‘‘कानून द्वारा शासित एक सभ्य समाज में कस्टडी में मौत सब से बुरे अपराधों में से एक है. जब एक पुलिसकर्मी किसी नागरिक को गिरफ्तार करता है, तब क्या उस के जीवन के मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं? क्या नागरिक के जीवन के अधिकार को उस की गिरफ्तारी के बाद निलंबित किया जा सकता है? वास्तव में, इन सवालों का जवाब ठोस तरीके से ‘नहीं’ होना चाहिए.’’ हिरासत में यातना और मौतों का संज्ञान लेते हुए न्यायमूर्ति डी के बसु ने अपने ऐतिहासिक फैसले में यह बात रखी थी पर लगता है देश की पुलिस ने आज तक इस बात पर ठीक से गौर नहीं किया.

उत्तर प्रदेश में पुलिस कस्टडी में मौतों की घटनाएं आम होती जा रही हैं. कुछ दिनों पहले आगरा में सफाईकर्मी अरुण वाल्मीकि का मामला शांत नहीं हुआ था कि यूपी के कासगंज से 9 नवंबर को 21 साल के नौजवान अल्ताफ की पुलिस हिरासत में मौत का संदिग्ध मामला सामने आया है. इस मौत के बाद पुलिस प्रशासन पर चारों तरफ से उंगलियां उठ रही हैं.

अल्ताफ कासगंज कोतवाली क्षेत्र के नगला सैय्यद अहरौली का रहने वाला था. अल्ताफ पर एक लड़की को भगाने का आरोप था. इस मामले में पुलिस उसे पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन ले गई थी. पुलिस के अनुसार, पूछताछ के दौरान ही उस ने बाथरूम जाने की बात कही, जहां पुलिसकर्मी उसे ले कर गए और वहां उस ने आत्महत्या कर ली.

पुलिस का यह दावा है कि अल्ताफ ने अपनी जैकेट की डोरी से जमीन से 2 फुट की ऊंचाई पर लगी टोंटी से फांसी लगा कर आत्महत्या की. पोस्टमार्टम जांच में भी अल्ताफ के फांसी लगने को मौत की वजह बताया गया है पर पुलिस की टोंटी वाली थ्योरी नासम?ा से नासम?ा लोगों को भी हजम नहीं हो रही. वजह है लौकअप के टौयलेट की वह तसवीर जिस में साफ दिख रहा है कि जिस नल के पाइप से डोरी बांध कर अल्ताफ के आत्महत्या करने का दावा किया गया, वह जमीन से केवल 2 फुट की ऊंचाई पर है. जबकि अल्ताफ की लंबाई साढ़े 5 फुट बताई गई है. सवाल उठता है कि साढ़े 5 फुट का व्यक्ति 2 फुट ऊंचे नल से लटक कर कैसे फांसी लगा सकता है?

खैर, अल्ताफ के पिता चांद मियां ने पुलिस पर हत्या का आरोप लगाया था पर बाद में एक वीडियो में उन्होंने कहा कि वह उस समय गुस्से में थे और उन्होंने जो कहा उस का मतलब यह नहीं था. उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने डाक्टरों, पुलिस से बात की और पता चला कि अल्ताफ की मौत आत्महत्या से हुई है. पुलिस उसे अस्पताल भी ले गई थी. मैं पुलिस की कार्रवाई से संतुष्ट हूं.’’ चांद मियां मजदूरी का काम करते हैं और घर का पेट पालते हैं.

वहीं, अल्ताफ के चाचा शाकिर अली ने कहा कि केस लड़ने के लिए उन के पास संसाधन नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘‘हम गरीब लोग हैं और बस जीवित रहना चाहते हैं. हम मांग करने की स्थिति में नहीं हैं. जब हम उस से मिले थे तो वह जीवित और बिलकुल ठीक था. हमें नहीं पता कि बाद में क्या हुआ.’’ खैर, वजह जो भी रही हो, तथ्य यह है कि एक युवक को पुलिस ने आरोपी बना पुलिस थाने में रखा जहां कुछ समय के भीतर ही उस की मौत हो गई.

कस्टोडियल डैथ के हालिया मामले

‘‘पुलिस अत्याचार या हिरासत में मौत के मामलों में, शायद ही कभी पुलिसकर्मियों की संलिप्तता का सीधा दिख सकने योग्य सुबूत उपलब्ध होगा. आमतौर पर केवल पुलिस अधिकारी ही होगा जो उस परिस्थिति को समझ सकता है जिस में किसी व्यक्ति की अपनी हिरासत में मौत हुई है. भाईचारे के बंधनों से बंधे होने के नाते यह अज्ञात नहीं है कि पुलिसकर्मी चुप रहना पसंद करते हैं और अकसर अपने सहयोगियों को बचाने के लिए सचाई से हट जाते हैं.’’

