कांग्रेस के वरिष्ठ व इंग्लिश बोलने में माहिर 23 नेताओं ने पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक लंबी चिट्ठी में वे बातें कही हैं जिन का जमीनी वास्तविकता से न कोई मतलब है और जिन पर अमल करने से कांग्रेस का न कोई भला होने वाला है. गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, शशि थरूर, विवेक तन्खा, मुकुल वासनिक, जितिन प्रसाद, भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे नेताओं ने जिस तरह की मांगें रखी हैं, उन को पूरा करने में क्या वे खुद कुछ कर सकते हैं?
मांगें साधारण सी हैं. कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष हो, चुनाव अधिकारी हो, संविधान के अनुसार कांग्रेस कार्यकारिणी का चुनाव हो, राज्य इकाइयों में भी अध्यक्ष नियुक्त नहीं किया जाए, चुना जाए.
इन नेताओं ने जो कहा है वह तब संभव है जब पार्टी में मेहनती कार्यकर्ता और नेता हों. पिछले 70 वर्षों से पार्टी में नेताओं की 3 पीढि़यां बिना जमीनी सेवा किए स्वतंत्रता आंदोलन के योगदान, जो उन्होंने नहीं उन के पूर्वजों ने किया था, का आनंद उठा रही हैं. अब यह मौज भारतीय जनता पार्टी के नेता छीन ले गए हैं. कांग्रेस के ये बड़बोले, खाली बैठे, ड्राइंगरूमी नेता कभी जमीन पर नहीं लड़े. भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करने की पूरी जिम्मेदारी इन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर डाल रखी है.
भारत की राजनीति असल में हमेशा ऊंची जातियों के हाथों में रही है और उन में से भी खासतौर पर ब्राह्मणों के हाथों में. बातें बनाने में तेज ये लोग न सही फैसले ले पाते हैं, न सही काम कर पाते हैं. महात्मा गांधी ने एक अलग तरह की राजनीति शुरू की थी पर इन नेताओं के पूर्वजों ने उस राजनीति का लाभ तो उठाया लेकिन जमीन पर जा कर काम नहीं किया.
जो मेहनत चौधरी चरण सिंह, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, सी एन अन्नादुरई, एन टी रामाराव जैसे नेताओं ने की, इन कांग्रेसी नेताओं ने नहीं की. 1998 के बाद कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में कूदने के बाद जो मेहनत सोनिया गांधी ने की उस का अंशभर भी किसी ने नहीं किया. पर जब 2004 में कांग्रेस अनायास जीत गई तो ये बंटने वाले दान को पाने के लिए उच्चतम श्रेष्ठ ब्राह्मण होने के नाते सब से आगे आ कर खड़े हो गए थे.
2014 में हारने के बाद इन नेताओं में से किसी को भाजपा ने निशाना नहीं बनाया. ‘बारगर्ल इटालवी’ सोनिया गांधी और ‘पप्पू’ राहुल गांधी 6 सालों से भाजपा के तीरों से लहूलुहान हो रहे हैं. इन 23 नेताओं की खिंचाई कहीं भाजपा सेल नहीं करती क्योंकि ये निरर्थक हैं. भाजपाई इन्हें किसी मतलब का समझते ही नहीं हैं. भाजपा जानती है, दूसरे कांगे्रसी नेता वोट बटोर नहीं सकते. उन में न
मोदी जैसी बोलने की कला है न संघ कार्यकर्ताओं की तरह गलीगली जाने की क्षमता. भाजपा को डर केवल सोनिया, राहुल और प्रियंका से है. ये तीनों असल में जमीनी भारत का भाजपा से कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व करते हैं और नागपुर इस बात को समझता है.
भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान नेताओं ने रामरथों को खींचा है, जुलूसों में मीलों चल कर भाग लिया है, फूल और पत्थर दोनों बरसाए हैं, जागरणों में भी भाग लिया है और थानों में भी रातें बिताई हैं. भाजपा में भी कोई चुनाव नहीं होते, न नरेंद्र मोदी, न अमित शाह, न मोहन भागवत और न जे पी नड्डा किसी चुनाव की देन हैं. आंतरिक चुनाव तो हमारी संस्कृति में है ही नहीं, फिर इन
23 को क्या हक है? ये 23 भी कभी पार्टी चुनावों से जीत कर नहीं आए.
