लीना अपनी थकी हुई, झुकी हुई गर्दन उठाकर आकाश की ओर देखने लगी. उसकी आँखों में एक विचित्र सा भाव था, मानो भीतर कही कुछ चेष्टा कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, अपने अंदर घुटी हुयी साँसों को गतिमान करने की, किसी मृत स्वप्न को जीवित करने की, और इस कोशिश में सफल न हो रही हो.

दोपहर की उस सूनी सड़क पर जैसे मानो कोई शाप की छाया मँडरा रही थी. मनुष्य ने इस धरती केअनेक टुकड़े कियें. देश, महादेश बनायें. प्रत्येक देश और महादेश की एक परिसीमा तय की गयी. प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक इन सीमाओं के लिये युद्ध होते रहे हैं. लेकिन, कोरोना बिना अनुमति सीमाओं को तोड़ती हुई अपना साम्राज्य फैलाती गयी. बिना किसी पासपोर्ट, बिना कोई वीजा, आज वो विश्व की लगभग हर शहर में मातम बाँटती घूम रही है. उसके भय से सभी अपने-अपने घरों में बंदी थें, जीवित रहने की यह महत्वपूर्ण शर्त जो थी.

भारत के अन्य शहरों की तरह फिरोजपुर में भी लॉकडाउन था. लीना विवाहिता थी, एक बच्चे की माँ. उसके पति का नाम अमरीश सिंह है. रेलवे में काम करता है. वे उसी हैसियत से रेलवे के इन क्वाटर्ररों में रहते हैं. पहले प्रातः काल नौ बजे चले जाता था. उसके बाद दोपहर में खाना खाने घरआता, फिर घंटे भर बाद पुनः जाकर शाम छ बजे तक लौट आता था. कभी-कभी दोस्तों के साथ पीने बैठे जाता तो देर भी हो जाया करती थी.

पर लॉकडाउन ने दिनचर्या बदल कर रख दी थी. दस बजे सोकर उठना, नाश्ता करना, स्नान करना, टी वी देखना, दोपहर का भोजन करना, उसके बाद फिर से पैर फैलाकर सो जाना. शाम में चाय के साथ पकौड़े का आनंद उठाना, बालकोनी से चिल्लाकर कुछ दोस्तों से बातें करना, उसके बाद टी वी देखने बैठ जाना, रात का खाना खाना और पुनः बिस्तर पर गिर जाना. लेकिन, कुछ ही दिनों में इस अत्यधिक आराम से परेशान हो गये बेचारें. पिछले कई दिनों से उकताया हुआ घूम रहा था. पहले काम का रोना रोता था, अब आराम का.

घर के काम में लीना की सहायता के लिये आरती आती थी. लेकिन लॉकडाउन में उसे भी छुट्टी मिल गयी थी. अमरीश को लीना की यह मुसीबत दिखती नहीं थी. वो लीना को भी कहाँ ठीक से देख पाया था. देखना क्या मात्र आँखों से होता है ! यदि हाँ तो, अमरीश लीना को नहीं,एक लोथ को रोज देखता था.

एक लोथ जिसकी आत्मा मर चुकी थी. एक लोथ जिसके चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचकर उसकी रक्षा की जा रही थी. एक लोथ जिसे निर्णय करना आता ही कहाँ था. उसके लिये प्रश्न करना निषेध था. कभी-कभी शारीरिक अत्याचारों से पीड़ित होकर वह लोथ अपने स्वामीसे एक क्षीण फ़रियाद करती. उसकी व्यथा को कोई उत्तर नहीं मिलता. लोथ एक शरीर कहाँ थी ! वह  दान में दे दी गयी एक वस्तु थी, जिसे अपने कष्टों के लिये मात्र आँसू गिराने का अधिकार था. अमरीश उस लोथ से अपनी भूख मिटाता था !

लीना पढ़ी-लिखी थी. वो अपने अधिकारों को भी जानती थी. उसने बीएड किया था. केन्द्रीय विधालय में उसका चयन भी हो गया. चार-पाँच महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में उसकी पोस्टिंग की खबर प्राप्त हुयी थी.

लेकिन अमरीश के अनुसार लीना शहर से बाहर जाकर काम करने लायक नहीं थी. दूसरी बात यह भी थी कि वो चली जाती तो घर का काम कौन करता ! सब कुछ सोच-समझकर, लीना की नौकरी करने की इच्छा का सम्मान करते हुये, अमरीश ने उसे फिरोजपुर में ही किसी प्राइवेट स्कूल को जॉइन करने की आज्ञा दे दी थी.

