मैं सुबह से रात तक घर का काम करतीकरती थक जाती. मुंह अंधेरे ही उठ कर तीनों बच्चों का टिफिन पैक कर देती. खाना, कपड़ा, बरतन करतेकरते थक कर निढाल हो जाती थी.
तीनों बच्चों का दूध बना कर मेज पर रख देती थी. दीप चीखता हुआ कहता, ‘मु झे नहीं पीना सादा दूध, बौर्नविटा डालो तभी पीऊंगा.’
‘बौर्नविटा खत्म हो गया है, इसलिए चुपचाप दूध पियो, टिफिन बैग में रखो और स्कूल जाओ. वैन वाला कब से हौर्न बजा रहा है.’
मैं ने गिलास उठा कर दीप के मुंह में लगाने का प्रयास किया. आधा गिलास दूध देखते ही उस ने मेरे हाथ को झटक दिया. हाथ से गिलास छूट कर दूध जमीन पर फैल गया. मैं चिल्ला कर बोली, ‘बहुत बदतमीज हो गया है. सिया, दिया को जितना देती हूं, चुपचाप पी कर चली जाती हैं. ये नालायक हर समय कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है.’
सोम कमरे से भागते हुए आए, डांटते हुए बोले, ‘तुम्हारा कोई भी काम ढंग से नहीं होता. जब तुम्हें पता है कि वह गिलास भर कर दूध पीता है तो तुम ने उसे चिढ़ाने के लिए जानबू झ कर आधा गिलास दूध क्यों दिया?’
‘मेरे लिए तो तीनों बच्चे बराबर हैं. मैं तो तीनों को एक सा खिलाऊंगी, पहनाऊंगी. मेरे लिए बेटाबेटी दोनों एक समान हैं,’ मैं ने जवाब दिया.
‘ज्यादा जबान मत चलाओ. सिया, दिया एक दिन दूध नहीं पिएंगी तो मर थोड़े ही जाएंगी,’ अम्माजी ने सोम के सुर में सुर मिलाया.
सिया दीप को बुलाने के लिए बाहर से आई थी. दादी और पापा की सारी बातें उस ने सुन ली थीं. 14 वर्ष की सिया सम झदार हो चुकी थी. उस दिन के बाद से उस ने दूध को हाथ भी नहीं लगाया. दिया दीप को जिद करते देख खुद भी वैसा ही करने लग जाती थी.
एक दिन दीप टिफिन मेज पर पटक कर बोला, ‘मैं आज से टिफिन नहीं ले जाऊंगा. सब बच्चे पकौड़े, इडली, पुलाव और जाने क्याक्या ले कर आते हैं परंतु तुम तो परांठे के सिवा कुछ बनाना ही नहीं जानतीं.’
मैं चिढ़ते हुए बोली, ‘सुबह इतने सारे काम होते हैं. छप्पन भोग बनाना मेरे वश का नहीं है. अपने बाप से कहो, नौकरानी रख लें, वही रचरच कर बनातीखिलाती रहेगी.’
दीप ने टिफिन गुस्से से जमीन पर फेंक दिया, ‘मु झे नहीं ले जाना यह सड़ा परांठा.’
मैं चीख कर बोली, ‘खाना फेंक रहे हो. 2-4 दिन भूखे रहोगे तो सब सम झ में आ जाएगा.’
सोम दौड़ेदौड़े आए. दीप का हाथ पकड़ कर बाहर ले गए. उन्होंने निश्चय ही उस की मुट्ठी में रुपए रख दिए होंगे. वह हंसताखिलखिलाता साइकिल पर चढ़ कर स्कूल चला गया.
अंदर आते ही सोम बोले, ‘तुम भी कम थोड़े ही हो, जब तुम्हें पता है कि वह परांठा नहीं पसंद करता है तो कुछ और बना दो लेकिन तुम कुत्ते की दुम की तरह हो. चाहे कितनी सीधी करो, टेढ़ी की टेढ़ी रहती है.’
‘आप मत चिल्लाइए, उस को बिगाड़ने में आप ही ज्यादा जिम्मेदार हैं. आप ने उसे रुपए क्यों दिए?’
‘वह भूखा रहता कि नहीं?’
‘तो क्या हुआ? एकाध दिन भूखा रहता तो दिमाग ठिकाने आ जाता. आप खुद खाने की प्लेट फेंकते हो, वही उस ने भी सीख लिया है.’
‘चुप रहो, ज्यादा चबड़चबड़ मत करो.’
मैं रोतेरोते किचन से चली आई. यह सब तो रोज का काम हो गया था.
दीप 9वीं कक्षा में आ गया था. उस की दोस्ती कक्षा के रईस, आवारा टाइप लड़कों से थी न कि पढ़ने में होशियार बच्चों से. एक दिन वह बोला, ‘पापा, यश मैथ्स की कोचिंग कर रहा है. मुझे भी कोचिंग जौइन करनी है.’
सोम दीप की किसी बात के लिए मना करना नहीं जानते थे. वे उस की हर फरमाइश पूरी करते.
‘पापा, आशू हमेशा ब्रैंडेड शर्ट ही पहनता है. मेरे पास तो एक भी नहीं है.’
अगले दिन ही सोम औफिस से लौटते हुए ब्रैंडेड शर्ट ले कर आए थे. शर्ट देख कर वह खुशी से सोम से चिपट कर बोला, ‘मेरे अच्छे पापा, आप बहुत अच्छे हैं.’
उसे सोम के ओवरटाइम की कोई फिक्र नहीं थी.
उसी साल सिया की शादी हो गई थी. दीप आजाद हो गया था. दिया से तो उस की अधिकतर बोलचाल ही बंद रहती थी.
सोम का प्रमोशन हो कर मंगलोर पोस्टिंग हो गई थी. वे दिया और दीप की पढ़ाई के कारण उन्हें श्याम भैया की देखरेख में यहीं छोड़ कर चले गए थे.
दीप घर से बाहर ज्यादा रहता, ‘मैं ट्यूशन पढ़ने जा रहा हूं,’ कह कर वह घंटों के लिए गायब हो जाता. उस पर डांटफटकार का कोई असर नहीं था. 2-3 महीने में सोम आते तो मैं मां होने के नाते शिकायतों का पुलिंदा खोल कर उन्हें सुनाने की कोशिश करती जिसे सोम ध्यान से सुनते भी नहीं थे.
हंस कर लाड़ से इतराते हुए दीप से कहते, ‘क्यों भई दीप, अपनी मम्मी का कहा माना करो. इन्हें परेशान मत किया करो. ये तुम्हारी ढेरों शिकायतें करती रहती हैं. हां, तुम्हारी इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा है. तुम्हारी तैयारी कैसी चल रही है?’