कोरोना वायरस की माहमारी से बचने के लिए भारत सरकार के पास सिवा लौकडाउन करने के दूसरा उपाय नहीं है. लौकडाउन का फायदा कितना होगा, इस का अंदाजा भी
अभी नहीं लगाया जा सकता. यह बीमारी किसेकिसे हो चुकी है, इस का पता टैस्ंिटग से चलेगा जबकि हमारे देश में टैस्ंिटग बहुत कम की जा रही है.
लौकडाउन की वजह और पर्याप्त टैस्ंिटग न होने के चलते इस वायरस से प्रभावित लोगों के बारे में पता नहीं चल पाएगा. गरीबों के इलाकों में इस वायरस से ग्रसित लोग छिपे ही रह जाएंगे. ऐसे इलाकों में ग्रसित व उस के संबंधियों को मालूम ही नहीं होगा कि यह आम खांसीबुखार है या कोविड-19 बीमारी. पीडि़त मर जाएगा, यह पता न चलेगा कि वह वायरस के चलते मरा. वैसे भी, जब डाक्टर घर में आ न पाए और पीडि़त को घर से निकल कर अस्पताल जाने की छूट हो, तो टैस्ंिटग सैंटर तक कोई कैसे जाएगा?
अखबारों का प्रसार व उन की पहुंच कम हो गई है जबकि टीवी चैनलों को मरकज के मामले को उछालने व रामायण दिखाने से फुरसत ही नहीं है. कोरोना के असली बीमार होंगे, तो भी पता न चलेगा और अगर वे मर गए तो उन की मौतों को आम मौत मान लिया जाएगा.
दुनिया के अमीर देशों में यह बीमारी बहुत तेजी से फैल रही है. चीन के बाद पहले इटली, ईरान, जरमनी, स्पेन, इंग्लैंड और अब अमेरिका में फैल रही है.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहले इसे बहुत हलके में लिया. आज पूरा अमेरिका इस की कीमत चुका रहा है. अमेरिका कोविड-19 के पीडि़तों की तादाद में सब से ऊपर है, चीन से भी ऊपर.
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दूसरे देशों की सरकारों ने जहां सही आर्थिक फैसले ले कर इस महामारी से लड़ने के लिए लोगों को पर्याप्त सहायता दी, वहीं भारत सरकार अपने खजाने को बचा कर रख रही है. जिस एक लाख करोड़ के पैकेज की बात की जा रही है, वह छलावा है क्योंकि यह कहां व किस की जेब में जा रहा है, पता नहीं. बैंकों के जिन खातों में यह पहुंचेगा, वहां पैसा निकालने कोई नहीं आएगा क्योंकि लोगों के पास न पासबुक बची होगी, न चैकबुक.
शहरों या शहरों के नजदीक ज्यादातर छोटेबड़े उद्योग बंद हो गए हैं. न कच्चा माल वहां आ रहा है, न तैयार माल मार्केट में जा पा रहा है. मजदूर भी झुग्गियों से चल कर फैक्ट्री तक पहुंच नहीं पा रहे. इन उद्योगों में कर्मियों के साथ बहुत से मजदूर काम पर लगे होते थे. इन गैर नियमित कर्मियों और मजदूरों को 24 मार्च को एहसास हो गया था कि अब उन की नौकरी महीनों वापस नहीं आएगी. ऐसे में वे कई बड़े शहरों से अपनेअपने गांवों की ओर चल पड़े थे.
इन मजदूरों व कर्मियों की भीड़ से भयभीत हो कर केंद्र सरकार ने डंडों की सहायता ली. मीडिया का मुंह बंद करा दिया. भीड़ में अगर कोविड-19 के बीमार भी थे तो वे भूख से ही पहले मरने की कगार पर थे, कोविड-19 से बाद में, ऐसा साफ दिख रहा था.
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चीन की खबरें क्या, कितनी आती हैं, यह जान लें कि वहां की तानाशाही सरकार वही व उतना दिखाती है जितना वह चाहती है. उस ने सूचनाओं पर लोहे का मोटा परदा डाल रखा है. ऐसा ही परदा हमारी भारत सरकार और ऊंची जातियों के लोगों से भरे देश व इलैक्ट्रौनिक मीडिया, खासकर टीवी चैनलों, ने डाल रखा है.
