सीएए और एनआरसी के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं अपने बच्चों के साथ बैठी हैं. पर अफसोस कि अभी तक इस आंदोलन का परिणाम नहीं दिख रहा है क्योंकि सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है.
सीएए व एनआरसी के विरोध में 15 दिसंबर, 2019 से शुरू हुआ दिल्ली के शाहीन बाग इलाके का आंदोलन 13 जनवरी, 2020 को लोहड़ी वाले दिन अलग ही रंग में नजर आया. वहां एक सिख परिवार आया और आंदोलनकारियों के साथ परिवार के सदस्यों ने लोहड़ी मनाई. खूब ढोल बजा. सब ने मिल कर लोहड़ी उत्सव का आनंद लिया. वहीं 12 जनवरी को शाहीन बाग में सर्वधर्म की बात की गई. सिख, ईसाई, मुसलमान सभी एक ही रंग में दिखाई दिए. देखते ही देखते आंदोलन का यह मंच एकता का मंच बन गया. इस आंदोलन ने सभी धर्मों को एक मंच पर आने का अच्छा मौका दे दिया. यह दृश्य भारत की गंगाजमुनी तहजीब की तसवीर बयां करने वाला था.
शाहीन बाग का यह आंदोलन यों तो सीएए और एनआरसी के विरोध में है लेकिन यह आंदोलन बाकी के आंदोलनों से काफी अलग भी है. आमतौर पर जंतरमंतर ही धरनाप्रदर्शन का एरिया माना जाता रहा है लेकिन 15 दिसंबर को जब जामिया विश्वविद्यालय में पहले छात्र आंदोलन उग्र हुआ, उसी के साथसाथ स्थानीय लोगों ने एनआरसी और सीएए के विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया. शुरू में किसी को अंदाजा नहीं था कि यह आंदोलन इस तरह व्यापक रूप ले लेगा.
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कई लोगों का मानना है कि इस के पीछे राजनीतिक दल भी हैं. वहीं, कुछ लोग जो दिल्ली के अलगअलग एरिया में रहते हैं और अकसर यहां आ रहे हैं, मानते हैं कि यह आंदोलन पूरी तरह से यहां के स्थानीय लोगों द्वारा चलाया जा रहा है. इस में जामिया के कुछ छात्र भी हिस्सा ले रहे हैं. वे अकसर यहां आ कर बैठते हैं, लेकिन छात्रों का अपना आंदोलन जामिया में ही विश्वविद्यालय के मुख्य गेट पर चल रहा है.
शाहीन बाग का आंदोलन पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की भागीदारी से चल रहा है. स्थानीय महिलाएं दिनरात अपने बच्चों के साथ यहां बैठी रहती हैं. अगर कहा जाए कि इस आंदोलन की रीढ़ यहां की महिलाएं ही हैं, तो गलत नहीं होगा. और इस अर्थ में यह आंदोलन और महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह टिका ही महिलाओं की मौजूदगी की वजह से है.
हाल ही के कुछ सालों में शायद यह पहला आंदोलन है जहां मुसलिम महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. दिन में पुरुषों की संख्या कम होती है क्योंकि ज्यादातर को औफिस व अपने कामधंधे पर जाना होता है लेकिन शाम के वक्त यहां भारी संख्या में लोग जमा हो जाते हैं.
शाहीन बाग सीएए और एनआरसी विरोध का एक केंद्र बन चुका है. इसलिए यहां दिल्ली की बाकी जगहों से भी लोगों ने आना शुरू किया. शाम को कई लोग औफिस से सीधा यहां आ जाते हैं और 2-3 घंटे आंदोलन में शामिल हो कर वापस अपने घर चले जाते हैं. तो कुछ खाना खाने के बाद देररात तक यहां रहते हैं. लेकिन यहां के लोकल लोग दिनरात बैठे रहते हैं.
शाहीन बाग में एक मंच बना है और वहां ओपन माइक है. जिसे अपने विचार रखने हैं, वह अपना नाम व विषय बता देता है और फिर अपना नंबर आने पर अपनी बात रखता है. अब तक कई लोग इस मंच से अपने विचार रख चुके हैं. मजे की बात यह है कि आमतौर पर घरों में रहने वाली महिलाएं भी बड़ी संख्या में मंच से अपनी बात रख रही हैं.
