उत्तर प्रदेश के अगले चुनावों में मजेदार लड़ाई होगी, क्योंकि लगभग चारों पार्टियों लंगड़ाती सी चुनाव में उतर रही हैं. 2014 में लोकसभा में 543 सीटों में से 282 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी की शान अब वह रह नहीं गई है, जो मई, 2014 में थी. इस से पहले 2012 के विधानसभा चुनावों में जीती समाजवादी पार्टी घरेलू झगड़ों में फंस गई है. कांग्रेस को तो सत्ता का स्वाद चखे अरसा हो गया है और सोनिया गांधी व राहुल गांधी पिछले चुनावों में लोकसभा में जीत गए तो वही काफी था. बहुजन समाज पार्टी में सेंध लगी है, पर इतनी ज्यादा नहीं. मायावती का पलड़ा भारी दिख रहा है. पर मायावती अगर जीत गईं तो क्या करेंगी, इस का कुछ पता नहीं. वे चुनावी सभाएं कर रही हैं, पर कहती कम ही हैं. कांग्रेस के राहुल गांधी एक लंबी बस, पैदल, कार यात्रा पर निकले हैं और खाट सभाएं कर रहे हैं यह दिखाने के लिए कि कांग्रेस किसानों से जुड़ी है. पर कांग्रेस की खाटों की रस्सियां तो कब की टूट चुकी हैं और उस से कोई खास उम्मीद नहीं है.

पैतरेबाजी इस तरह की हो गई है कि अब बिहार की तरह का समझौता नहीं हो सकता, जिस में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार व कांग्रेस ने मिल कर भारतीय जनता पार्टी को भारी शिकस्त दे दी थी. भारतीय जनता पार्टी का भी किसी से समझौता नहीं हो पा रहा है. समाजवादी पार्टी से कोई फैसला तो तब करे, जब तय हो कि वहां चलती मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की है, उन के पिता मुलायम सिंह यादव की या चाचा शिवपाल यादव की. उत्तर प्रदेश को चुनावों से कभी कुछ खास मिला हो, ऐसा नजर नहीं आया. राज्य वैसा का वैसा उलटा प्रदेश ही रहा है. आम जनता जो भी करती है, सरकार के सहारे नहीं सरकार के बावजूद करती है. जनता को इन चारों पार्टियों से कोई उम्मीद नहीं है, न लगानी चाहिए.

असल में 2014 के कड़वे अनुभव के बाद अब यह तय हो गया है कि पार्टियां चाहे कुछ भी कहती रहें, शरीफ हों या बेईमान, आधुनिक हों या पौराणिकवादी, असल में उन का जनता पर कोई असर नहीं पड़ता. सरकार जनता के लिए जरूरी है, पर पार्टियां बेमतलब सी हो गई हैं और चूंकि संविधान में उन की बड़ी जगह है, इसलिए चुनाव होंगे, मुख्यमंत्री बनेंगे, मंत्री होंगे, विधानसभा होगी, पर भइया सरकार तो यों ही चलेगी. चारों में से कोई आए या चुनावों के बाद कैसा भी गठबंधन बने, फर्क कुछ नहीं पड़ेगा. भारतीय जनता पार्टी अब शायद किसी से कोई समझौता न कर पाए, पर कांग्रेस मायावती व समाजवादी पार्टी किसी से भी चुनाव बाद आपस में समझौता कर सकती हैं. इन चुनावों में इस बार मुद्दा दलित और मुसलिम हैं जो थोड़ा अफसोस का मामला है. सरकारी नीतियों की तो बात तक नहीं हो रही है. सहीगलत का सवाल नहीं उठ पा रहा है. दलितों और मुसलिमों का इशू तो हम पहले कहीं पीछे छोड़ चुके थे, पर भारतीय जनता पार्टी ने फिर से इसे अगली लाइन में खड़ा कर दिया और जो भी जीतेगा, उसे इसी मसले को सब से आगे रखना पड़ेगा.

सरकारी नीतियों में बदलाव, जनता को सही राह दिखाना, प्रदेशभर में फैली गंदगी, बेकारी, गरीबी, बरबादी, दकियानूसीपन, निकम्मापन तो नेताओं के लिए अब कोई चुनावी मु्द्दा ही नहीं रह गए हैं. चुनाव पहले के हिंदू राजाओं की तरह बेमतलब की लड़ाइयां बन कर रह गए हैं, जिस में कोई भी जीते हारती जनता ही है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...