केरल उच्च न्यायालय ने मुसलिम महिलाओं के तलाक पर जो ऐतिहासिक निर्णय दिया है उस से महिलाओं को तलाक लेने में होने वाली दिक्कतों से काफी राहत मिलेगी, इस में कोई दोराय नहीं है. केरल हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति ए मोहम्मद मुश्ताक और न्यायमूर्ति सी एस डियास की खंडपीठ ने इसी अदालत की एकल पीठ के 1972 के उस फैसले को पलट दिया है जिस ने न्यायिक प्रक्रिया के इतर अन्य तरीकों से तलाक लेने के मुसलिम महिलाओं के अधिकार पर पाबंदी लगा दी थी. पीठ ने रेखांकित किया कि मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथ कुरान में पुरुषों और महिलाओं दोनों को तलाक देने के समान अधिकार प्राप्त हैं.

केरल हाईकोर्ट की खंडपीठ ने मुसलिम महिलाओं को अदालत से बाहर भी तलाक का अधिकार प्रदान करते हुए स्पष्ट किया है कि कुरान में पुरुषों और महिलाओं को तलाक देने के समान अधिकारों को मान्यता दी गई है. यह और बात है कि अधिकतर मुसलिम महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी कभी नहीं मिल पाती है. मौलानाओं और परिजनों द्वारा ये जानकारियां उन तक कभी पहुंचाई नहीं जाती हैं.

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लंबे समय से समाजसेवी कार्यों से जुड़ी और मुसलिम महिलाओं के हितों के लिए सड़क से अदालतों तक लड़ने वाली नाइश हसन कहती हैं, ‘‘केरल हाईकोर्ट का फैसला वाजिब है. मु झे आश्चर्य है कि हाईकोर्ट ने पहले इस पर रोक क्यों और कैसे लगाई, जबकि कुरान ने मुसलिम औरतों के लिए बहुत बेहतर इंतजाम किए हैं. मुसलिम औरतें, जो अपने मर्दों के जुल्मों की शिकार हैं, उन से कई तरह से तलाक ले सकती हैं. उन में ‘खुला’ सब से ज्यादा प्रचलित है. मैं ने खुद कई महिलाओं का ‘खुला’ करवाया है जिन में कश्मीर तक की महिलाएं शामिल हैं.

‘‘आखिर हम औरतें क्यों किसी के जुल्म बरदाश्त करें? हम जिंदगी के हर पायदान पर मर्दों से ज्यादा काम करती हैं. हम घर में भी काम करें, बाहर भी जा कर नौकरी करें, खाना भी बनाएं, बच्चे भी पैदा करें, सासससुर की सेवा भी करें और इस के बदले में हमें अगर गालियां और लातघूंसे मिलें तो ऐसे घर को तुरंत छोड़ देना ही ठीक है. औरतें अगर समाज में बदनामी के डर से ससुराल में जुल्म बरदाश्त करेंगी तो वे अपने लिए नरक और बीमारियां ही बटोरेंगी.’’

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हलाला जैसी बुराई की शिकार महिलाओं पर पीएचडी करने वाली देश की पहली महिला नाइश हसन कहती हैं, ‘‘मुसलिम निकाह एक कौंट्रैक्ट है, यानी 2 लोगों के बीच हुआ एक सम झौता है. इस में अगर एक पक्ष दूसरे के साथ विश्वासघात करे, हिंसा करे, मानसिक रूप से प्रताडि़त करे, ब्लैकमेल करे,  झूठ बोले या कोई भी ऐसा काम करे जो सम झौते की शर्तों के खिलाफ है तो दूसरे पक्ष को पूरा हक और पूरी आजादी है कि वह उस कौंट्रैक्ट को खत्म कर दे. ऐसी उम्दा व्यवस्था कुरान में खासतौर से महिलाओं के लिए है. मगर औरत को घर की नौकरानी, अपनी ऐयाशी का सामान और बच्चा जनने की मशीन सम झने वाला पुरुष समाज इन जानकारियों से मुसलिम समाज की औरतों को हमेशा दूर रखता रहा है. औरतों को चाहिए कि वे कुरान को सिर्फ पढ़ें ही नहीं, बल्कि उस के एकएक शब्द का मतलब भी सम झें.’’

उल्लेखनीय है कि केरल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने 1972 में एक फैसला देते हुए कहा था कि किसी भी परिस्थिति में कानूनी प्रक्रिया के बिना एक मुसलिम निकाह समाप्त नहीं हो सकता. इस तरह पीठ ने न्यायिक प्रक्रिया से अलग अन्य तरीकों से तलाक लेने के मुसलिम महिलाओं के अधिकार पर पाबंदी लगा दी थी. इस फैसले को रद्द करते हुए अब हाईकोर्ट ने अदालती प्रक्रिया से अलग तलाक देने के महिलाओं के अधिकार को बहाल कर दिया है. केरल हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के बाद यह फैसला सुनाया है.

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पीठ ने कहा कि मुसलमानों की धार्मिक किताब कुरान पुरुषों और महिलाओं के तलाक देने के समान अधिकार को मान्यता देती है. मुसलिम महिलाओं की दुविधा, विशेषरूप से केरल राज्य में सम झी जा सकती है जो ‘के सी मोईन बनाम नफीसा और अन्य’ के मुकदमे में फैसले के बाद बीते 50 साल से उन्हें  झेलनी पड़ रही थी.

इस फैसले में मुसलिम विवाह अधिनियम 1939 समाप्त होने के मद्देनजर न्यायिक प्रक्रिया से अलग तलाक लेने के मुसलिम महिलाओं के अधिकार को नजरअंदाज कर दिया गया था जिस के कारण एक मुसलिम महिला अपने पति की तमाम ज्यादतियों व हिंसा के बावजूद उस के साथ रहने को मजबूर थी. जबकि मुसलिम डिजोल्यूशन मैरिज एक्ट 1939 बहुत लिबरल है और तमाम कट्टरता के बावजूद मुसलिमों ने इस को माना भी है. मुसलिम औरतों को इस एक्ट के तहत कई आधारों पर तलाक पाने का अधिकार है.

मुसलिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 किसी समय तक एक मुसलिम स्त्री को केवल 2 आधारों पर न्यायालय में तलाक मांगने का अधिकार था. पहला, पति की नपुंसकता और दूसरा, परपुरुष गमन का  झूठा आरोप (लिएन). लेकिन इस से मुसलिम महिलाओं से संबंधित बहुत सी विसंगतियां मुसलिम विवाह में जन्म लेने लगीं. ऐसी परिस्थितियों का उदय हुआ जिन के होने पर एक मुसलिम महिला तलाक मांग सकती थी, परंतु मजबूरी में तलाक नहीं मांग पा रही थी.

हनफी विधि में मुसलिम स्त्री को अपने विवाह को समाप्त करने का अधिकार नहीं था परंतु हनफी विधि में यह व्यवस्था है कि यदि हनफी विधि के पालन में कठिनाई हो रही है तो मालिकी, शाफई या हनबली विधि का प्रयोग किया जा सकता है. इसी को आधार बना कर इसलामिक शरीयत के दायरे में मुसलिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 पारित किया गया था जिस के चलते बहुत से ऐसे कारणों, जिन की वजह से स्त्री व पुरुष का साथ रहना मुमकिन नहीं हो पा रहा है, को आधार बना कर इस अधिनियम की धारा 2 के अंतर्गत मुसलिम स्त्री अदालत जा कर अपने निकाह को खत्म करने की डिक्री पारित करवा सकती है. इस से मुसलमान औरत पति और उस के संबंधियों के अत्याचारों का शिकार होने से बच जाती है.

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