लंबे समय तक इस आंदोलन को राजनीति व नेताओं से दूर रखा गया. हालांकि, कांग्रेस के अल्का लांबा, शशि थरूर, सुभाष चोपड़ा और मणिशंकर अय्यर जैसे नेता शाहीन बाग आ कर आंदोलन को अपना समर्थन दे चुके हैं. कुछ आंदोलनकारी नहीं चाहते कि इस आंदोलन को कोई राजनीतिक रंग दिया जाए. कुछ को यह शंका भी है कि नेताओं के ज्यादा जुड़ने से व मंच साझा करने से कहीं इस जनआंदोलन को नेता हाईजैक कर फायदा न उठा लें. वे इसे जनता का आंदोलन ही रहने देना चाहते हैं. यही वजह है कि इस आंदोलन को चलाने के लिए किसी तरह की आर्थिक मदद भी नहीं ली जा रही है. यहां जो भी जैसी भी व्यवस्था है वह जनता द्वारा आपसी सहयोग से की जा रही है. चाहे वह शामियाना लगाना हो या आंदोलनकारियों के लिए चाय व खाने की व्यवस्था हो.
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मिन्हाज पुराने जामिया स्टूडैंट हैं. वे औफिस के बाद 2-3 घंटे के लिए रोज शाहीन बाग आते हैं. मिन्हाज बताते हैं, ‘‘मैं देखता हूं कि कोई दूध की थैलियां लिए चला आ रहा है कि यहां इतने लोग हैं उन के लिए चाय बनाने के काम आएंगी तो कोई चीनी ला रहा है. औरतें अपने घरों से खाना बना कर ला रही हैं. कई बार तो ऐसी स्थिति हो जाती है कि इतना खाना जमा हो जाता है जितने वहां लोग नहीं होते.’’
मिन्हाज की इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आंदोलन आपसी सहयोग से चल रहा है और इस सहयोग की भावना ने लोगों को एकसूत्र में पिरोने का काम किया है.
दुकानदारों का नुकसान
जिस जगह आंदोलन चल रहा है उस के आसपास कई दुकानें व बड़े शोरूम्स हैं. सब से ज्यादा कपड़ों के शोरूम्स हैं. आंदोलन की वजह से वहां की दुकानें बंद हैं. रास्ता ब्लौक है. इस वजह से इन दुकानदारों को बहुत नुकसान हो रहा है. दुकानों में रखे सर्दी के गरम कपड़े बिक नहीं रहे हैं. वहीं, दिलचस्प यह है कि स्थानीय लोग बताते हैं कि इन दुकानदारों ने उन से अपने नुकसान की बात नहीं की. न ही नाराजगी जताई. उलटा, इतना नुकसान सहने के बावजूद वे लोग उन के साथ हैं.
यहां बनाए गए स्टेज को 7-8 स्थानीय लड़कों की और्गेनाइजिंग कमेटी देख रही है. जामिया की फाइन आर्ट फैकल्टी के कुछ बच्चे यहां आते हैं और आंदोलन की थीम पर अपनी पेंटिंग्स बनाते रहते हैं. शाहीन बाग के आंदोलन के लिए कई लोगों ने पैसों की पेशकश भी की, लेकिन मिन्हाज बताते हैं कि आंदोलनकारियों ने किसी से भी पैसे लेने से मना कर दिया. इस बात को बाकायदा अनांउस किया गया, पोस्टर लगाया गया कि हमें पैसे नहीं चाहिए. आंदोलन के लिए पैसे की जरूरत नहीं, आपसी सहयोग की जरूरत है.
लोग वहां स्वेच्छा से सहयोग कर रहे हैं. टैंट वाला टैंट लगा कर चला गया और बोला, यह आप का टैंट है जब तक चाहिए लगा रहने दें. माइक वाला माइक पकड़ा कर चला गया. चाय व खाना लोग अपनी तरफ से बांट रहे हैं.
