इंसान किस क्षेत्र में अपना कैरियर बनाएगा, इस में उस इंसान की परवरिश की अहम भूमिका होती है. राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘मिर्जिया’ में मुख्य भूमिका निभाने वाले अभिनेता हर्षवर्धन कपूर इस बात पर यकीन करते हैं. हर्षवर्धन कपूर ने फिल्मी माहौल में ही आंखें खोलीं और फिल्में देखते, फिल्मों के बारे में चर्चाएं सुनते हुए ही बड़े हुए हैं. फिलहाल उन की पहचान अनिल कपूर के बेटे, अभिनेता संजय कपूर के भतीजे, अभिनेत्री सोनम कपूर के भाई, अभिनेता अर्जुन कपूर के कजिन, फिल्म निर्माता रिया कपूर के भाई के रूप में है. मगर उन्होंने अभिनय कैरियर की शुरुआत अपने घर की कंपनी से करने के बजाय बाहर की प्रोडक्शन कंपनी से की. उन की पहली फिल्म ‘मिर्जिया’ है. जबकि वे दूसरी फिल्म ‘भावेश जोशी’ भी घर से बाहर यानी, विक्रमादित्य मोटावणे व अनुराग कश्यप के साथ कर रहे हैं.

हर्षवर्धन कपूर से अनिल कपूर के औफिस में मुलाकात हुई. जब उन से अभिनय के मैदान पर उतरने का सबब पूछा तो उन्होंने बताया, ‘‘हम जिस माहौल में बड़े होते हैं, वह जिंदगी का हिस्सा बनता ही है. जब हम बचपन से फिल्मी माहौल में पलतेबढ़ते हैं, तो सिनेमा हमारी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है. मुझ पर सिनेमा का जो प्रभाव पड़ा है, उस के चलते जिस तरह की फिल्म मुझे पसंद आ सकती है, वह आप को नहीं आ सकती. वास्तव में यह सोच का मसला है, जो कि आप की परवरिश व आप के अनुभवों के आधार पर विकसित होती है. मुझे बहुत कम उम्र में पता चल गया था कि मुझे फिल्मों में अभिनय करना है और किस तरह की फिल्में करनी हैं.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मेरे दिमाग में यह बात शुरू से थी कि मुझे फिल्मों में कुछ करना है. शायद मैं लेखक या निर्देशक बन जाऊं या फिर अभिनय कर लूं क्योंकि मुझे लिखने का भी शौक रहा है. फिर जब कालेज जाने की उम्र आई तो मैं ने तय कर लिया था कि पहले मुझे अभिनेता बनना है.  अभिनेता बनने के बाद मैं कभी फिल्म की पटकथा लिखने के अलावा निर्देशन भी करना चाहूंगा. अमेरिका जा कर 4 वर्ष तक फिल्म पटकथा लेखन की ट्रेनिंग भी हासिल की है. उस के बाद 1 साल की ट्रेनिंग अभिनय की भी ली.

4 साल के लेखन के प्रशिक्षण के दौरान आप कहानियां कहां से प्रेरित हो कर लिख या चुन रहे थे? इस सवाल का जवाब हर्षवर्धन यों देते हैं, ‘‘जब हम अपनी जिंदगी के अनुभवों को ले कर दिमाग से सोचना शुरू करते हैं, तो वहीं से कहानी मिलती है. जो मैं ने लिखा, उस का संबंध सीधे मेरी जिंदगी से नहीं था. सबकुछ मेरी कल्पना का हिस्सा रहा. जब कोई किरदार मुझे पसंद आया, या मैं ने सोचा कि मैं खुद को इस किरदार के रूप में परदे पर देखना चाहूंगा, तो मैं ने उस के इर्दगिर्द एक कल्पना गढ़ी और उसे कहानी का रूप दिया. हर रचनात्मकता का अलग अनुभव होता है. मसलन, मेरी फिल्म ‘मिर्जिया’ की कहानी पहले से ही मौजूद है, तो उस कहानी को परदे पर कैसे पेश किया जाए, यह राकेश ओमप्रकाश मेहरा की अपनी कल्पना है.’’