टीवी चैनल तो कोरोना महामारी के आपातकाल में भी हिंदू-मुसलिम विवाद पर उतर आए और खोजखोज कर पुराने, नकली, इधरउधर के वीडियो के जरिए पढ़ीलिखी जनता को भी यह बताने में लग गए हैं कि देश में सब कुशलमंगल है.
तालियों और दीयों के आवरण में देश सुलग रहा है. लेकिन, इस देश की इस तरह की रूढि़यों की आदत पुरानी है. यहां आग सुलगती रहती है. यहां के शासक, अमीर, ऊंची जातियों वाले, धर्म को बेचने वाले, आग पर अपनी रोटियां सेंकते हैं. सदियों की परंपरा को चार किताबें पढ़ लेने से भला तोड़ा थोड़ी जा सकता है.
कोरोना के आगे सब बेकार
कोरोना वायरस ने सारी दुनिया को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है, जिस की कुछ महीनों पहले तक उम्मीद न थी. दुनिया के सारे देश इस से डरे हुए हैं. देशों के आणविक हथियारों के खजाने, बड़ी तादाद वाली फौजें इस वायरस के आगे बेकार हैं.
आमतौर पर सोचा जाता था कि दुनिया एक दिन मानव के बनाए आणविक हथियारों से नष्ट होगी. इस पर सैकड़ों उपन्यास लिखे गए हैं, कई फिल्में बनी हैं. फिर, यह सोचा जाने लगा कि इस धरती को तो ग्लोबल वार्मिंग नष्ट करेगी. दुनिया जब फ्यूल और कोयले पर रोक लगाने का हल्ला मचा रही थी तो सोचा जा रहा था कि उस में अड़ंगा लगाने वाले मानवता के दुश्मन हैं.
क्या पता था कि दुनिया पर आक्रमण तो कहीं और से होगा. शायद चमगादड़ों में पनपा कोरोना वायरस, जिस के कई स्वरूप पिछले 2 दशकों के दौरान वैज्ञानिकों को दिख रहे थे, धीरेधीरे इतना जटिल हो गया है कि अब यह इंसानों में घुस गया. एक इंसान से दूसरे इंसान में आसानी से घुस जाता है और पहले खांसी, फिर फेफड़ों को संक्रमित कर उसे सांस लेना भी दूभर कर देता है.
वायरसरूपी इस अदृश्य शत्रु ने साबित कर दिया है कि प्रकृति के लिए मानव द्वारा बनाई सीमाएं बेमतलब हैं, फौजें बेकार हैं, आर्थिक प्रगति बेकार है, नेताओं की अकड़ बेकार है.
कोविड-19 लाखों की या करोड़ों की जानें लेगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. यह 1918 के इंफ्लुएंजा के बराबर का है, उस से मजबूत है या उस से कमजोर, इस का आज सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है.
चीन, जहां शायद यह पैदा हुआ, ने काफी जल्दी इस पर काबू पा लिया. चीन ने वुहान शहर को बंद कर के और साथ ही, अपने देश के बहुत से शहरों से आनाजाना बंद कर के फिलहाल इस पर काबू पाने में सफलता पाई है. दूसरे देश चूक गए, वे समय पर ऐसा नहीं कर पाए.
इटली, स्पेन, ईरान और अमेरिका जैसे देशों को अपने धर्मों और अपने सिस्टम्स पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था. लेकिन यह विषाणु सब को लपेट गया. यह ताकतवर देशों का दंभ चूर कर गया है.
इस का यह मतलब नहीं है कि प्रकृति के कहर के आगे मानव अपनी हार मान लेगा. यह अभी नया विषाणु है, मानव को भरोसा है कि दुनियाभर के वैज्ञानिक मिल कर इस का मुकाबला कर ही लेंगे, आज नहीं तो दोचार माह में. लेकिन, तब तक यह हर मन पर जो छाप छोड़ेगा, शायद वह काले बादलों पर रुपहली चमक सिद्ध होगी.
इस वायरस ने सिद्ध कर दिया है कि देशों की सीमाएं, एकदूसरे पर आधिपत्य की भावना, गरीबीअमीरी की होड़, आर्थिक विकास की दरें वगैरह स्वास्थ्य और जीवन के आगे बेमतलब हैं. यह वायरस दुनिया को शायद इस पर सोचने को मजबूर करे.