जाहिर है, यह बात उस संदेह में कही गई जब थानों में कस्टडी में लाए आरोपियों की मौत के जिम्मेदार खुद पुलिसकर्मी होते हैं और वे फर्जी तरीके से थ्योरियां गढ़ कर मामले को रफादफा करने में लगे रहते हैं, जिस में उन का साथ उन्हीं के डिपार्टमैंट के अन्य सहयोगी पुलिसकर्मी देते हैं.

कुछ समय पहले आगरा के जगदीशपुरा थाने में चोरी की बात सामने आई थी. जगदीशपुरा थाना पुलिस ने चोरी के शक के आधार पर एक सफाईकर्मी अरुण वाल्मीकि को घर से उठा लिया. हिरासत में लिए गए तमाम लोगों के साथसाथ पुलिस अरुण से पूछताछ कर रही थी. आरोप है कि इसी दौरान पुलिसकर्मियों ने अरुण को बुरी तरह से पीटा और यातनाएं दीं, जिस से उस की हालत बिगड़ने लगी. अगले दिन जब अरुण को होश नहीं आया तो उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसे डाक्टरों ने मृत घोषित किया.

ऐसा ही एक मामला पिछले साल तमिलनाडु के थूथूकुडी से सामने आया, जहां एक पितापुत्र की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई. मामला पिछले साल 19-20 जून का था. पी जयराज और उस के बेटे जे बेनिक्स की दुकान देर तक खोले रखने के चलते बहस हो गई. बहस के बाद पुलिस उन्हें पकड़ कर थाने ले गई. हिरासत में रखने के 2 दिनों बाद दोनों की मृत्यु हो गई. दोनों के कपड़े खून से रंगे हुए थे. पुलिस पर आरोप लगा कि कस्टडी में उन्होंने दोनों के साथ बर्बरता दिखाई, जिस से दोनों की मृत्यु हुई.

हैरान करते आंकड़े

गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 3 अगस्त को लोकसभा को बताया कि पिछले 3 वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में पुलिस हिरासत में 348 लोगों की मौत हुई. वहीं, 5221 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत के दौरान हुई. पुलिस कस्टडी के दौरान हिरासत में लिए 1,189 लोगों को प्रताडि़त किया गया.

इन आंकड़ों के मुताबिक हिरासत में होने वाली मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश पूरे देश में सब से ऊपर है. 2018 से ले कर 2021 के दौरान यूपी में 1,318 लोगों की हिरासत में मौत हुई है, जो पूरे देश का करीब 24 फीसदी है. इन में से 23 लोगों की जान पुलिस हिरासत में गई, जबकि 1,295 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत में हुई है.

नित्यानंद राय कांग्रेस सांसद कार्ति चिदंबरम के एक सवाल का जवाब दे रहे थे कि क्या भारत में हिरासत में होने वाली मौतों और यातनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से मिली जानकारी का हवाला देते हुए मंत्री ने कहा कि 2018 में पुलिस हिरासत में 136 लोग मारे गए, 2019 में 112 और 2020 में 100 लोग मारे गए. इस बीच, 2018 में 542 लोगों को पुलिस हिरासत में, 2019 में 411 और 2020 में 236 लोगों को प्रताडि़त किया गया.

वहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, 10 वर्षों में पुलिस हिरासत में 1,004 में से अधिकांश 69 फीसदी की मौतें बीमारी व प्राकृतिक कारणों से और 29 फीसदी की मौतें आत्महत्या के चलते हुईं. इस रिपोर्ट में सुसाइड से मौतें होने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है. 2015-19 के बीच 36 प्रतिशत आत्महत्या का आंकड़ा रहा.

कुछ मामलों में परिजनों ने कथित तौर पर आरोप लगाया है कि इन आत्महत्याओं में हिरासत में प्रताड़ना के भाव अधिक थे. साल 2019 में पुलिस हिरासत में हुई 85 मौतों में से केवल2.4 फीसदी को उस वर्ष की रिपोर्ट में पुलिस को उस के द्वारा की गई प्रताड़ना के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था. हालांकि, एनजीओ प्लेटफौर्म नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टौर्चर द्वारा उसी वर्ष के दौरान पुलिस हिरासत में हुई 124 मौतों में से 76 फीसदी को यातना या फाउल प्ले के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था.

एनएचआरसी के दिशानिर्देशों के मुताबिक, पुलिस या न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों की सूचना 24 घंटे के भीतर आयोग को देनी होती है. अगर आयोग अपनी जांच में किसी सरकारी कर्मचारी की लापरवाही पाता है तो उस के खिलाफ कार्रवाई के लिए राज्य या केंद्र सरकार से सिफारिश करता है.

जय भीममें छाप

हाल ही में मलयाली भाषाई फिल्म ‘जय भीम’ आई थी. यह फिल्म असल घटना पर आधारित है. इस फिल्म में टौर्चर और कस्टडी में मौत के बिंदु को सटीक तरह से उठाया गया. फिल्म में पुलिस की भूमिकाओं और उन के काम करने के तौरतरीकों को फिल्म के केंद्र में रखा गया था. इस फिल्म में पुलिस के असल के करीब चरित्र को दिखाया गया था.

