कुछ हिस्सों में की जाती है. ये क्षेत्र श्रीनगर के आसपास ही हैं और बिलकुल मैदानी क्षेत्र हैं.
श्रीनगर के नैशनल हाईवे के दोनों तरफ केसर की खेती होती है. केसर के पौधों पर फूल आने पर चारों ओर खुशबू बिखर जाती है, जो दुनिया के किसी भी केसर के फूलों से नहीं आती है. यही वजह है कि इस के पौधे यहां आने वाले पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र होते हैं. पंपोर से सटे गांव जेवन, लैथपौरा, बालहामा और किश्तवाड़ जिले के कुछ हिस्से की जमीन बहुत ही ऊपजाऊ है. यहां की मिट्टी इतनी ज्यादा ऊपजाऊ है कि इस में कोई भी देशी या दूसरी खाद मिलाने की जरूरत नहीं होती है. यहां की मिट्टी को दोमट मिट्टी भी कहा जाता है. कश्मीर के इसी हिस्से की मिट्टी में केसर उगाया जाता है. केसर के लिए इस इलाके की जलवायु भी बहुत ही अनुकूल होती है, क्योंकि मैदानी क्षेत्र होने के कारण यहां बर्फीली हवाएं कम चलती हैं. बर्फ भी कम पड़ती है. अगर बर्फ पड़ भी जाए तो आसानी से पिघल जाती है और धूप भी पौधों पर अच्छी पड़ती है, जो केसर के लिए सब से जरूरी मानी जाती है.
ये भी पढ़ें- फल तुड़ाई के बाद ऐसे करें आम के बागों का प्रबंधन
केसर की खेती के लिए सब से पहले हाथों से जमीन की खुदाई की जाती है. हाथ से जमीन खोदने की वजह यह भी है कि यह कहींकहीं से टेढ़ीमेढ़ी होती है. छोटेछोटे कंकड़पत्थरों को खोज कर निकाला जाता है और घास को भी साफ किया जाता है. जमीन की खुदाई के बाद नरम होने के लिए 8-10 दिन के लिए छोड़ दिया जाता है, फिर खुलेखुले खेतों में लंबीलंबी क्यारियां बनाई जाती हैं. बीच में तंग नालियां बनाई जाती हैं. फिर इन क्यारियों में केसर की गांठ यानी बल्ब लगाए जाते हैं. ये गांठ या बल्ब किसान अपने खेतों में पहले ही तैयार कर लेते हैं. अगर गांठ बाजार से लेनी हों, तो एक पैकेट में 10 गांठें होती हैं. एक पैकेट की कीमत 350-400 रुपए के आसपास होती है यानी एक गांठ 45 से 50 रुपए की पड़ती है. गांठ लगाने का सही समय सितंबर महीने का होता है. कश्मीर के केसर की विशेषता यह भी है कि यह प्राकृतिक रूप से तैयार होता है. सिंचाई के साधन कम होने के कारण किसान बारिश के पानी पर ही निर्भर रहते हैं.
क्यारियों में किसी भी तरह की कोई खाद नहीं डाली जाती है और न ही इन पर कोई रासायनिक दवाओं का छिड़काव किया जाता है, क्योंकि रसायन के छिड़काव से नाजुक फूल झुलस जाते हैं. खेत में उगने वाली घासफूस को किसान खुद अपने हाथों से निकालते हैं. 10 से 14 दिनों के अंदर केसर के पौधे तैयार हो जाते हैं. केसर के पौधे डेढ़ से 2 इंच के ही होते हैं, जो सर्द और खुश्क हवा के असर को सह लेते हैं. केसर की क्यारियों के साथ बनाई गई क्यारियों में बारिश का पानी चला जाता है. ये नालियां ज्यादा गहरी भी नहीं होती हैं, क्योंकि बर्फ पिघलपिघल कर इन नालियों में जाती है, जो कई दिन तक पौधों को नमी देने का काम करती है. अक्तूबर महीने के अंत तक केसर के पौधों पर बैगनी रंग के फूल खिल जाते हैं. इन फूलों की खुशबू खेतों से आती हैं. जब फूल पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं, तो इन को तोड़ने का काम शुरू हो जाता है. फूल तोड़ने का काम ज्यादातर महिलाएं ही करती हैं.
