लेखक निर्देशक सुजॉय घोष की बौलीवुड में अपनी एक अलग पहचान है. उनकी पहली फिल्म ‘‘झंकार बीट्स’’ ने सफलता के झंडे गाड़े थे. मगर फिर ‘होम डिलीवरी’ और ‘अलादीन’ ने बाक्स आफिस पर सफलता नहीं पायी थी. मगर उनकी चौथी फिल्म ‘कहानी’ ने बाक्स आफिस पर सफलता बटोरने के साथ ही सुजॉय घोष को सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक के राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ साथ फिल्मफेयर अवार्ड भी दिला दिया था. मगर ‘‘कहानी’’ के बाद उन्हे दूसरी फिल्म बनाने में काफी समय लग गया. कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. पर अब वह ‘कहानी 2: दुर्गारानी सिंह’ को लेकर काफी उत्साहित हैं. हाल ही में उनसे हुई लंबी बातचीत इस प्रकार रहीः
क्या ‘कहानी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के दबाव के कारण उसके सिक्वअल की कहानी लिखने में समय लगा?
– जी नहीं! दबाव के साथ काम नही करता. मेरे दिमाग में पुरस्कार मिलने की बात कभी आती ही नही है. कहानी लिखते समय मेरे दिमाग में था कि मुझे जो इज्जत मिली है, वह बरकरार रहे. मैं दर्शकों के प्यार को पकड़ कर रखना चाहता हूं. वैसे मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि ‘कहानी 2 : दुर्गारानी सिंह’ मेरी पिछली सफल फिल्म ‘कहानी’ का सिक्वअल नहीं, बल्कि उस सफल फिल्म की फ्रेंचाइजी है. यदि ‘कहानी 2 : दुर्गारानी सिंह’ सफल हो गयी, तो ‘कहानी 3’ भी बनाउंगा.
दूसरी बात मेरी पहली जिम्मेदारी दर्शकों के प्रति होती है कि उन्हे मनोरंजन मिले. दूसरी जिम्मेदारी एक फिल्मकार के रूप में अपनी हर फिल्म के माध्यम से कुछ कहना होता है. मैं अपनी सोच के अनुसार कुछ कहने का प्रयास करता हूं, वह बात दर्शक को सुनाई दी या नहीं, यह एक अलग मसला है. इसलिए एक विषय या सोच को कहानी का रूप देने में भी समय लगा.
आप ‘कहानी’ के बाद ‘दुर्गारानी सिंह’ बना रहे थे, जिसे करने से कंगना रानौट व ऐश्चर्या राय बच्चन सहित कोई भी अदाकारा तैयार नहीं हुई. इसीलिए आपने अब ‘‘कहानी 2’’ के नाम के साथ दुर्गारानी सिंह भी जोड़कर फिल्म का नाम ‘‘कहानी 2 : दुर्गारानी सिंह’’ रखा?
– वह कहानी अलग थी. पर मुझे दुर्गारानी सिंह नाम बहुत पसंद था, इसलिए उसे इस फिल्म के साथ जोड़ दिया. इसी के साथ उस कहानी से कुछ चीजें लेकर मैंने इस फिल्म की कहानी में जोड़ दिया.
अभी भी आप ‘‘दुर्गारानी सिंह’’ फिल्म बनाने वाले हैं?
– नहीं! ‘दुर्गारानी सिंह’ की ही तरह मैं कई फिल्में नहीं बना पाया. वास्तव में जब हमने इस फिल्म की कहानी लिखी, तो इसके निर्माण में काफी समस्याएं आती रहीं. कभी फिल्म बनाने के लिए हमें पैसा मिल जाता, तो उस वक्त अभिनेत्री गायब हो जाती थी. कभी अभिनेत्री होती, तो पैसा गायब हो जाता. कई तरह की समस्याएं आयी. शायद कहीं यह लिखा हुआ था कि मुझे अगली फिल्म विद्या बालन के साथ ही बनानी है. तो दूसरी समस्याएं आती रहीं. अब तो मुझे लगता है कि जो लिखा होता है, वही होता है.
बतौर निर्देशक आप फिल्म नहीं बना पा रहे थे. इसलिए आपने बंगला फिल्म ‘‘सत्यान्वेषी’’ में ब्योमकेश बक्षी का किरदार निभाया था?
– ऐसा ना कहें. मैं रितुपर्णो घोष के साथ काम करना चाहता था. इसलिए मैंने उनकी फिल्म में अभिनय किया. रितुपर्णो घोष को ना बोलने वाला अभी तक कोई कलाकार पैदा नहीं हुआ, तो मैं उन्हें ‘ना’ कैसे कह देता. अमिताभ बच्चन जैसा कलाकार भी उन्हें ना नही हो बोल सकता. रितुपर्णो घोष ने एक दिन कहा कि वह मेरे साथ फिल्म बनाना चाहते हैं. मेरे मन में तो उनके साथ काम करने का सपना था. मुझे उनके साथ काम करके बहुत कुछ सीखना था. तो उनके निर्देशन में बंगला फिल्म करके मैंने बहुत कुछ सीखा. पर अभी भी सीखना बाकी है. मगर वह अब रहे नहीं. मेरी राय में उनसे बेहतरीन निर्देशक भारत में नही है. उनके जैसा लेखन कार्य कोई नही कर सकता. मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया, इसलिए लोग मुझे बहुत अच्छा पटकथा लेखक भले मान लें, पर मैं रितुपर्णो घोष के सामने कहीं नहीं ठहरता. उनके साथ काम करने का अपना एक अलग तर्जुबा रहा.
फिल्म ‘‘कहानी 2’’ क्या है?
