कुछ समय बाद ही मां अपने दिल में पोता खिलाने का अरमान लिए इस दुनिया से चल बसीं. चौथी बेटी रीति को ससुराल विदा करने के बाद रागिनी भी कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से लंबे समय तक जूझने के बाद मोहनजी को हमेशा के लिए अलविदा कह गई. चारों बेटियों की शादी में घरगृहस्थी के सामान, गहने सबकुछ चले गए. बचपन में किए गए अपने वादे के मुताबिक, भक्ति ने अपने पापा को अपने पास बुला लिया. पर अपनी सास और जेठानी के रोजरोज के तानों के कारण उस ने पिता के सामने अपने हाथ खड़े कर दिए.
एक सुबह सास का कर्कश स्वर मोहनजी के कानों में पड़ा, ‘‘कैसेकैसे बेहया लोग पड़े हैं इस दुनिया में. एक बार कहीं पांव जमा लेंगे तो आगे बढ़ने का नाम नहीं लेंगे. अरे, मेहमान को मेहमान की तरह रहना चाहिए. आए, 2-4 दिन रहे, खायापिया और चले गए तो ठीक लगता है.’’
सास की राह पर भक्ति की जेठानी ने भी उन के सुर में सुर मिला कर कहा, ‘‘पता नहीं मांजी, कैसे लोग बेटियों के ससुराल में रह कर सुबहशाम का निवाला ठूंसते हैं? मेरे भी पापा आते हैं. चायनाश्ता ही कितने संकोच से करते हैं. वे तो कहते हैं कि मेरे लिए बेटी की ससुराल का पानी पीना भी पाप है. अगर कुछ खापी लेते हैं तो उस का दस गुना दे कर जाते हैं. कपड़े हों, पैसे या गहने, छक कर देते हैं. मेरे पापा को कभी मेरे यहां इस तरह रहने की नौबत आएगी तो उस से पहले वे चुल्लूभर पानी में डूब मरेंगे.’’
मोहनजी अपमान और उपेक्षा से तड़प उठे. सामने भक्ति आंखों में आंसू भरे खड़ी थी. उस के हाथ में पापा का बैग था. वह बैग मोहनजी को पकड़ाते हुए बोली, ‘‘पापा, अब मुझ से आप की यह बेइज्जती नहीं देखी जाती. हर दिन, हर रात मैं घुट और तड़प रही हूं. ये लोग मुझे गालियां और ताने दें, मैं बरदाश्त कर लूंगी पर आप का अपमान नहीं सहा जाएगा. मैं ने दीप्ति को फोन कर दिया है. आप उस के यहां चले जाइए.’’
मोहनजी ने अपने हाथ में बैग ले कर भक्ति के सिर पर हाथ फेरते हुए, ‘सदा खुश रहो’ कहा और तेजी से बाहर निकल गए.
दीप्ति के घर पहुंचने पर उन्हें लगा कि मानो यहां भूचाल आ गया हो. दीप्ति के ससुर चिडि़यों को चावल के दाने डाल रहे थे. उस की सास रसोई से ही चिल्लाती हुई बोलीं, ‘‘चावल कितना महंगा है, पता भी है आप को? कहीं से कोई ऐक्स्ट्रा कमाई नहीं है. महंगाई दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. एकएक पैसा छाती से लगा कर रखना पड़ता है. इतनी भी हैसियत नहीं कि कामवाली लगवा सकूं. सारा काम खुद ही करना पड़ता है. बहू भी आई है ऐसी कि एकदम निकम्मी, कामचोर. बस, दिनभर बकरियों की तरह खाती है और अजगर की तरह सोती है,’’ फिर कुछ बड़बड़ाती हुई दीप्ति की सास रसोई से बाहर आईं. घर के दरवाजे के सामने मोहनजी को देख ठिठक गईं, ‘‘अरे, भाईसाहब, आप? आइए न अंदर. वहां क्यों खड़े हैं? देखिए न आप के समधी को केवल शाहखर्ची ही सूझती है. मैं एकएक पैसा बचाने के लिए रातदिन एक किए रहती हूं, और ये हैं, केवल लुटाते रहते हैं. हमारी हालत तो ऐसी है भाईसाहब कि अगर इस समय कहीं से कोई मेहमान आ कर टिक गया तो हमें खाने के लाले पड़ जाएंगे.’’
