देश की समस्याओं का अब एक बड़ा कारण लोगों का भावनाओं में बह जाना और समस्याओं को मजाक में उड़ा देना है. एक तरफ धार्मिक धुआंधार प्रचार और दूसरी तरफ मोबाइल की चुहलबाजी ने मानसिकता को कुंद कर दिया है और लोगों का सोचविचार इतना कम हो गया है कि नोटबंदी जैसे मामले पर भी सोशल मीडिया में मजाक ज्यादा चले, इस प्रहार की मार का दर्द कम उजागर हुआ. जीवन एक संघर्ष है. न फसल मजाक से पैदा होती है, न मकान हंसी और चुटकुलों से बनते हैं, न ही बच्चे प्रवचनों से पैदा होते हैं और न भाषणों से बड़े होते हैं. जीवन में गंभीरता की जरूरत होती है और जिस समाज ने यह गंभीरता खो दी, मूर्खता में या दंभ में वह मरेगा ही. पंजाब एक समय देश का सब से उन्नत राज्य था पर दंभ, धर्म, शराब, नशे और मजाक ने उसे आज इस तरह गर्त में डाल दिया कि ‘उड़ता पंजाब’ जैसी फिल्म बन सके.

आप जीवन में कितनी गंभीर हैं, क्या पूछा खुद से? कितना समय मोबाइलों पर चुटकुले फौरवर्ड करने या किट्टी पार्टियों में निरर्थक तंबोलों में खर्च करती हैं या कितना समय समस्याओं को जानने और पहचानने की कला को विकसित करने में लगाती हैं? हमारे यहां पढ़ीलिखी, शिक्षित अध्यापिकाएं भी न विचारकों की बातें करती हैं न किताबें पढ़ती हैं और न कुछ लिखती हैं. उन का समय शौपिंग में, टीवी या रिपीट होती फिल्में देखने में, फोन पर गप्पें मारने या कान में इयरफोन ठूंस कर पुराने गाने बारबार सुनने में व्यर्थ हो रहा है.

जब कोई समस्या आती है तो हाथपैर फूल जाते हैं, क्योंकि जिस से सलाह मांगो वह मुंह छिपा लेता है. किसी को कुछ समझ हो तो बताए न? समझ तो तब आएगी जब दूसरों की, देश की, समाज की, विश्व की, भूगोल की, पर्यावरण की समस्या पर ध्यान दिया हो. गंभीर चर्चाएं करने वालों को अमेरिका जैसे देश में भी ‘नर्ड’ कह कर अपमानित किया जाता है. यह समाज मूर्खों का समूह बन रहा है, जिस में क्रिकेटरों और फिल्मी सितारों के जीवन के हर पल की चिंता है पर अपनी आने वाली आफत की नहीं. गंभीर जने को यहां एकाकीपन की कैद में डाला जा रहा है. उसे किसी भी ग्र्रुप में ऐरोगैंट एजुकेटेड कह कर अलगथलग कर दिया जाता है. बहाव के विरुद्ध सोचने वाले को अजूबा मान लिया जाता है. उसे बदलने का संकल्प करें ताकि जीवन सुधरे.

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