भारत में हम जो हिंदूहिंदू करते फिर रहे हैं, उस पागलपन में शायद कमी आए. सरकार यज्ञ, हवन, गौमूत्र में लिपटी है. वह रामायण, महाभारत में सुरक्षाकवच ढूंढ़ रही है. वह मंदिरों को बनवा रही है. अब, शायद, वह सुध ले कि अस्पताल, वैज्ञानिक दृष्टि और खोज आखिरकार देश व मानव की प्राथमिकता होनी चाहिए, घिसापिटा धर्म नहीं.
गरीबों की बेचारगी
भारत के गरीबों का क्या हाल है, यह मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों से कोविड-19 के कहर के डर के बावजूद उन के अपने गांवों की ओर भागने से साफ हो गया है. दिल्ली के रास्तों पर लाखों गरीब अपने घरों तक पहुंचने के लिए बिना खाना, बिना रुपयों के झुंडों में चल रहे हैं. बेगाने अमीरों के शहरों में वे मरना नहीं चाहते, अपनेअपने गांवों में मरना चाहते हैं.
ये वे हैं जो बड़ी उम्मीदों के साथ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु या अन्य शहरों में आए थे. गांवों में घटते रोजगार के चलते वे शहरों की ओर पलायन करते हैं. गांवों की अपेक्षा शहरों में जाति का भेदभाव कम होने व पेट भरने के लायक कमाई हो जाने की तलाश में वे यहां पहुंचे थे. अब इन्हें लौटते देख कर 1947 के लौटते रिफ्यूजियों का दर्द भी फीका लग रहा है.
2-3 पोटलियों या एक बैकपैक में सारी कमाई लाद कर जाते युवा, उन की पत्नियां, बच्चियां, बच्चे खाली सड़कों पर पुलिस के डंडों के बावजूद चलते जा रहे थे. इस तरह के दृश्य तो क्रूर इसलामिक स्टेट सीरिया व कई अफ्रीकी देशों से भागते परिवारों के यूरोप में शरण मांगने के भी नहीं दिखे.
टीवी न्यूज चैनलों और मोबाइलों की वीडियो क्लिपों पर इन कमजोर बदन, काले पड़े चेहरों पर हताशा के भाव दिखाया जाना रामायण और महाभारत का मजा ले रहे भाजपाई सरकार के मंत्रियों पर भारी पड़ा है, लेकिन इतना नहीं कि केंद्र सरकार अपने तुगलकी फैसले पर पुनर्विचार कर सके.
ये गरीब लोग जिन मकानों के निर्माण के काम कर रहे थे, जिन कारखानों में काम कर रहे थे, जिन मंडियों या थोक बाजारों में उठाईधराई का काम कर रहे थे, उन की हालत पिछले कई महीनों से पतली हो रही थी. केंद्र के नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों से प्रभावित सभी प्रतिष्ठानों ने इन गरीबों को दिए जाने वाले मेहनताने में कटौती कर दी थी. ऐसे में इन की बचत लगभग खत्म हो चुकी थी. वे बेसहारा थे. कंपनियां भी पहले से ही मुसीबत में थीं. बिक्री घट गई थी. गाडि़यां व मकान बिक नहीं रहे थे. हां, सरकार जरूर मौज में थी, अब भी है.
ऐसी हालत में इन गरीबों का शहरों को छोड़ कर जाना गलत नहीं है. उन्हें, शायद, मालूम है कि वे अपने गांवों में भी मरेंगे ही, शायद गांव वाले घुसने भी न दें. लेकिन शायद वे यह सोचते हैं कि बेरहम सरकार के साए तले जीने से अच्छा है अपनों के बीच मरना.
जो लाखों लोग अपने घरों की ओर चल रहे हैं, उन में से सैकड़ों मर जाएंगे, यह तय है. कोविड-19 इतनी जानें नहीं लेगा जितनी गरीबी, जातिभेद व अंधविश्वासों में लिपटी सरकार के फैसले, भूख, साधनों की कमी ले लेगी.
धार्मिक कट्टरों का मानना है कि इन की सेवा करना कोई पुण्य का काम नहीं है. ‘चलो चारधाम यात्रा पर चलो’, ‘अमरनाथ यात्रा पर चलो’, ‘चलो भंडारा लगाते हैं’ जैसे नारे लगाने वालों को इन गरीब मजदूरों को खानापानी देने से कुछ नहीं मिलेगा. ऐसे में इन बेचारों के लिए चलना ही बेहतर नहीं, तो और क्या है.