चुनावी रंग में अमेरिका
अमेरिकी चुनावों को ध्यान से देखें तो वे काफी हद तक भारत जैसा माहौल दिखाते हैं. डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार जीतने की उम्मीद पर काफी प्रश्नचिह्न खड़े हो चुके हैं पर गोरे कट्टरपंथियों को, भारतीय भक्तों की तरह की, टं्रप की वाहवाही करनी पड़ रही है. ट्रंप ने मेक इन अमेरिका, कीप इमिगै्रंट्स अवे जैसे नारों से भारत जैसा राजनीतिक माहौल बना डाला है और गोरे अमेरिकियों की एक बड़ी जमात अंधभक्ति में डूब कर तथ्य व तर्क भूल चुकी है.
अमेरिकी गोरों को अपनी सत्ता वैसे ही हिलती नजर आ रही है जैसी भारत में सवर्णों को नजर आ रही है. मेहनत के बलबूते काले, लैटिनों, चीनी, भारतीय, फिलीपीनी व अरबी अब धीरेधीरे ऊंचे पदों पर पहुंचने लगे हैं और कुछ साल पहले तक केवल गोरों के रहे क्लब, रैस्तरां, गोल्फ कोर्स, अपार्टमैंट कोडों, गेटेड कम्युनिटीज में भी इन की घुसपैठ शुरू हो गई है.
बराक ओबामा काले थे और अच्छे राष्ट्रपति साबित हुए. उन्हीं के कारण गोरों में एक डर पैदा हो गया कि कहीं काले नागरिक व्यापारों और उद्योगों
पर भी राजनीति सा कब्जा न कर लें. उन्होंने 2016 में सारा जोर सिरफिरे अमीर डोनाल्ड ट्रंप पर लगा दिया. झूठी कहानियों, खबरों को तोड़मरोड़ कर इस तरह पेश किया गया कि बराक ओबामा की चहेती हिलेरी क्ंिलटन जीत नहीं पाईं और 4 वर्षों से, भारत की तरह, अमेरिका आर्थिक थपेड़े खा रहा है.
भारत में यह डर पहले पिछड़े देवीलाल और लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री न बन जाएं, से पैदा हुआ था और फिर यह कि कहीं मायावती जैसी दलित सत्ता हथिया न ले. इस के लिए राममंदिर के नाम पर एक नई तरह
की राजनीति अपनाई गई जिस की
छाया अमेरिका के 2016 के चुनावों में दिखी थी.
अब 2020 के अमेरिकी चुनाव काफी रोचक साबित होंगे क्योंकि उस की दुर्व्यवस्था के कारण अमेरिकी काफी नाराज हैं पर गोरे कट्टरपंथी आज भी रंग व अपने वर्चस्व की चिंता कर रहे हैं जिस के अकेले रक्षक उन्हें डोनाल्ड ट्रंप दिख रहे हैं. जो बाइडेन और कमला हैरिस की जोड़ी अभी लोकप्रियता में काफी आगे है पर अंत में गोरेकालों का भेद कहीं फिर उबाल भरने लगे, कहा नहीं जा सकता.
चीन के सामने बोलती बंद
पाकिस्तान को छठी का दूध पिला डालने की सोशल मीडिया वीरों की बोलती आजकल बिलकुल बंद है. मुकाबला अब बहुत मजबूत चीन से है जो भारत के थोथे तेवरों से नाराज हो कर सीमा पर लगातार दबाव बनाए हुए है. लद्दाख में चीन उस जमीन पर सड़कें, बंकर, पुल, अस्पताल बना रहा है जो पहले भारतीय सैनिकों के कब्जे में थीं.
हाल इतना बुरा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बात करने की हिम्मत भी नहीं हो रही कि कहीं वे कुछ और मांग न कर बैठें. इस विवाद को सुलझाने के लिए सीमा पर तैनात मिलिट्री अफसर चीनी सेना के जनरलों से तर्कवितर्क कर रहे हैं लेकिन वे टस से मस नहीं हो रहे.
भारत की तैयारी पूरी है कि सीमा की सुरक्षा पूरी तरह हो. पर फिर भी सच यह है कि चीन के पास एक बड़ी सेना है, साथ ही, उस के पास अपने कारखानों में बने हर तरह के आधुनिकतम हथियार भी हैं. 2018 के अनुसार जहां अमेरिका ने 10 अरब डौलर के हथियार निर्यात किए थे, एक बिलियन डौलर के हथियार चीन ने भी निर्यात किए थे. भारत इस में कहीं नहीं आता. भारत तो बाहर से खरीदने वालों में से है. 2019 में भारत का स्थान दूसरा था विदेशी हथियार खरीदने में. सऊदी अरब ने भारत से तीनगुना और पाकिस्तान ने आधे के बराबर खरीदे.
