‘‘मेरे सामने तो तुम उसे राधा बहन मत बोलो. मुझे तो यह गाली की तरह लगता है,’’ मालती भड़क उठी.
‘‘अगर उस ने बिना कुछ पूछे अचानक आ कर मुझे राखी बांध दी, तो इस में मेरा क्या कुसूर? मैं ने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था,’’ मोहन बाबू तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए बोले.
‘‘हांहां, इस में तुम्हारा क्या कुसूर? उस नीच जाति की राधा से तुम ने नहीं, तो क्या मैं ने ‘राधा बहन, राधा बहन’ कह कर नाता जोड़ा था. रिश्ता जोड़ा है, तो राखी तो वह बांधेगी ही.’’
‘‘उस का मन रखने के लिए मैं ने उस से राखी बंधवा भी ली, तो ऐसा कौन सा भूचाल आ गया, जो तुम इतना बिगड़ रही हो?’’
‘‘उंगली पकड़तेपकड़ते ही हाथ पकड़ते हैं ये लोग. आज राखी बांधी है, तो कल को भाईदूज पर खाना खाने भी बुलाएगी. तुम को तो जाना भी पड़ेगा. आखिर रिश्ता जो जोड़ा है. मगर, मैं तो ऐसे रिश्तों को निभा नहीं पाऊंगी,’’ मालती ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया. राधा अभी राखी बांध कर गई ही थी कि उसे याद आया कि वह मोहन बाबू को मिठाई खिलाना भूल गई थी. अपने घर से मिठाई ला कर वे खुशीखुशी मोहन बाबू के घर आ रही थी, मगर मोहन बाबू और उन की बीवी मालती की आपस में हो रही बहस सुन कर उस के पैर ठिठक कर आंगन में ही रुक गए. जब राधा ने उन की पूरी बात सुनी, तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे लगा जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. वह चुपचाप उलटे पैर लौट गई. उस की आंखों में आंसू छलक आए थे.
मोहन बाबू सरकारी स्कूल में टीचर थे. तकरीबन 6 महीने पहले ही वे इस गांव में तबादला हो कर आए थे. यह गांव शहर से काफी दूर था, इसलिए मजबूरन उन्होंने यहीं पर मकान किराए पर ले लिया. मोहन बाबू बहुत ही मिलनसार और अच्छे इनसान थे. वे बहुत जल्द ही गांव वालों से घुलमिल गए. गांव का हर आदमी उन की इज्जत करता था, क्योंकि वे छुआछूत, जातपांत वगैरह दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे. मोहन बाबू के मकान से कुछ ही दूरी पर राधा एक झोंपड़ीनुमा मकान में रहती थी. उस का लड़का मोहन बाबू के स्कूल में पढ़ता था. राधा थी तो विधवा, मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी. उसी पर उस की जिंदगी की सारी उम्मीदें टिकी हुई थीं, इसलिए वह समयसमय पर स्कूल आ कर उस की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछती रहती. उस के बेटे के चलते ही मोहन बाबू की उस से जानपहचान थी.
मोहन बाबू भी राधा के बेटे को चाहते थे, क्योंकि वह पढ़नेलिखने में तेज था, इसलिए वे खुद उस के बेटे पर ज्यादा ध्यान देते थे. राधा जब भी स्कूल आती, उन से ही मिलती और अपने बेटे के बारे में ढेर बातें करती. मोहन बाबू राधा को राधा बहन कह कर ही बात करते थे. उन के लिए तो यह केवल संबोधन ही था, मगर राधा तो सचमुच ही उन्हें अपना भाई समझने लगी थी. तभी तो रक्षाबंधन के दिन बिना कुछ सोचेसमझे उस ने उन्हें राखी बांध दी थी. राधा को अपनी गलती का एहसास तब हुआ, जब उस ने उन की और मालती की आपस में हो रही बातें सुनीं. उस के बाद उस ने मोहन बाबू के घर जाना ही बंद कर दिया. एक बार 2-3 दिन तक मोहन बाबू स्कूल नहीं आए, तो राधा को चिंता होने लगी. मोहन बाबू ने चाहे उसे ऊपरी तौर पर बहन माना था, मगर उस के लिए तो वह रिश्ता दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था. लगातार 2-3 दिनों तक उन का स्कूल न आना राधा के लिए चिंता की बात बन गया.
आखिरकार दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची. घर का दरवाजा खुला हुआ था. उस ने बाहर से ही दोचार बार आवाज लगाई, मगर जब काफी देर तक अंदर से कोई जवाब न आया, तो वह किसी डर से सिहर उठी.
मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. राधा ने पलंग के पास जा कर आवाज लगाई, ‘‘भैया… भैया…’’ मगर उन्होंने कोई जवाब न दिया. वह घबरा गई और उस ने उन्हें झकझोर दिया. मगर उन्होंने तब भी कोई जवाब नहीं दिया.