ये भी पढ़ें- अगस्त माह में जरुर करें खेती से जुड़े ये काम
बड़े किसान अपने खेतों में फूल तोड़ने का काम मजदूरों से करवाते हैं. किसान महिलाएं और मजदूर अपनी पीठ पर टोकरी बांध लेते हैं, फिर बड़ी सावधानी से एकएक फूल को तोड़ कर टोकरी में डालते हैं, क्योंकि ये फूल बड़े नाजुक होते हैं. फूलों को खुले बड़े बरतन में डाल कर हवादार जगह और धूप में 5 दिनों तक सुखाया जाता है, फिर फूलों के अंदर से केसर चुनने का काम शुरू होता है. फूल चुनने का काम सुबह के 10 बजे के बीच होता है. यही समय फूल तोड़ने के लिए भी उत्तम माना जाता है. हर फूल के 3 स्टिग्मा होते हैं. फूल के अंदर संतरी और लाल रंग के हिस्से को मादा कहते हैं. इसी को ही स्टिग्मा कहते हैं. इसी भाग को अग्निशाखा या वर्तिक भी कहते हैं. लगभग 165 फूलों से स्टिग्मा इकट्ठा करने पर एक ग्राम केसर मिलता है. स्टिग्मा का तीसरा भाग यानी सफेद भाग हलवाई लेते हैं, जो कई तरह की मिठाई और कश्मीरी व्यंजन में इसे डालते हैं. केसर का यह भाग भी बहुत महंगा बिकता है. केसर के फूल चुनने के बाद पौधों को जमीन में रहने दिया जाता है, ताकि पौधों के नीचे की जड़ें गांठें बन जाएं. एक साल तक केसर के खेतों को खाली छोड़ दिया जाता है, ताकि मिट्टी की उर्वराशक्ति बनी रहे. यही गांठें यानी केसर के बल्ब से अपने समय में पौधों का रूप ले लेती हैं. ऐसा कई सालों तक चलता रहता है.
केसर के लिए भारत की बड़ीबड़ी आयुर्वेदिक कंपनियां और ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियां कश्मीर के किसानों और व्यापारियों से सीधा संपर्क करती हैं. कई बार दूसरे देशों की कंपनियां भी कश्मीर के केसर की खूबियां जान कर व्यापारियों से संपर्क करती हैं. असली केसर की पहचान के बारे में पंपोर के एक दुकानदार शेख निजामुद्दीन ने बताया कि असली केसर की गंध मीठी होती है, पर खाने में हलकी कड़वी होती है. जो खाने में मीठा होता है, वह नकली केसर होगा. साथ ही, हम पानी में घोल कर बताते हैं कि असली केसर पानी में घुलता नहीं, बल्कि पानी का रंग सुनहरा हो जाता है. कश्मीर या जम्मू के लोग केसर की पहचान के लिए उसे सफेद कपड़े पर रगड़ कर देखते हैं. रगड़ने पर कपड़े का रंग हलका पीला रहे और केसर का रंग लाल ही रहें तो उसे असली समझते है.
जानकार लोग ऐसा करने के बाद ही केसर के लिए और्डर देते हैं, ताकि वे धोखाधड़ी से बच सकें. अरमान मल्लिक ने जानकारी दी कि उन के पुरखे केसर की खेती करते थे. उन्होंने भी इस परंपरा को जिंदा रखा है, पर पिछले कुछ बरसों से बारबार जलवायु में अचानक बदलाव आने से केसर की फसल प्रभावित हो रही है. ज्यादा बारिश से और समय पर बारिश न होने से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. पंपोर की नूरी अख्तर ने बताया कि सरकार ने नैशनल इरीगेशन मिशन के तहत सिंचाई के लिए खेतों में पाइप लगाए, पर उन में से कभी पानी नहीं निकला. इसी के चलते कई बार उन्हें दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता है. कुलमिला कर कहें, तो कश्मीर के केसर की विशेषताओं के कारण आज यह दुनियाभर में व्यापारियों की पहली पसंद बनता जा रहा है, जिस से किसानों की आमदनी बढ़ती जा रही है. लेकिन बदलती जलवायु, अचानक मौसम में बदलाव और जीवनशैली में आ रहे बदलाव के चलते लोगों में केसर की खेती के प्रति दिलचस्पी कम हो रही है, जो बेहद ही चिंता की बात है.