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‘‘कोई बात नहीं, बेटा. तुम लोग आराम से जाओ. एंजौय करो. मैं तुम्हारे घर में रह लूंगा और तुम्हारे घर की देखभाल भी कर लूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, ऐसा कैसे हो सकता है? इतना बड़ा घर है. एक से एक कीमती सामान है घर में. आप को पता भी है, इस घर के एकएक डैकोरेटिव आइटम 50-50 हजार रुपए के हैं. और ये जो पेंटिंग देख रहे हैं आप, लाखों की है. सौरभ इन्हें अपने हाथों से साफ करते हैं. किसी और मैंबर को छूने भी नहीं देते. वैसे भी यहां चोरीचकारी अकसर होती हैं. और आप ठहरे बूढ़े इंसान. क्या कर पाएंगे? आप को तो मारेंगे ही, घर के सारे सामान चोरी हुए तो करोड़ों गए. घर बंद कर के जाने में ही भलाई है. यहां के चोर लूटपाट तो करते ही हैं, जान भी ले लेते हैं. और वैसे भी हम लोग 3 महीने बाद लौट ही रहे हैं. तब तक आप अपनी व्यवस्था कहीं और कर लीजिए. चाहें तो रीति के यहां रह लीजिए. मैं वापस लौटते ही आप को अपने पास बुला लूंगी.’’

मोहनजी का सिर घूम गया. यह वही नीति है, जो सब से ज्यादा मम्मीपापा के लिए लड़ती थी. ससुराल में सब से बड़ा वाला कमरा मैं मम्मीपापा को दूंगी. सासससुर को घर से निकाल दूंगी पर पापामम्मी को कहीं नहीं जाने दूंगी. और आज पापा से कहीं ज्यादा कीमती घर और घर के निर्जीव सामान हैं. इसी नीति की शादी में घर गिरवी रख दिया था. किसी कीमत पर इंजीनियर लड़के को अपना दामाद बनाना चाहते थे, चाहे कितना भी दहेज देना पड़े. थके और लड़खड़ाते कदमों से वे बाहर आ गए. बड़ी उम्मीद और आशा के साथ वे रीति के घर पहुंचे. कम से कम उन्हें यहां तो एक कोने में जगह मिल जाएगी. उन की सब से छोटी बेटी, सब से लाड़ली बेटी, उन्हें निराश तो नहीं करेगी.

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