अपने अधिकारों को जानना और उनके लिये आवाज उठाना दो अलग विषय हैं. इस समाज के लिये लीना एक माँ थी, बेटी थी, बहू थी, पत्नी थी, स्त्री थी, कुटुंब की इज्जत थी; मात्र मनुष्य नहीं थी. लीना भी एक ऐसे भ्रमजाल में कैद थी, जहाँ उसने स्वयं को खो दिया था. डूबने से बचने के लिये हाथ तो मारना ही पड़ता है, पर लीना के दोनों हाथ पीछे बंधे हुये थें. एक प्रयास बंधन को खोल सकता था, लेकिन प्रयास करना वो भूल गयी थी.

पिछले एक घंटे से लीना खिड़की पर खड़ी थी. जब उन्होंने भोजन समाप्त किया तब दो बजने वाले थें. अमरीश सोने की बात कहकर बेडरूम में चला गया था. बेटा तो पहले ही सो गया था.  वो खड़ी रह गयी थी.

तभी दूर कुछ खड़का. एकाएक वह चौंकी, फिर वही खड़ी-खड़ी अपने-आप में ही एक लंबी-सी थकी हुयी साँस के साथ बोली-“तीन बज गये..” मानो एक लंबी यात्रा का समापन हुआ हो.

तभी रसोई में खुले हुये नल ने कहा-टिप-टिप-टप..

“पानी ..” इतना कहकर वो ऐसे उछली जैसे बिजली की नंगी तार को छू दिया हो. रसोई में बर्तनों की खनखनाहट के बीच वो बर्तन धोने लगी.

जब लीना बर्तन धो चुकी तो सोचा चलकर कुछ पढ़ लिया जाये. वो पिछले एक महीने से शिवानी का उपन्यास कृष्णकली पढ़ रही थी. नहीं-नहीं, पढ़ना कहना गलत होगा, पढ़ने का प्रयास कर रही थी. हाँ, तो आज पुनः पढ़ने का सोच ही रही थी कि ‘खट’ आवाज के साथ बेटे की एक तेज चीख कानों से आकर टकरायी. वो उस तरफ दौड़ी. आज फिर कृष्णकली प्रतीक्षा करती रह गयी. यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया.

अमरीश बेटे के पास ही सो रहा था. गुस्से और खीझ के मिले-जुले स्वर में चिल्लाया, “क्या हुआ !” जैसे समझ ही नहीं पा रहा कि क्या हुआ !

शिशु चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा था. लीना उसे हृदय से लगाकर चुप कराने का प्रयास करने लगी. करुणा-भरे स्वर में बोली-“चोट बहुत लग गयी बेचारे को ! आपने देखा ..” अपनी बात को स्वयं ही चबा गयी थी.

चटाक..

एक छोटे क्षण भर के लिये लीना स्तब्ध रह गयी, फिर एकाएक उसके मन ने, उसके समूचे अस्तित्व ने, स्वयं को दुत्कार दिया.

अमरीश बोलता जा रहा था-“इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है. तुमसे एक बच्चा नहीं संभाला जाता ! दिन भर घर में बैठ कर बस मोटी होती जा रही हो ! बाहर जाकर दो आदमी से बात करने लायक नहीं हो ! मैं भी सोचता हूँ, चलो मूर्ख है घर देख लेगी ! लेकिन नहीं ! एक फूहड़ गृहणी हो तुम ! आराम का जीवन मिला है ना, इसलिये मेहनत करना जानती ही नहीं हो !”

अमरीश का यह थप्पड़, पहला नहीं था. यह अमावस्या लीना के जीवन में आती रहती थी. किंतु जब से लॉकडाउन हुआ, अमावस्या स्थायी हो गयी थी.

कुछ ही देर में, पूर्ववत शांति हो गयी थी. अमरीश फिर लेटकर ऊँघ रहा था.

मृतवत जड़ता के साथ लीना अपने शिशु को लेकर चली गयी.

घर में काफ़ी देर मौन रहा. थोड़ी देर तक तो वह मौन भावनाशून्य ही रहा. लीना को ऐसा लगा जैसे ये नीरसता और निर्जीवता उसे घेर लेगी. इसमें एक प्रतीक्षा भी थी. उसका अपना मन स्वयं के उठने की प्रतीक्षा कर रहा था.

शिशु अब नीचे बैठकर खेल रहा था. तभी अमरीश उठकर आ गया. पहले उसने लीना की ओर देखा और फिर बाहर बालकोनी में जाकर खड़ा हो गया.

