जाड़े की गुनगुनी और मखमली धूप खिड़की से सीधे कमरे में प्रवेश कर रही थी. मोहनजी खिड़की के पास खड़े धूप के साथसाथ गरम चाय की चुसकियां ले रहे थे.
तभी मां खांसती हुई कमरे में घुसीं. मोहनजी के मुसकराते और चिंतामुक्त चेहरे को देख वे बोलीं, ‘‘अरे, अब तो कुछ गंभीर हो जा. तुझे देख कर तो लगता ही नहीं कि आज तू चौथी बेटी का बाप बना है.’’
‘‘इस में गंभीर रहने की क्या बात है, मां? बाप बना हूं चौथी बार. कितनी खुशी की बात है,’’ मोहनजी मां की तरफ मुड़ कर बोले.
‘‘हां, पर बेटी का बाप, और वह भी चौथी बेटी का. इस बार तो पूरी उम्मीद थी कि पोता ही होगा. कौन से देवता के चरणों में माथा नहीं टेका. कौन सी मनौती नहीं मांगी. व्रत, दान, तीरथ, पूजापाठ, सब बेकार गया. न जाने देवीदेवता हम से क्यों नाराज हैं. हमारा खानदान न तो आगे बढ़ पाएगा और न ही मेरे लड़के को...’’ इस से पहले कि मां आगे कुछ और बोलतीं, मोहनजी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.
वे मां पर लगभग चीखते हुए बोले, ‘‘बस, मां, बस. कड़वा बोलने की सारी हदें पार कर दीं आप ने. फिर से वही पुराना राग. पोता, पोता, पोता. तुम्हारी इन्हीं ऊलजलूल अंधविश्वासी बातों की वजह से मैं किसी भी बेटी के पैदा होने पर खुशी नहीं मना पाता. घर का माहौल खराब कर देती हैं आप इन घटिया और ओछी बातों को बारबार सुना कर. ऐसी हरकतें करने लगती हैं आप कि मानो कोई पहाड़ टूट पड़ा हो आप पर. पोता चाहिए था आप को, नहीं हुआ. पोती हुई, बात खत्म.’’ मां पर इन सब बातों का कोई फर्क नहीं पड़ा. वे और भी ऊंचे स्वर में बोलीं, ‘‘अरे, तुझे क्या? बाहर आसपड़ोस की मेरी उम्र की सारी औरतें मुझे चार बातें सुनाती हैं. सभी के एक न एक पोता जरूर है. मेरा इकलौता बेटा बेसहारा ही रहेगा. बुढ़ापे में कोई दो रोटी देने वाला भी नहीं रहेगा.’’