एक खूनखराबा हिंदुस्तान के बंटवारे के वक्त हुआ था जिस की कड़वाहट आज तक नासूर बन दोनों कौमों के दिलों में पल रही है. क्या अशरफ फिर उस इतिहास को दोहराने का सबब बनेगा? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. कभी भी ऐसा नहीं होने दूंगा.
माणिकचंद ने सगीर के सामने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘‘मुझे एक बार अशरफ से मिलने दो, जिंदगीभर तुम्हारा एहसानमंद रहूंगा.’’
पूरी रात करवट बदलते कटी. सुबहसुबह सगीर के गांव जाने के लिए माणिकचंद स्कूटर निकालने लगे. तभी एक औटोरिक्शा गेट के सामने रुका. 80 वर्षीय उन के दारजी के साथ चाईजी उतरती दिखाई दीं. माणिकचंद ने पैर छू कर उन का सामान उठा लिया.
नाश्ते के बाद उन्हें बाहर जाते देख कर चाईजी ने आवाज लगाई, ‘‘पुत्तर, हम सिर्फ 2 दिनों के लिए ही आए हैं. अमृतसर की प्रौपर्टी के बंटवारे के लिए मशवरा करना है.’’ न चाहते हुए भी माणिकचंद को उन्हें अशरफ के बारे में बतलाना पड़ा. दारजी का सवाल उन की आंखों में टंग गया, ‘‘तो क्या तुम मुसलमान लड़के को अपने घर में पनाह देना चाहते हो?’’ माणिकचंद की चुप्पी उन की मौनस्वीकृति थी.
‘‘यह जानते हुए भी कि दंगे की वजह से यहां कर्फ्यू लगा. कितने हिंदूमुसलमानों को जान से हाथ धोना पड़ा. पूरा शहर मजहबी लड़ाई में बारूदी पहाड़ के मुहाने पर बैठा सियासी पलीते का इंतजार कर रहा है. ऐसे में दोनों को अपने घर में रखना सुलगती लपटों में जानबूझ कर अपने हाथ होम करना होगा. लड़की के मातापिता ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी होगी. पुलिस सूंघते हुए तुम्हारे घर आ पहुंचेगी. अशरफ के बहनोई ने उन्हें घर में घुसने नहीं दिया, तो तुम्हें क्या जरूरत है ओखली में सिर देने की. दफा करो मामला.’’
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