फिल्म ‘मार्गरीटा विद ए स्ट्रो’ में पाकिस्तानी-बंगलादेशी लड़की की भूमिका निभा कर डैब्यू करने वाली अभिनेत्री सयानी गुप्ता कोलकाता की हैं. उन्हें बचपन से ही अभिनय की इच्छा थी जिस में साथ दिया उन के मातापिता ने. सयानी फिल्म में अपने चरित्र पर अधिक फोकस्ड रहती हैं और किसी भी चरित्र के लिए सौ प्रतिशत मेहनत करती हैं. फिल्म की सफलता से अधिक वे इस के प्रोसैस को एंजौय करती हैं. वे फिल्म इंडस्ट्री में आए परिवर्तन को अच्छा दौर बताती हैं जहां हर कलाकार को आज काम करने का मौका मिल रहा है. वैब सीरीज ‘इनसाइड एज 2’ में वे अपनी भूमिका को ले कर बहुत खुश हैं.

इस के अलावा उन की जर्नी के बारे में रोचक बातचीत हुई जिस में उन्होंने आज के समाज और इंडस्ट्री की सोच के बारे में चर्चा की. आइए, जानते हैं इस बारे में क्या कहती हैं सयानी.

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इंडस्ट्री में आना आप के लिए इत्तफाक था या बचपन से सोचा था ?

मैं बचपन से अभिनेत्री बनना चाहती थी. 4 साल की उम्र से मैं ने इस क्षेत्र में आने की सोची थी. पर मेरा पूरा परिवार शिक्षा के क्षेत्र से है. मैं मिडिल क्लास बंगाली परिवार से हूं. ऐक्टिंग करना ही मेरे लिए बड़ी बात थी. मुंबई आ कर फिल्मों में काम करने की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता था, पर मेरे पिता म्यूजीशियन और आर्ट लवर रहे. थिएटर में भी उन्होंने काम किया था. जब मैं एक साल 8 महीने की थी, तब मेरी मां ने मु झे डांस स्कूल में डाल दिया था. मु झे डांस में तब डाला गया जब मु झे कुछ अधिक सम झ में नहीं आता था. थिएटर में मैं ने पहली प्रस्तुति तब दी जब मैं केवल 3 साल की थी और मु झे अभिनय के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. फिर मैं अभिनय और फिल्म मेकिंग सीखने के लिए फिल्म इंस्टिट्यूट गई. बाद में मुझे इस से काफी हैल्प मिली और अभिनय करने में भी सुविधा हुई. यहां काम करने के बाद मैं ने बहुतकुछ सीखा है. असल में अभिनय एक ग्रेजुअल प्रोसैस है जो समय के साथसाथ आता है.

सर्टिफिकेशन न होने की वजह से वैब सीरीज में इंटिमेट सींस और हिंसा भरपूर परोसे जाते हैं. इस बारे में आप क्या सोचती हैं ?

यह व्यक्ति की पसंद पर निर्भर करता है कि वह क्या देखे और क्या न देखे. कलाकार निर्देशक और लेखक के आधार पर अभिनय करता है. कहानी के ग्राफ और चरित्र को अगर सटीक न दिखाया जाए तो वैब सीरीज अच्छी नहीं लगती. केवल व्यवसाय के लिए सैक्स, हिंसा आदि को दिखाया जाना सही नहीं होता. जो जरूरी है वह निर्देशक दिखाता है. सैंसरबोर्ड पास नहीं करेगा, यह सोच कर उस के एसेन्स को अगर खत्म कर दिया जाए, तो ये सही नहीं. कहानी के अनुसार कुछ भी दिखाने पर दर्शक भी उसे सही मानते हैं. जब व्यक्ति कहानी में घुसता है, तो जो भी चीज प्रामाणिकता के अनुसार होती है उसे देखना वह पसंद करता है.

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सैंसरशिप के बारे में आप क्या कहना चाहती हैं ?