उस ने मालती को ढूंढ़ा, मगर वह वहां नहीं थी. अस्पताल वहां से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर शहर में था, इसलिए आननफानन उस ने किसी तरह एक ट्रैक्टर वाले को और कुछ गांव वालों को तैयार किया, फिर वह उन्हें अस्पताल ले गई.
डाक्टर ने मोहन बाबू को चैक कर तुरंत भरती करते हुए कहा, ‘‘अच्छा हुआ, आप लोग इन्हें समय पर ले आए, वरना हम कुछ नहीं कर पाते. यह बुखार बहुत जल्दी कंट्रोल से बाहर हो जाता है.’’
‘‘अब तो मोहन भैया ठीक हो जाएंगे न?’’ राधा ने आंखों में आंसू लाते हुए डाक्टर से पूछा.
‘‘जब तक इन्हें होश नहीं आ जाता, हम कुछ नहीं कह सकते. मगर मेरा मन इतना जरूर कहता है कि आप जैसी बहन के होते हुए इन्हें कुछ नहीं हो सकता,’’ डाक्टर ने मुसकराते हुए कहा. मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. उन की दवादारू लगातार चल रही थी, मगर अभी तक उन्हें होश नहीं आया था. राधा उन के पलंग के पास चुपचाप बैठी थी. रहरह कर न जाने क्यों उस की आंखों से आंसू छलक जाते थे. तकरीबन 12 घंटे बाद मोहन बाबू को होश आया और उन्होंने आंखें खोलीं. मोहन बाबू को होश में आया देख राधा की आंखें खुशी से चमक उठीं. बाकी सभी गांव वाले तो उन्हें भरती करवा कर चले गए थे. बस, राधा ही अकेली उन के पास देखरेख के लिए थी. हां, कुछ लोग उन का हालचाल पूछने के लिए जरूर आतेजाते थे, मगर काफी कम, क्योंकि लोगों को राधा का वहां होना खलता था. दवाएं देने व मोहन बाबू की देखरेख की जिम्मेदारी राधा बखूबी निभा रही थी. समय पर दवाएं देना वह कभी नहीं चूकती थी.
मोहन बाबू के मैले पसीने से सने कपड़े धोने में राधा को जरा भी संकोच न होता. उसे खुद के भोजन का तो ध्यान न रहता, मगर उन्हें डाक्टर की सलाह के मुताबिक भोजन ला कर जरूर खिलाती. मालती मायके गई हुई थी. उसे टैलीग्राम तो कर दिया था, लेकिन उसे आने में 3 दिन लग गए. तीसरे दिन वह घर आ पहुंची. जब मालती अस्पताल आई, तो राधा मोहन बाबू के पलंग के पास बैठी थी. मोहन बाबू खाना खा रहे थे. उसे देखते ही उन के हाथ मानो थम से गए.
मालती को देखते ही राधा उठ खड़ी हुई और उस के पास आ कर बोली, ‘‘भाभी, अब आप अपनी जिम्मेदारी निभाइए.’’
राधा जाने के लिए पलटी, मगर फिर वह एक पल के लिए रुक कर बोली, ‘‘और हां, मैं ने इन्हें अपने घर का खाना नहीं खिलाया है. होटल से ला कर खिलाना तो मेरी मजबूरी थी. हो सके, तो इस के लिए मुझे माफ कर देना.’’
मालती बस हैरान सी खड़ी हो कर उसे जाते हुए देखती रह गई, मगर कुछ बोल नहीं पाई. राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती समझ चुकी थी कि शायद राधा रक्षाबंधन पर उस के और मोहन बाबू के बीच हुए झगड़े को सुन चुकी है. कुछ ही दिनों में मोहन बाबू ठीक हो गए और उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. मगर राधा उन के घर नहीं आई. बस, वह लोगों से ही उन का हालचाल मालूम कर लिया करती थी. एक दिन अचानक मालती राधा के घर जा पहुंची. राधा कुछ चौंक सी गई.
‘‘बैठने के लिए नहीं कहोगी राधा बहन?’’ मालती ने ही चुप्पी तोड़ी.
‘‘हांहां, बैठो भाभी,’’ राधा ने हिचकिचाते हुए कहा और चारपाई बिछा दी.
‘‘कल भाईदूज है. हमारे यहां तो बहनें इस दिन अपने घर भैयाभाभी को भोजन के लिए बुलाती हैं, क्या तुम्हारे यहां ऐसा रिवाज नहीं है?’’
‘‘है तो, मगर…?’’
‘‘अगरमगर कुछ नहीं. हमें और शर्मिंदा मत करो. हम दोनों कल तुम्हारे यहां खाना खाने आएंगे,’’ मालती ने कुछ शर्मिंदा हो कर कहा.
राधा की आंखें खुशी से नम हो गईं. उसे आज लग रहा था कि मोहन बाबू को भाई बना कर उस ने कोई गलती नहीं की.