फिल्म में पुलिसिया टौर्चर और समाज में फैले जातिवाद के प्रश्न को बखूभी उठाया गया था. फिल्म का निर्देशन किया था टी जे ज्ञानवेल ने और फिल्म पर सारा बजट लगाया था खुद अभिनेता सूर्या ने. यह बताना इसलिए भी जरूरी है कि इस तरह की संवेदनशील फिल्मों को बनाना आज के समय में बड़ा जोखिमभरा हो गया है. इस से न सिर्फ लगाए पैसे डूबते हैं बल्कि समाज में राजनीतिक दबावों और असामाजिक तत्त्वों द्वारा विरोधों को भी ?ोलना पड़ता है.

यह फिल्म एससी-एसटी और पिछड़ों पर होने वाले अत्याचार व थानों में आरोपियों के साथ पुलिस के बर्बर चरित्र को दिखाती है कि कैसे पगपग पर पुलिस वाले ताकतवर लोगों के लिए काम करते हैं, कैसे दलितों और गरीबों को सच उगलवाने के नाम पर तो कभी ?ाठ गढ़ने के नाम पर टौर्चर किया जाता है, ?ाठे मुकदमों में फंसाया जाता है, कानून को धता बता पुलिस द्वारा हिरासत में लिए आरोपियों के साथ अमानवीय यातनाओं को अंजाम दिया जाता है, खासकर तब जब आरोपी निचली जाति या निचले तबके से संबंध रखता हो.

पुलिस प्रवृत्ति और कस्टडी बनती नरक

भारत ने मानवाधिकार संबंधी संयुक्त राष्ट्र के अन्य संकल्प पत्रों की तरह कैदियों के भी अधिकारों का खयाल रखने व उन्हें यातना न देने के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया हुआ है पर पुलिस को अनियमित ताकत देने की हनक ने एक तरह का डंडातंत्र लोगों के ऊपर खड़ा कर दिया है कि लोग खुद को पुलिस से सुरक्षित कम, डरेडरे ज्यादा महसूस करने लगे हैं.

आमतौर पर लोगों के मन में पुलिस के प्रति सकारात्मक भावना है ही नहीं. ठुल्ला, मामा, घूसखोर जैसे शब्दों का इस्तेमाल इन के लिए होते रहे हैं. धारणा बनी है कि ‘पुलिस से न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी अच्छी,’ यह सिर्फ इसलिए क्योंकि पुलिस के चरित्र में विक्टिम और आरोपी, सब के लिए प्रताड़ना की प्रवृत्ति विकसित हो चुकी है. आज स्थिति यह है कि घर में चोरी होने, लड़की के साथ छेड़खानी होने, ?ागड़ाफसाद होने की स्थिति में लोग पुलिस के पास जाने में हिचकते हैं क्योंकि अपराधी पकड़े जाएं या न पकड़े जाएं पर पीडि़त जरूर यहांवहां चक्कर काट कर घंटों उत्पीडि़त महसूस करता है.

राजधानी दिल्ली के थानों तक में पुलिसकर्मी पीडि़त से ठीक से तो क्या, सीधे मुंह बात नहीं करते. थानों में अक्खड़ भाषा और तूतड़ाक बोली में पीडि़त को उलटा हड़काया जाता है. पीडि़त के कपड़े और हुलिया देख कर बात की जाती है. अधिकतर मामलों को दबाने या आगे न ले जाने की बात पर जोर दिया जाता है. छेड़खानी जैसे मामलों में पीडि़त लड़की थाने तक जाने की हिमाकत कर दे तो उसे कोर्ट, इज्जत, टाइम बरबादी जैसे बहाने दे कर मामला रफादफा करवाया जाता है.

जाहिर सी बात है, यह सब एक पीडि़त के साथ होता है तो छोटे से छोटे मामलों में हिरासत में लिए आरोपी के साथ एक प्रकार से मारपीट करने, डंडा बजाने का खुला न्योता सम?ा जाता है. उस के अधिकार बाद में आते हैं पहले स्वादानुसार सारी डिग्रियां ट्राई कर ली जाती हैं. सवालजवाब करने के तौरतरीके सिर्फ और सिर्फ डराधमका कर डंडों के आधार पर होते हैं. पुलिस के पास उस प्रकार की इंटैलिजैंस की कमी रहती है कि वह अपने सवाल और सामने वाले के जवाबों के आधार पर आरोपी से जानकारियां उगलवा सके.

किंतु जहां ऐसे मौकों पर पुलिस को कुछ दायरों में सीमित करने की जरूरत है वहां देश की सत्ता में बैठे नेता खुद को सत्ता में बनाए रखने व अपने खिलाफ विरोधों को रोकने के लिए इन्हें ऐक्सैस पावर देने के हिमायती बने रहते हैं और इन का भरपूर उपयोग करते हैं. यहीं से ही पुलिस के भीतर अनियंत्रित प्रवृत्ति जन्म लेती है जो यातनागृहों में तबदील हो जाती है.

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