किसी भी आर्ट में सैंसरशिप एक समस्या है. क्रिएटिव लोगों को पूरी आजादी अपनी कहानी कहने के लिए होनी चाहिए. दर्शक ही बता सकते हैं कि क्या सही, क्या गलत है. किसी भी आर्ट फौर्म के लिए सैंसर समस्या है. अगर आप बड़ों के साथ किसी फिल्म या वैब सीरीज को देख नहीं सकते तो कोई आप को इसे देखने के लिए फोर्स नहीं करेगा. आप की पूरी आजादी आप को मिली है.

आगे क्या कर रही हैं ?

अभी छत्तीसगढ़ में मैं ने एक मर्डर मिस्ट्री पर कौमेडी फिल्म की शूटिंग पूरी की है और आगे कई फिल्में और वैब सीरीज कर रही हूं. एक बांग्ला फिल्म की बात भी चल रही है.

आप एक डांसर हैं लेकिन उस चरित्र में आप को देखने को कम मिला. क्या इस का मलाल है ?

यह सही है कि मुझे हमेशा इंटैंस भूमिकाएं मिलती हैं और मैं चाहती हूं कि वैसी फिल्में मु झे मिलें जिन में मैं डांस कर सकूं.

किसी फिल्म का सफल होना आप के लिए कितना माने रखता है ?

किसी फिल्म को साइन करते वक्त आप उस की सफलता पर ध्यान नहीं देते, क्योंकि आप को उस की कहानी और आप का चरित्र पसंद आता है. उस प्रोसैस में पूरी टीम काम करती है. हम केवल उस कहानी का एक पार्ट बनना चाहते हैं. इस वैब सीरीज में भी मेरी भूमिका क्रिकेट की पूरी जानकारी रखने वाले की थी, जो मेरे पास नहीं थी. मैं ने मेहनत कर उसे रियल बनाने की कोशिश की. इस में लेखक और निर्देशक का काफी हाथ रहा है, जिन्होंने मु झे इस भूमिका के लायक बनाया. इस के अलावा इंडियन क्रिकेट टीम में महिलाएं बहुत कम हैं, ऐसे में मु झे कुछ पता करना भी मुश्किल था.

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महिला और पुरुष में अंतर आज भी है. इसे कैसे कम किया जा सकता है? इस की शुरुआत कहां से होनी चाहिए ?

सब से पहले महिला और पुरुष को एक ह्यूमन की तरह ट्रीट करना पड़ेगा. समाज और फिल्ममेकर्स को भी ऐसी ही सोच रखनी होगी. जब काम पर कोई आता है तो महिला हो या पुरुष, उस के टैलेंट के अनुसार उस से व्यवहार करने की जरूरत है. फिल्म लेखक का यह दायित्व है कि वह हर किरदार को एक नजर से देखे. यह सही है कि आज भी यह अंतर है, इस के लिए समाज की सोच को बदलने की जरूरत है. सोच में बदलाव प्रोसैस में है, फिल्ममेकर्स, लेखक और निर्देशक कोशिश कर रहे हैं. इस के बारे में अधिक बात होने की जरूरत है. पहले आइटम सौंग करने वाले को अलग नजरिए से देखा जाता था, जो अब नहीं है और निश्चित ही यह एक सकारात्मक सोच है.

सिनेमा हमारे समाज का एक भाग है और उस का प्रभाव होता है, लेकिन घर पर बेटी और बेटों में अंतर को खत्म करना होगा. इस से सोच में बहुत बदलाव आएगा.

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आप अपनी जर्नी से कितनी संतुष्ट हैं ?

मु झे अभिनय करना बहुत पसंद है और मैं हर चरित्र को करना चाहती हूं पर समय नहीं मिल पाता. पिछले 2 सालों से मैं अपने परिवार और दोस्तों के साथ सही तरह से नहीं मिली और इस से मेरे स्वास्थ्य पर भी असर हुआ है. मैं इस बात से खुश हूं कि आज हर ऐक्ट्रैस को काम मिल रहा है, हर महिला ऐसे ही आगे बढ़े, इस में मुझे बहुत अधिक खुशी मिलती है.

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