कहने का अर्थ यह है कि भारत को जहां विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है, चीन अपने हथियार खुद बनाता है. यदि युद्ध गंभीर हुआ तो विदेशी उत्पादक कभी भी हथियार बेचने से मना कर सकते हैं, जबकि चीन को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा.
अब जब भारत सरकार का खजाना खाली हो रहा है, भारत को हथियार खरीदने में कठिनाई होने वाली है.
आज चीन न केवल लद्दाख, बल्कि नेपाल और भारत सीमा के कोने, अरुणाचल प्रदेश, भूटान आदि में भी सीमा विवाद खड़ा कर रहा है. जहां पहले तिब्बती राजाओं का यदाकदा प्रभाव रहता था. चीन उस इतिहास के बल पर अपना हक जता रहा है.
भारत सरकार चीन पर जो चुप्पी साधे है वह भी गलत है. देशवासियों को सच बताना सरकार का कर्तव्य है ताकि देश एकजुट हो कर, साथ में मिल कर, चीनी घुसपैठ का मुकाबला करे.
कैशलैस नहीं कैश
कुछ सालों से सरकार नकद लेनदेन को बंद करने की भरसक कोशिश में लगी है. अरुण जेटली जब तक वित्त मंत्री थे, बेमतलब रोज कैशलैस इकोनौमी का राग आलापा करते थे. सरकार ने जनता को बहुत सारे लौलीपौप भी दिए कि कैशलैस इकोनौमी में लाभ ही लाभ हैं. नोटबंदी की एक बड़ी वजह एक झटके में नकदी की आदत से लोगों को उबारने की भी थी.
अफसोस कि लोगों को न सरकार पर भरोसा है न बैंकों पर. नोटबंदी के बावजूद सारा लेनदेन फिर नकद में चालू हो गया है. कोरोना के दिनों में तो यह अचानक बढ़ गया क्योंकि लोगों को नकद जेब में रखना ज्यादा सुरक्षित लग रहा है. मार्च में जहां 24 लाख करोड़
की नकदी बाजार में थी, अगस्त तक 26.9 लाख करोड़ हो गई, जो नोटबंदी से पहले से कहीं ज्यादा है.
सरकार के नीतिनिर्धारक असल में एयरकंडीशंड कमरों में बैठते हैं और ज्यादातर दूसरीतीसरी पीढ़ी से शासकवर्ग में हैं. इन्हें जमीनी हकीकत के बारे में मालूम ही नहीं है. देश की जनता जो गांवों, कसबों और शहरों की कच्ची बस्तियों में पसरी हुई है, पाईपाई का हिसाब रखती है और उस के लिए न कंप्यूटर पर न मोबाइल पर लेनदेन करना संभव है. पिछले 5-6 सालों में हर साल उस की हालत और बुरी हुई है और उसे मालूम नहीं कि कल कैसा होगा. जो नकद उस के हाथ में है वह उस का है. जो बैंक में है, उस की तो सरकार ही मालिक है.
क्रैडिट कार्ड और नैटबैंकिंग चाहे कितनी सुविधाजनक लगे, यह है असल में एक आफत. जब भुगतान किसी दूरदराज इलाके के किसी को करना हो तो बात दूसरी और उस निगाह से यह मनीऔर्डर और चैक से बेहतर है, वरना फेसटूफेस लेनदेन में कैश ही किंग है.
सरकार का आज कोई भरोसा नहीं है. सरकार कब बैंकों में रखा पैसा जब्त कर ले, पता नहीं. सरकार कब खरीद का हिसाब लेने लगे, मालूम नहीं. बैंक कब किस खाते को बंद कर दे, मालूम नहीं. कब क्रैडिट कार्ड ब्लौक हो जाए, पता नहीं.
यही नहीं, जरा सी गड़बड़ हुई नहीं, कि सरकार बैंक खाते खुलवाने शुरू कर देती है. पैन कार्ड नंबर और आधार नंबर से आप की जिंदगी में कोई निजी बात
रह ही नहीं गई. सरकारी पंडे हर जगह हिस्सा बांटने को तैयार खड़े रहते हैं. सरकारी कहर से अपना बचाव करना है तो कैश की सुरक्षा हाथ में रहनी चाहिए. जब तक हमारे यहां सिर्फ कोरे वादे करने और फेंकने वाली सरकारें हैं, अपनी बचत को कैश में रखने में बेवकूफी नहीं, चाहे चोरउचक्कों का डर रहे. उन से बड़े बैठे हैं जो कलम की एक लाइन से बड़ी डकैती कर सकते हैं, 2-4 की नहीं, 20-30 करोड़ लोगों की, वह भी एक झटके में.