मोहनजी अवाक्. उन्हें लगा मानो किसी ने उन के गाल पर करारा तमाचा मारा हो. चायपानी पूछने के बजाय दीप्ति की सास ने सीधेसीधे मोहनजी से पूछा, ‘‘वैसे कितने दिनों तक रहेंगे आप यहां? व्यवस्था करनी पड़ेगी न?’’
मोहनजी घबरा उठे, कांपते स्वर में बोले, ‘‘नहींनहीं, समधनजी, मैं यहां रुकने थोड़े ही आया हूं. भक्ति के यहां से आ रहा था, सोचा, दीप्ति के भी हालचाल लेता चलूं.’’
‘‘अच्छाअच्छा,’’ कह कर उन्होंने सुकूनभरी सांस ली. अब उन की बातों में नरमी आ गई. उन्होंने दीप्ति से कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे पापा आधे एक घंटे के लिए आए हैं. चायपानी, नाश्ता अच्छे से करा देना. चाहें तो खाना भी पैक कर देना. अच्छा भाईसाहब, मैं चलती हूं, बहुत काम पड़ा है. आप थोड़ी ही देर के लिए आए हैं. बेटी से मिल लीजिए. मैं क्यों फालतू की बातों में आप का समय बरबाद करूं,’’ हंसती हुई वे वहां से निकल गईं.
‘कितनी जहरीली हंसी है इस औरत की. दीप्ति की सास भी भक्ति की सास की तरह तेजतर्रार है. बड़ी बदतमीज औरत है. हमेशा काट खाने को तैयार. न जाने कैसे रहती है मेरी बेटी इस के साथ? बेचारी पूरे दिन चकरघिन्नी की तरह नाचती है. पूरे घर का काम करती है. कैसी स्वस्थ, हट्टीकट्टी बेटी विदा की थी मैं ने, आज केवल हड्डियों का ढांचा रह गई है.’
मोहनजी मन ही मन सोच रहे थे. दीप्ति पानी लिए पिता के पास आई. उस की आंखें सूखी थीं. मोहनजी की आंखें भर आईं. वे बोले, ‘‘कुछ नहीं लूंगा, बेटा. बस, तुम्हें देखने आया था, देख लिया. अब चलता हूं.’’
उन के निकलते ही दरवाजा तेजी से बंद करने की आवाज आई. शायद उस की सास ने बंद किया होगा. ‘बदतमीज औरत’ कह कर मोहनजी बोझिल कदमों से आगे बढ़ गए. रात एक धर्मशाला में जैसेतैसे बिताने के बाद वे अगले दिन सुबहसुबह ही बिना किसी पूर्व सूचना के तीसरी बेटी नीति के यहां पहुंच गए. बड़ी चहलपहल थी वहां. लोग कहीं निकलने की तैयारी कर रहे थे. पापा को यों अचानक देख नीति हैरान रह गई. उस ने दौड़ कर पापा का हाथ पकड़ा और लगभग खींचती हुई अपने कमरे में ले गई.
‘‘पापा, आप यहां? इस तरह कैसे आना हुआ?’’
‘‘बस बेटा, ऐसे ही आने का प्रोग्राम बन गया. सोचा, चल के कुछ दिन तुम्हारे यहां रह लूं. तुम लोग कहीं जा रहे हो क्या?’’
‘‘हां पापा, हम लोग आज ही अमेरिका जाने के लिए निकल रहे हैं. 3 घंटे बाद की फ्लाइट है. मेरी ननद की शादी है. लड़का एनआरआई है. लड़के की जिद है कि शादी अमेरिका में ही हो. बस, वहीं के लिए निकल रहे हैं. आप को फोन कर के आना चाहिए था, पापा. मैं कहीं आप के ठहरने की व्यवस्था करा देती. अब आप कहां रहेंगे? हम लोग तो जा रहे हैं.’’