थोड़ी देर बाद जैसे उसे ध्यान आया कि वह चाहकर भी बाहर नहीं जा सकता. घर में पड़ी बीयर की बोतलें भी समाप्त हो गयी थी. सामने की बालकोनी में अनिल खड़ा सिगरेट पी रहा था. अमरीश पर नजर पड़ते ही, हाथ हिलाकर इशारा किया. अमरीश ने भी हाथ हिला दिया. सिगरेट की एक तलब उसके भीतर भी जग गयी थी. वो झुंझलाया सा लीना के सामने पड़ी हुयी कुर्सी पर आकर बैठ गया था.

“मन कड़वाहट से भर रहा है. आजकल दिन तो जैसे समाप्त ही नहीं होता. गली-गली, चौक-मुहल्ले सब जैसे मर गये हैं. अब और नहीं बैठा जाता घर में. मैं जेल में नहीं रह सकता. कोई सजायाफ़ता कैदी हूँ क्या ! कल अनिल का फोन आया था. जरूरी सामान लेने का बहाना करके बाहर घूमने जाया जा सकता है. अरे ! कुछ नहीं होता ! मैं बाहर से आता हूँ !” इतना कहकर वो उठ खड़ा हुआ.

लीना ने कुछ नहीं कहा, कुछ कहना भी नहीं चाहती थी. वैसे भी लीना के कहने का कोई लाभ नहीं था. अमरीश उसकी सुनता ही कहा था. थोड़ी ही देर बाद वो चला गया.

अमरीश के जाते ही कमरे में सूर्यास्त आ गया और लीना उस अरुणिमा में भींग गयी थी. वैसे भी ऐसे एकांत लीना को प्रिय थें. कुछ देर का यह काल्पनिक संसार, उसके मन को प्रसन्नता से भर दिया करती था.

दूध पीकर और थोड़ी देर खेलकर शिशु भी पुनः सो गया था. लीना ने उसे बिस्तर पर लिटाकर दोनों तरफ से तकिया लगा दिया और स्वयं बालकोनी में आकर खड़ी हो गयी.

वह निश्चल खड़ी, स्थिर दृष्टि से पश्चिमी आकाश को देखती रही. आस-पास कोई सुरम्य दृश्य नहीं था, लेकिन सब कुछ सुंदर लग रहा था. वो देखती रही, और देखती रही.

लीना को उस निर्जन वातावरण में भी एक संगीत सुनायी दे रहा था. तभी एक जानी-पहचानी कर्कश ध्वनि उसके कानों से टकरायी.

‘आए..आए..मार डाला’

लीना ने थोड़ा लटककर नीचे झाँका. चार-पाँच पुलिसवालों से घिरा अमरीश कराह रहा था. घमंडी अमरीश घर से बिना मास्क लगाये निकाल गया था. कुछ दूर पर ही पुलिसवालों के हत्थे चढ़ गया था. डंडे से उसकी पूजा हो चुकी थी. अब उठक-बैठक की तैयारी हो रही थी.

“भाई माफ कर दो ..” अमरीश गिड़गिड़ा रहा था.

एक पुलिसवाला बोला-“एक तो बिना मास्क लगाये निकाल आया ! जब मना किया तो गाली देता है ! झूठा ! समान लेने निकला था तो थैला कहाँ है !?”

“सर ! सर मैं सच कह रहा हूँ, मेरा घर सामने ही है !मैं रेलवे का कर्मचारी ही हूँ ! पहचान पत्र घर में रह गया है. वो..वो.. मेरे घर की बालकोनी है ! लीना .. लीना .. लीना..” अमरीश चिल्लाया था.

किसी शक्ति के वशीभूत लीना तुरंत नीचे बैठ गयी थी. जब अमरीश और पुलिसवालों ने ऊपर देखा, वहाँ कोई नहीं था.

“पागल औरत ! वैसे तो पूरे टाइम बालकोनी में टंगी रहती है, और आज पता नहीं कहाँ गायब है ! सर .. सर .. मैं ..हाय !” पैर पर डंडा पड़ते ही उसका गुस्सा कराह में बदल गया था.

उठक-बैठक आरंभ हो गयी थी. पुलिसवाले गिनती कर रहे थें. अपने-अपने घरों से पूरा मोहल्ला तमाशा देख रहा था. कुछ लोग शायद वीडियो भी बना रहे थें. चिल्लाने के स्थान पर अमरीश अब रो रहा था.

लीना कोई गीत गुनगुना रही थी. एक प्रतीक्षा समाप्त हो गयी थी. एक मुर्दा शरीर में कोई प्राण फूँक गया था. देखते ही देखते पूरा आसमान बादलों से ढँक गया. मौसम बदल रहा था. चुभती गर्मी को मात देने के लिये किसी आंधी की आवश्यकता नहीं होती, वर्षा की मंजुल फुहारें ही बहुत होती हैं.