पटकथा लेखन के प्रशिक्षण के बाद एक कलाकार के तौर पर पटकथा को समझना और उस के किसी किरदार को अभिनय से संवारने में कितनी मदद मिलती है? इस पर वे बताते हैं, ‘‘बहुत ज्यादा मदद मिलती है. मेरे लिए फन अनुभव यह होता है कि मैं लेखक के विजन के अनुरूप भी सोच पाता हूं जैसे कि जब मेरे पास ‘भावेश जोशी’ और ‘मिर्जिया’ की पटकथाएं आईं. गुलजार साहब के साथ बैठने का अवसर नहीं मिला, मगर हम ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ बैठ कर काफी विचारविमर्श किया. पटकथा लेखन की समझ के चलते हमें लेखक का विजन और निर्देशक क्या कहना चाहता है, इस की समझ बड़ी आसानी से हो जाती है और कलाकार के तौर पर काम करना आसान हो जाता है. मगर जब आप गुलजार या राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ काम करते हैं, तो आप को ज्यादा सोचना या बोलना नहीं पड़ता. पर मैं अपना दिमाग चलाना बंद कभी नहीं कर सकता. मैं हमेशा सोचता रहता हूं.’’

‘मिर्जिया’ को विस्तार से समझाते हुए वे कहते हैं, ‘‘हमारी फिल्म में ‘मिर्जिया’ की कहानी 2 तरह से चलती है. एक कहानी तो उस जमाने की है जब यह घटित हुई थी. यह सोलमेट प्रेम कहानी है. यह कहानी फैंटसी और सपने की तरह है. और दूसरी कहानी वर्तमान में राजस्थान में चलती है. वह कहानी है आदिल और सुचिता की. मिर्जा साहिबा की जो प्रेम कहानी थी, वह अमरप्रेम की कहानी थी. उस प्रेम को कोई करता नहीं. जो कहानी आदिल और शुचि के साथ रिलेट कर रहे हैं, उसे हम ने इस तरह पेश किया है कि मिर्जा साहिबा की वे भावनाएं व कंफलिक्ट आज होते तो ऐसे ही होते.’’

कब लगा कि फिल्म ‘मिर्जिया’ के किरदार को निभा सकते हैं, इस पर उन का जवाब था, ‘‘जब अमेरिका से प्रशिक्षित हो कर लौटा और मैं ने फिल्म ‘मिर्जिया’ की पटकथा पढ़ी, तो मुझे अंदर से एहसास हुआ कि मैं भी इस फिल्म के किरदार आदिल जैसा ही हूं. मिर्जा साहिबा एक ऐसी कहानी है, जिस में मैं एकदम फिट होता हूं. जब मैं ने पढ़ा कि एक लड़का है, जो घोड़े दौड़ाता है, तीर चलाता है, एक लड़की से प्यार करता है. वह लड़की एक दिन उस के तीर तोड़ देती है. तो वह मेरे दिमाग में बैठ गया. कभी आप कोई कहानी पढ़ते हो और वह कहानी आप के दिमाग में बैठ जाती है और आप सोचते हो कि मुझे भी ऐसा ही दिखना है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हो गया था.’’