आंदोलन के एक महीना गुजर जाने के बाद भी लगातार चलते रहने की वजह यह आपसी सहयोग ही है. आंदोलन एरिया में महिलाएं व बच्चे ही अधिक हैं, इसलिए कुछ लड़के हमेशा यहां निगरानी करते रहते हैं कि कहीं कोई असामाजिक तत्त्व आंदोलन एरिया के भीतर न घुस आए. इस आंदोलन को दिनरात 80 फीसदी के लगभग महिलाएं ही चला रही हैं. पुरुषों की संख्या शुक्रवार, शनिवार और सब से ज्यादा रविवार को होती है.
मिन्हाज बताते हैं, ‘‘महिलाओं की इस भारी संख्या को देख कर कुछ मौलानाओं को तकलीफ भी है कि आप की औरतें घर के बाहर बैठी हुई हैं, आप को शर्म नहीं है? एक व्यक्ति ने जब मुझे यह बात बताई तो मैं ने जवाब दिया कि हां, यह सच में शर्म की बात है, जब कौम के लीडर, जिन्हें खड़ा होना चाहिए, वे खड़े नहीं हैं, तो अवाम ही खड़ी होगी. महिलाएं और बच्चे भी खड़े हो जाएंगे.’’
महिलाओं का ऐसा ही एक और आंदोलन जाकिर नगर में भी चल रहा है. जाकिर नगर की महिलाएं रात को रसोई के काम खत्म कर के 10:30 बजे से एकदो घंटे के लिए मोमबत्ती व स्लोगन लिखे कागज ले कर जाकिर नगर में सड़क के दोनों तरफ खड़ी हो जाती हैं. इस दौरान कोई नारेबाजी नहीं होती. ये महिलाएं सिर्फ मौन विरोधप्रदर्शन करती हैं एनआरसी और सीएए के खिलाफ.
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नागरिकता देने वाला कानून
सीएए को ले कर सरकार का कहना है कि यह नागरिकता देने वाला कानून है, नागरिकता छीनने वाला नहीं. फिर भी लोग सड़कों पर क्यों हैं? इस पर वहां के एक स्थानीय बुर्जुग कहते हैं कि दरअसल, जब आप का किसी पर से विश्वास उठ जाता है तब इंसान उस की किसी भी बात पर भरोसा नहीं कर पाता. जो लोग सड़कों पर हैं उन का सरकार पर भरोसा नहीं है, इसलिए वे उस की कही बातों पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. लोग एनआरसी और सीएए को जोड़ कर देख रहे हैं.
दूसरी बात, अलगअलग बातें निकल कर आ रही हैं डौक्यूमैंट्स को ले कर. इस ने लोगों के मन में डर पैदा किया. एक बड़ा डर का कारण असम में हुई एनआरसी लिस्ट भी है जिस में कई लोगों के नाम नहीं आए. इस बात ने लोगों के मन में डर को बढ़ा दिया. लोगों के मन में यह बात बैठ गई है कि अगर असम की तर्ज पर ही पूरे देश में एनआरसी लागू हुआ तो बहुत सारे लोगों को डिटैंशन सैंटर में भेज दिया जाएगा. रहीसही कसर फेक मैसेजेस और फेक वीडियोज के प्रचारप्रसार ने पूरी कर दी.
शाहीन बाग में रोज 3-4 हजार लोग आतेजाते रहते हैं. लेकिन शुक्रवार, शनिवार और रविवार को यह संख्या बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. कुछ लोग सच में आंदोलन में शामिल होते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो केवल देखने के लिए आ जाते हैं कि अरे, खबरों में है शाहीन बाग, चलो देख कर आते हैं क्या हो रहा है वहां.
कई बार फेक वीडियोज की वजह से अफवाह भी उड़ जाती है. एक दिन यह अफवाह उड़ गई कि पुलिस आंदोलनकारियों को खदेड़ने आ रही है. सब लोग शाहीन बाग पहुंचो. लोग उग्र हो गए कि पुलिस फिर आ गई. ऐसे में अनाउंसमैंट कराया गया कि कृपया अफवाहों पर ध्यान न दें, अफवाहें आंदोलन को कमजोर कर सकती हैं. कई लोगों ने शाहीन बाग से फेसबुक लाइव दिखाया कि यहां सब ठीक है.