– एक मां की कहानी है. यह कहानी किसी की भी मां की कहानी हो सकती है. एक मां की खुद ब खुद ओढ़ी हुई जिम्मेदारी होती है, उसी की कहानी है. देखिए, मां बनते ही नारी पूर्णतः बदल जाती है. वह अचानक अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर इस कदर जागरुक रहने लगती है कि वह उसके लिए कोई भी कदम उठा सकती है. एक मां उस लड़की या औरत से एकदम भिन्न हो जाती है, जिसे आप या हम पहले से जानते रहते हैं. एक औरत जब मां बनती है तो वह किसी भी सूरत में बच्चे को किसी भी तरह का नुकसान नहीं होने देती. इस फिल्म में रोमांच है, पर सस्पेंस नहीं है. ‘कहानी’ और ‘कहानी 2’ में बहुत बड़ा अंतर है. यह अंतर कहानी के साथ साथ हम जो कहना चाहते हैं, उसमें है. ‘कहानी’ में एक अलग कलकत्ता था और ‘कहानी 2’ में एक अलग कलकत्ता है. ‘‘कहानी 2’’ में कलकत्ता कम और कालिम्पोंग ज्यादा है.
इस फिल्म में आपने मां के किस रूप को दिखाया है?
– हमारी फिल्म की यह मां वह है, जो कि फिल्म ‘दीवार’ में मां थी, जहां मां (निरुपमा राय) ने शशि कपूर के हाथ में बंदूक देते हुए कहा था कि, ‘भाई के उपर भी गोली चलाते हुए तेरे हाथ ना कांपे.’ यानी कि यह वह मां है, जिसे अन्याय बर्दाश्त नहीं. यह वह मां है, जिसे सही व गलत का अंतर पता है.
पर क्या वर्तमान समय में लोग हर चीज को सही व गलत के रूप में देखते हैं?
– मेरा निजी ज्ञान यह है कि जब मैं बच्चा था, तो मेरे पास जानकारी कम होती थी, तो उन दिनों हम हर चीज को सिर्फ अच्छे या बुरे के नजरिए से देखते थे. पर अब गूगल, इंटरनेट का जमाना आ गया है. आज का बालक एक ही इंसान के बारे में बहुत कुछ देखता व समझता है. इसलिए वह हर चीज को ‘ग्रे’ के हिसाब से देखने लगा है.
पुरानी कहावत है कि एक ही इंसान के चेहरे पर कई मुखौटे लगे हुए हैं. यह बात आपकी फिल्म में कैसे आती है?
– जब आप फिल्म देखेंगे, तो आपको एक ही मां के कई चेहरे नजर आएंगे.
स्टूडियो सिस्टम से फिल्म की रचनात्मकता को कितना फायदा या कितना नुकसान हुआ?
– मेरे हिसाब से स्टूडियो सिस्टम चलना चाहिए. स्टूडियो सिस्टम के आने से पहले सबसे बड़ी समस्या सही समय पर फिल्म निर्माण के लिए पैसे मिलने की हुआ करती थी. उस वक्त निर्माता की जेब में जब पैसा होता था, तब वह शूटिंग के लिए पैसा देता था, अन्यथा शूटिंग रुकी रहती थी. स्टूडियो सिस्टम में शूटिंग के अनुसार पैसे मिलते रहते हैं. इसलिए अब सही समय पर सही बजट के साथ फिल्में पूरी होती हैं. पर मैंने अब तक स्टूडियो के साथ ज्यादा काम नहीं किया है. इसलिए मेरे अनुभव नहीं है. जहां तक रचनात्मकता का सवाल है, तो मुझे उनकी बातें समझ में आती है. क्योंकि एक वक्त वह था, जब मैं भी उनकी तरह कुर्सी संभालता था. उस वक्त मुझे अपनी कुर्सी से चिपक कर रहना होता था. इसलिए मैं अकेले निर्णय नहीं लेता था. कुर्सी बचाने के चक्कर में हम अकेले निर्णय नहीं लेते हैं. सब सामूहिक निर्णय होता है. अब समूह में किसी एक ने ना कर दिया तो वह ना होता है, जिसके अपने फायदे व नुकसान हैं. स्टूडियो ने कुछ अच्छी व कुछ बुरी फिल्में बनायी हैं .
पर डिजनी या बालाजी ने हिंदी फिल्में बनाने से तौबा क्यों कर लिया?
– मुझे इस बारे में कुछ नही पता. मेरे अनुभव बहुत कम हैं.
लोग कहते हैं कि स्टूडियो में गैर फिल्मी यानी कि एमबीए करके लोग बैठे हैं. इसलिए सही निर्णय नही ले पा रहे हैं?
– मैं नहीं मानता. यदि मैं फिल्म नही बनाता हूं, पर मुझे फिल्मों का अच्छा सेंस हो सकता है. एक फिल्म आलोचक, एक अच्छा निर्देशक हो यह जरूरी नहीं है. स्टूडियो में बैठा इंसान पटकथा पढ़कर निर्णय लेने की क्षमता रखता है, पर इसके यह मायने नहीं है कि उसे फिल्म बनाना चाहिए.
जब भारतीय सिनेमा की शुरुआत हुई, तब स्टूडियो सिस्टम हुआ करता था. एक ही स्टूडियो में कलाकार व निर्देशक नौकर हुआ करते थे. पूरे विश्व में स्टूडियो सफल हैं और दुनिया भर में राज कर रहे हैं. पर वही स्टूडियो भारत में आकर असफल हो गए. क्यों?
– मुझे इसकी कोई जानकारी नही है. यह बहुत कठिन सवाल है. इसका जवाब डिजनी वाले ही दे सकते हैं. मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि फिल्मे जल्दी बननी चाहिए. एक फिल्म के बनने में चार साल का समय नहीं लगना चाहिए.