‘मिर्जिया’ में अभिनय करने से पहले की तैयारियों को ले कर वे कहते हैं, ‘‘इस फिल्म के लिए मुझे 18 माह की बहुत कठिन ट्रेनिंग के दौर से गुजरना पड़ा. मिर्जा का किरदार घुड़सवारी व तीरंदाजी करता है, इसलिए हम ने घुड़सवारी व तीरंदाजी सीखी. पोलो सीखा. ट्रेनिंग पूरी होने के बाद जब मैं मुंबई के महालक्ष्मी के रेसकोर्स में घुड़सवारी की प्रैक्टिस कर रहा था, तो एक दिन वहां राकेश ओमप्रकाश मेहरा और एलान अमान पहुंच गए. मैं ने सोचा कि मैं घुड़सवारी में बहुत अभ्यस्त हो गया हूं, पर उन्होंने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं है. मेरे हिसाब से भारत में जो भी औप्शन थे, वे सब मैं ने सीख लिए थे. लेकिन जिस तरह से हमारे शहर बन रहे हैं, वहां कुछ करने के लिए बचा ही नहीं है. तो 6 सप्ताह के लिए मुझे अमेरिका भेजा गया. वहां पर एक ट्रेनर जेरी हैं, उन के साथ मैं रहा. उन के अपने 15 घोड़े हैं, अपनी जमीन है. अपना खुद का अस्तबल है. मैं उन का मेहमान था. हर सुबह अस्तबल की सफाई करनी पड़ती थी. घोड़ों को नहलाना पड़ता था. उस के बाद हम नाश्ता करते थे. फिर हम घुड़सवारी की ट्रेनिंग व प्रैक्टिस करते थे. राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अमेरिका जाते समय मुझे एक सूची पकड़ाई थी कि हर दिन ये 15 चीजें करनी हैं. मैं ने वे सब कीं. बहुत कठिन समय रहा. हम मोबाइल फोन नहीं रख सकते थे. वहीं खाना बनाता था. मैं बहुत अकेला रहता था तो मुझे अकेलेपन को भी झेलना था क्योंकि आदिल भी बहुत अकेला रहता है. मेरा बहुत भावनात्मक स्तर पर उपयोग किया गया.’’

क्या मैथड ऐक्ंिटग हर किरदार के साथ संभव है? इस पर उन का कहना था, ‘‘अब तक जो 2 फिल्में मैं ने की हैं, उन में तो संभव रहा. ‘मिर्जिया’ में तो बहुत स्ट्रीम पोजीशन हो गई थी. मैं एक माह पहले ही लद्दाख गया था. जब आप कोई काम लंबे समय तक कर रहे होते हैं, तो आप को अपने अंदर एक विश्वास आ जाता है.’’ सयामी खेर के साथ काम करने के अनुभव को ले कर वे बताते हैं, ‘‘उस के साथ काम करना बहुत अच्छा रहा. वह शहर की लड़की नहीं है, वह नासिक से है, तो इस का असर पड़ता है. मेरी व उस की परवरिश में बहुत बड़ा अंतर है. हम शहरी युवक बंदिश वाली जिंदगी जीते हैं. हमारे पास आउटडोर गतिविधियों के लिए कोई जगह या साधन नहीं है. जबकि नासिक में यह सब बहुत उपलब्ध है. काश, मुझे भी सयामी जैसे अवसर मिलते. परवरिश के अंतर की वजह से अभिनय में क्या अंतर आया? इस पर हर्षवर्धन कहते हैं, ‘‘हम दोनों मेहनत करते हैं, पर हम दोनों के मेहनत करने का तरीका अलग है. मुझे दृश्य के साथ बैठना पड़ता है. मेरी तरह वह मैथड अभिनय को नहीं अपनाती. वह जो एहसास करती है, उसे ही परफौर्म करती है. वह बहुत ही ज्यादा स्पौंटेनियस कलाकार है जबकि मैं हर सीन पर बहुत सोचता हूं.’’

आप जिन रिश्तों की बात कर रहे हैं. कौर्पोरेट कंपनियों के आने के बाद वे रिश्ते खत्म हो गए? इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है. यह भारत है. हमारी भावनाएं नहीं खत्म होतीं. पर जब हम स्वतंत्र फिल्म निर्माता के साथ काम करते हैं, तो एक अलग अनुभव होता है. मसलन, हम ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ काम किया. तो हमें जब कुछ खाने की इच्छा होती, तो हम उन से कह देते. इस से हम सहज होते हैं, जिस का असर हमारी परफौर्मेंस पर होता है. पर कौर्पोरेट का माहौल सही नहीं लगता है. कौर्पोरेट का माहौल कहीं न कहीं रचनात्मकता पर प्रभाव डालता है.’

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