सुबह जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’
बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’
अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.
बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’
अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’
वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.
चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’
‘‘हां, बेटा.’’
‘‘चायवाय पी?’’
‘‘पी ली.’’
‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’
‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.
बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.
उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.
वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.
राकेश हंस कर कहा करता था, ‘तुम ने इसे बहुत सिर चढ़ा रखा है, अम्मां. देखता हूं कि इस के सामने मेरी कदर घट गई है. यह पराए घर की लड़की तुम्हारी सगी हो गई है और मैं सौतेला हो गया हूं. इस चालाक बिल्ली ने सीधे मेरी दूध की हांडी पर मुंह मारा है,’ सुन कर वह भी हंस पड़ती थीं.
उन दिनों राकेश की आर्थिक स्थिति साधारण थी. घर में एक भी नौकर न था. अम्मां बहू की देखभाल करतीं, नवजात बच्ची को संभालती और घर की सारसंभाल करतीं. एक पांव बहू के कमरे में रहता था और एक रसोई में.
इन महारानी को तो बच्ची को झबला पहनाना तक नहीं आता था. बच्ची कपड़े भिगोती तो लेटेलेटे गुहार लगाती थीं, ‘अम्मांजी, जल्दी आना. अपनी नटखट पोती की कारस्तानी देखना.’
अब भी वही अम्मां थीं और वही बहूरानी. बदलाव आया था तो सिर्फ स्थितियों में. बहू अब हर महीने हजारों रुपए कमाने वाले अफसर की बीवी थी और अम्मां बूढ़ी व लाचार होने के कारण उस के किसी काम की नहीं रहीं. तभी तो घर के कबाड़ की तरह कोने में पटक दी गईं. अगर अब भी उन के बदन में अचार, मुरब्बे और बडि़यां बनाने की ताकत होती तो यह बहू अपनी मिसरी घुली आवाज में ‘अम्मांअम्मां’ पुकारते नहीं थकती.
अशक्त प्राणी को दया कर के परसी हुई थाली दे देती थी यही क्या कम था? पर बूढ़े आदमी की पेटभर रोटी के अलावा भी कोई जरूरत होती है, इसे बहू क्यों नहीं समझती? जिस अकेलेपन को भरने के लिए गांव छोड़ा, वही अकेलापन यहां भी कुंडली मार कर उन्हें अपनी गिरफ्त में लिए हुए था. इस वेदना को कौन समझता?