सोशल मीडिया के भगवा वीर
2014 और 2019 के आम चुनाव आमतौर पर भारतीय जनता पार्टी ने अपने सोशल मीडिया वीरों के मारफत जीते थे जिन्होंने घरघर विधर्मियों की ईंट से ईंट बजा देने का वादा किया था. यह बता देना आवश्यक है कि जो ट्रेनिंग इन सोशल मीडिया वीरों को दी गई है उस के हिसाब से जो तिलक न लगाए, 12 तरह के कलेवे न पहने, जनेऊ न धारण करे, भगवा दुपट्टा न ओढ़े, मंदिरों में चढ़ावा न चढ़ाए, सुबहसुबह मोबाइल पर जय कृष्ण, जय राम का संदेश फौरवर्ड न करे वह विदेशी है, नितांत खालिस आतंकवादी है, भारत में घुसपैठिया है.
जब नागरिकता संशोधन कानून को ले कर पूरे देश में, इन सोशल मीडिया वीरों के अलावा, लोग सड़कों पर उतरने लगे तो ये लोग पुलिस और सेना की आड़ में छिप रहे थे. इन में वह दमखम गायब हो गया जो सड़कों पर निहत्थे, निर्दोष को पीटने पर तब दिखता था या किसी सभा को भंग करने में दिखता था. सारे देश में हो रहे नागरिकता संशोधन कानून व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ जुलूसों में शामिल युवाओं में से ये गायब रहे क्योंकि ये वीर पीछे से उकसाने वाले हैं और उकसा कर होने वाली लड़ाई के दौरान लूटपाट के भागीदार हैं.
मीडिया वीरों की इस देश में कभी कमी नहीं रही है. हर आफत पर हमारे यहां बकवास करने वालों, भजन और आरतियां करने वालों की भीड़ उमड़ती रही है. बारिश नहीं होगी, तो कुआं खोदने वाले या नहर बनाने वाले
नहीं मिलेंगे, बल्कि लड़कियों को
नंगा कर के हल चलवाने वाले मिल जाएंगे. बाढ़ आएगी, तो तमाशा देखने वाले मिल जाएंगे, डूबते को बचाने वाले नहीं मिलेंगे.
सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का जो भी इतिहास मिलता है वह मुसलिम इतिहासकारों ने घटना के कई दशकों बाद लिखा था. पर उस में भी जिक्र उसी बात का है कि बजाय आक्रांताओं से लड़ने के, पंडे मंदिर में पूजापाठ में लग गए थे. हिंदू पंडितों ने इस घटना का आंखोंदेखा हाल तक लिखने की चेष्टा नहीं की.
नोटबंदी, जीएसटी, कश्मीर से जुड़ी संविधान की धारा 370, तीन तलाक, नागरिकता संशोधन कानून जैसे निरर्थक कदमों पर सोशल मीडिया वीरों ने बिना तर्क के खूब हल्ला मचाया था और अब फिर कोविड-19 के साथ जुड़ी घटनाओं को ले कर मचा रहे हैं. पर औरतों की आज भी बुरी स्थिति, बलात्कार के बाद पीडि़ता की मुसीबतों, कुंडली की मारी लड़कियों, व्रतउपवासों में फंसी पत्नियों, विधवाओं, तलाकशुदाओं, दहेज की मारियों की उन्हें या किसी को कोई चिंता नहीं.
इन सोशल मीडिया वीरों को बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ते भ्रष्टाचार पर कोई परेशानी नहीं. महंगी होती शिक्षा पर ये भगवा सोशल मीडिया वाले कुछ नहीं कहेंगे. लेकिन, ‘वर्ष 2050 में मुसलिम आबादी भारत में 14.5 प्रतिशत से बढ़ 54.5 प्रतिशत हो जाएगी’ जैसे झूठ के आंकड़े बड़े अधिकार से परोसेंगे. दरअसल, वे जानते हैं कि झूठ फैलाने से पुलिस उन्हें नहीं पकड़ेगी क्योंकि झूठ भगवा सरकार के पक्ष में है.