एक चुप,अत्याचारी को ताकत और प्रताड़ित को भय देता है. एक साहसिक विरोध पहले विचारों में पनपता है, फिर क्रिया में उतरता है.

लीना वहाँ बैठी घंटों, मिनटों, परिस्थति के अत्यधिक विश्लेषण में बिता सकती थी, उन टुकड़ों को फिर से जोड़ने की कोशिश में और सोचने में कि शायद ऐसा हो सकता था, या वैसा हो सकता था. लेकिन उसने उन टुकड़ों को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

“सर ! ये मेरे पति श्री अमरीश सिंह हैं ! इनसे गलती ही गयी !”

लीना की शांत और दृढ़ आवाज सुनते ही पुलिसवालों ने अमरीश को रुकने का इशारा कर दिया.

उनमें से एक बोला-“मैडम ! आप जैसे पढ़े-लिखे लोग नहीं समझोगे तो जो बेचारे अनपढ़ है उनसे क्या उम्मीद करें ! घर में रहो, सुरक्षित रहो !”

लीना ने कहा-“जी ! आप सही कह रहे हैं !”

फिर दूसरा पुलिसवाला अमरीश की तरफ देख कर बोला-“भाग्यशाली हो कि घर है ! उनका सोचो जिनके घर ही नहीं हैं ! चलो जाओ ! मैडम आ गयीं, इसलिये छोड़ रहे हैं !”

अमरीश ने धीमे से सिर हिलाया और लीना का सहारा लेकर घर की तरफ चल पड़ा था. अपमान और पीड़ा से कराहता हुआ वो आगे बढ़ रहा था. लेकिन उसका दंभ अभी भी समाप्त नहीं हुआ था.

फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचते ही लीना की कलाई को मड़ोड़ कर बोला-“कहाँ मर गयी थी ! जितना दर्द मुझे हुआ है, उससे कहीं ज्यादा तुझे न दिया तो मेरा नाम अमरीश नहीं !

बिना एक पल गवायें, लीना ने अमरीश का हाथ छोड़ दिया. आकस्मिक हुये इस आघात के लिये अमरीश प्रस्तुत नहीं था. वो लड़खड़ा कर लीना के पैरों के पास गिर पड़ा था.

एक रहस्यमयी मुस्कान लीना के होंठों पर खेल गयी थी.

वो नीचे झुकी और अमरीश के कानों में बुदबुदाई-“चोट लगी ! दर्द हुआ ! मुझे भी दर्द होता है !”

अमरीश की आँखें फटी की फटी रह गयीं. लीना के चेहरे पर भय के स्थान पर आत्मविश्वास आ गया था, दबे हुये कंधें तन गये थें, सदा झुकी रहने वाली गर्दन आज स्वाधीनता के साथ खड़ी थी. वो समझ ही नहीं पाया कि इतने कम समय में यह परिवर्तन कैसे आ गया. वो कहाँ जानता था कि परिवर्तन के लिये समय नहीं, आंतरिक शक्ति का जागना आवश्यक होता है.

लीना ने उसे सहारा देकर पुनः खड़ा किया और लगभग धकेलते हुए अंदर ले गयी.

अमरीश को अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अपने पति के चेहरे पर आते भावों का आनंद उठाते हुये लीना बोली-“आज से लेकर लॉकडाउन के समाप्त होने तक घर की यह चौखट, तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है. बाहर निकलने की सोचना भी मत!”

“तू भूल गयी है, मैं कौन हूँ ! तेरी लक्ष्मण रेखा तो मैं बनाऊँगा !” अमरीश ने भय का जाल फिर फेंका.

इस बार लीना डरी नहीं बल्कि मुस्कुराई.

वो बोली-“मैं तो जानती ही हूँ कि तुम कौन हो ! लेकिन मैं अब यह भी जान गयी हूँ कि मैं कौन हूँ ! तुमने शायद ध्यान नहीं दिया, तुम्हारी बनायी डर की लक्ष्मण रेखा मैंने कब की पार कर ली ! अब मुझपर भूलकर भी हाथ मत उठाना क्योंकि मेरे हाथ भी खुल गये हैं. और हाँ, लॉकडाउन के कारण नीचे गली में पुलिसवालों का आना-जाना भी लगा रहेगा”

इतना कहकर लीना आगे बढ़ी ही थी कि सहसा उसे कुछ याद आ गया.

अमरीश की आँखों में आँखें डालकर बोली- “मैंने अपनी नौकरी जॉइन करने का निर्णय ले लिया है !”

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...