आंदोलनकारियों को दुख है कि सरकार की तरफ से कोई नुमाइंदा मिलने नहीं आया. बात करने नहीं आया. यहां लोग सरकार द्वारा दिए गए अलगअलग बयानों से कन्फ्यूज्ड हैं. इसलिए कुछ नहीं कहा जा सकता कि यह आंदोलन कब तक चलेगा. महिलाएं पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.
एक जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने आंदोलन एरिया को खाली करने के प्रयास करने की पुलिस को सलाह दी. पुलिस ने इस सिलसिले में प्रोटैस्टर्स (आंदोलनकारियों) से बातचीत करनी शुरू कर दी है. लेकिन आंदोलन में बैठी महिलाएं आंदोलन खत्म करने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में यह आंदोलन सड़क से किसी पार्क या अन्य स्थान पर शिफ्ट होता है या यह संघर्ष अपने स्थल पर ही जारी रहता है, यह देखना होगा.
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न वोट की न नोट की यह लड़ाई है चोट की
दिल्ली का शाहीन बाग इलाका सीएए और एनआरसी के विरोध का केंद्र बन चुका है. कोई आजादी का नारा लगा रहा है तो कोई पोस्टरबैनर ले कर मंच के सामने खड़ा है. ताज्जुब तो इस बात का है कि ठंड के बावजूद बुरका पहने औरतें अपने छोटे बच्चों को ले कर आंदोलन में बैठी हुई हैं. मर्र्द उन की हिफाजत में इधरउधर खड़े हैं.
जब हम शाहीन बाग पहुंचे तो देखा कि मेन सड़क पर पुलिस की गाडि़यां खड़ी थीं. कुछ पुलिस वाले मूंगफली का मजा ले रहे थे तो कुछ कमांडो टाइप पुलिस वाले गन ले कर तैनात थे. गाड़ी को बाहर ही पार्क कर दिया और वहीं एक पुलिस का बैरिकेड लगा हुआ था. उसे पार करने के बाद लगभग 30 मीटर दूर दूसरे बैरिकेड तक पहुंचे तो वहां मौजूद कुछ युवाओं ने कहा कि इधर से नहीं जा सकते. मंच तक जाना है तो कालोनी की तरफ से जाइए. जब कालोनी की तरफ गए तो अच्छीखासी बिल्डिंगें, पक्की सड़क, गाडि़यां यानी सारी सुखसुविधाएं शाहीन बाग में आप को मिल जाएंगी. कालोनी से होते हुए मंच के पास पहुंचे तो आसपास की सारी दुकानें बंद थीं.
गाजियाबाद से आए एक शख्स मंच पर भाषण दे रहे थे कि न वोट की खातिर न नोट की खातिर, हम तो चोट के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. इतने में औरतों और मर्दों की तालियों की गड़गड़ाहट होने लगती है. तालियों की आवाज समाप्त होते ही मीडिया को आडे़हाथों लेते हुए वे शख्स बोले कि मीडिया आज बिक चुका है और सही चीज को सामने नहीं ला रहा है.
फिर आंदोलन में आईं हिना कौसर ने बताया, ‘‘सरकार सीएए और एनआरसी को ले कर धर्म के आधार पर जो भेदभाव कर रही है वह बरदाश्त नहीं. यह संविधान के खिलाफ है.’’
वहीं मोहम्मद राशिद कहते हैं, ‘‘सरकार सामाजिक मुद्दों पर बात ही नहीं कर रही है. बेरोजगारी की समस्याएं विकराल होती जा रही हैं, भुखमरी से लोग मर रहे हैं, प्रदूषण बढ़ रहा है पर सरकार का ध्यान इस तरफ है ही नहीं.’’ तभी बीच में रफी अहमद बोल पड़ते हैं, ‘‘सरकार तो पाकिस्तान की बात करती है जिस का हिंदुस्तान से कोई मुकाबला है ही नहीं. पाकिस्तान हमारे सामने कुछ भी नहीं है. उस से मुकाबला कर सरकार हिंदुस्तान की ही बेइज्जती कर रही है.’’ तब तक शाहनवाज गुस्से से कहते हैं, ‘‘ये तो इतिहास बनाना चाहते हैं कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान को आजादी दिलाने में इन की अहम भूमिका रही थी. इन की सोच हिटलरवादी और फासीवादी है. इस आंदोलन के बाद ये समझ गए हैं कि अब इन की सत्ता नहीं रहने वाली है.’’