एक खरी बात कोई भी सोशल मीडिया पर कह दे, उस पर दसियों जगहों से देशद्रोह का मुकदमा चलवा दिया जाएगा और पुलिस, जो सड़क पर पड़े पत्थरों को नहीं हटवा सकती, तुरंत बुलडोजर सी जीप ला कर पोस्ट करने वाले को गिरफ्तार कर लेगी. ये कमजोर भगवा सोशल मीडिया वीर असल में डरपोक, बकबकिए और अंधविश्वासी ही नहीं, उन्हें तो अपने कथन पर विश्वास भी नहीं क्योंकि उन के पास तर्क नहीं हैं. वे, दरअसल, अंधआस्था पर निर्भर रहते हैं.
धर्म की शिक्षा
धर्म की शिक्षा एक बात जरूर सिखाती है कि किसी को अपने खिलाफ बोलने न दो और जो भी आलोचना करे उस का मुंह बंद कर दो. इसलाम में आज भी यह हो रहा है. ईसाइयों में मध्ययुगों में यह बर्बरता से हुआ. भारत में यह अब फिर से जड़ पकड़ रहा है. इस का ताजा शिकार बने हैं अमेजन कंपनी के मालिक जेफ बेजौस जो भारत आए थे सरकार को पटाने के लिए कि वह किराना दुकानदारों के दबाव में आ कर ईकौमर्स कंपनियों पर नियंत्रण न करे. लेकिन, भारतीय मंत्रियों ने उन्हें घास नहीं डाली.
वजह यह नहीं थी कि भारतीय मंत्री सेठों के खिलाफ हैं. ये उन सेठों के खिलाफ हैं जो कुछ कड़वा सच बोल
दें. अमेजन आजकल अमेरिका की ‘वाश्ंिगटन पोस्ट’ न्यूज पेपर प्रकाशित करने वाली कंपनी की मालिक है.
अपनी परंपरा के अनुसार, वाश्ंिगटन पोस्ट भारत सरकार की गलत नीतियों पर खरीखोटी सुना रहा था. यह देश की भाजपा सरकार को मंजूर नहीं था. यहां जब वह रतन टाटा जैसों को दुरुस्त कर सकती है तो अमेजन उस के लिए क्या चीज है. संबंधित मंत्री ने साफसाफ कह दिया है कि अगर अमेजन भारत में एक अरब डौलर का निवेश कर रही है तो एहसान नहीं कर रही है क्योंकि यह उस नुकसान की भरपाई ही है जो उस की भारतीय कंपनी कर रही है. भारत को इस से लाभ नहीं.
वाश्ंिगटन पोस्ट अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भी ऐसीतैसी करता रहता है. एक जमाने में इसी अखबार ने पैंटागन पेपर प्रकाशित किए थे जिस से निक्सन सरकार की बहुत छीछालेदर हुई थी.
भारत सरकार ने जेफ बेजौस को कोई छूट न देने का मन बना लिया है चाहे अमेजन कंपनी यहां रहे या न रहे. यह ऐसा ही है जैसा हमारे यहां सदियों से होता रहा है कि धर्म, राजा, पंडित या रीतिरिवाजों की पोल खोलने वालों की सुनी नहीं जाती थी. आलोचकों का मुंह बंद करा दिया जाता था. धर्म, दरअसल, बहुत कमजोर नींव पर टिके हैं, लेकिन उन के महल विशाल हैं. नींव पर हर प्रहार को धर्म अपने अस्तित्व का खतरा मानते हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन के लिए सब से बड़ा खतरा है. इस में शक नहीं कि अमेरिकी कंपनी अमेजन औनलाइन मार्केटिंग की दुनिया में सब से ज्यादा प्रतिष्ठित हैं. वहीं, यह कंपनी साहसी भी है. इस की मीडिया इकाई सरकारों के गलत कदमों की तीखी आलोचना करने को चूकती नहीं.
हां, अमेजन और फ्लिपकार्ट कंपनियां ईकौमर्स के जरिए देश का कोई भला नहीं कर रहीं क्योंकि वे कुछ देश निर्माण नहीं कर रहीं. वे सिर्फ दूसरे निर्माताओं का सामान इंटरनैट टैक्नोलौजी की मारफत घरघर पहुंचा रही हैं, जो काम हमारी किराने की दुकानें पहले ही कर रही थीं. उन्हें आने ही न देना या जब घर आ गई हैं तो उन के द्वारा अपनी आलोचना किए जाने के कारण उन्हें दुत्कारने में कोई आश्चर्य तो नहीं, पर यह कृत्य सरकारी व्यवहार का सत्य दर्शन कराता है.