बगल में बहुत देर से खड़े मेहताब अली से रहा नहीं गया और बोल पड़े, ‘‘सीएए का मतलब है दूसरे के बच्चों को गोद लेना और एनआरसी का मतलब है कि आप अपने ही बच्चों से पूछेंगे कि तेरा बाप कौन है.’’
इतनी देर में मैं भीड़ से चारों तरफ से घिर चुका था, तभी गुस्से से उबलते हुए उसी भीड़ के पीछे से निकलते हुए एक व्यक्ति सामने आ गए. नाम पूछने पर उन्होंने अपना नाम शमीम अहमद बताया.
उन्होंने कहा, ‘‘महंगाई चरम पर है. इस पर सरकार का ध्यान नहीं है. अब तो वह इन के खिलाफ बोलने वालों को जिंदा दफन करने की बात कर रही है. यह सरकार की कैसी मानसिकता है. जहां तक नागरिकता की बात है, तो आप नागरिकता दीजिए न, रोका किस ने है, इस में बिल लाने की क्या जरूरत है?’’
तभी मूंगफली चबाते एक शख्स इंग्लिश में बोलने लगे, फिर हिंदी में आ गए. वैसे तो खुशमिजाज लग रहे थे लेकिन गुस्सा चेहरे पर झलक रहा था. नाम पूछने पर अपना नाम करीम खान बताया. उन्होंने कहा, ‘‘यह रास्ता कभी नहीं खुलना चाहिए. अब कोई भी कौंप्रोमाइज नहीं. आप इसराईल चले जाइए. 100-150 मील से लोग यूटर्न ले कर आते हैं. यह तो कुछ भी नहीं है.’’ वहीं खड़े एक युवा ने बताया, ‘‘कालिंदी कुंज – नोएडा रोड को केवल बदनाम किया जा रहा है कि इस से आवाजाही में दिक्कत हो रही है. अगर आंदोलन की वजह से यह सड़क बंद है तो पुलिस के पास दूसरा औप्शन भी है, जो रोड पुलिस ने ओखला बर्ड सैंचुरी से बंद कर रखी है. उस सड़क को खोल दे, वह क्यों बंद कर रखी है. वह तो मीठापुर, अलीगांव होते हुए बदरपुर और मथुरा रोड से मिलती है.’’ हालांकि, यह सच है कि सड़क बंद होने से फरीदाबाद से आने वाले यात्रियों को नोएडा या ग्रेटर नोएडा का सहारा लेना पड़ता है. दूसरा रास्ता डीएनडी रूट है जिस का इस्तेमाल साऊथ और बाहरी दिल्ली से जाने वाले लोगों को करना पड़ रहा है. तीसरा रास्ता मदनपुर खादर गांव के पीछे की तरफ बनी पुलिया है जहां से लोग फिलहाल सब से ज्यादा आतेजाते हैं, और इस संकरे रास्ते में फिलहाल दिक्कत है.’’
करीम खान फिर से बोल पड़े, ‘‘कोई जा कर मंच पर बोलो यार, मोदी के आगे जी न लगाएं.’’ बता दें कि मंच से 2-3 बार किसी ने मोदीजी कर के संबोधन किया था. इसी बीच किसी ने कह दिया कि वे तो हिटलर वाली सोच रखते हैं. तभी गुस्से से उबल रहे करीम खान उस पर भड़क उठे, ‘‘काहे का हिटलर, हिटलर तो फिर भी स्मार्ट था और यह तोस्मार्ट भी नहीं है.’’
करीम खान रुक ही नहीं रहे थे. तभी जेब में हाथ डाले इरफान आलम बोल पड़े, ‘‘यहां तो सच बोलने वालों को आतंकवादी कहा जा रहा है.’’ तभी 2-4 युवा वहां आए और हम लोगों को आगे बढ़ जाने के लिए कहा क्योंकि वहां कारपेट बिछाया जा रहा था ताकि पैकेट बंद बिरयानी परोसी जा सके. भीड़ वहां से छंट गई और हम मंच की तरफ बढ़ चले, जहां एक शख्स अनिल कपूर की फिल्म ‘मेरी जंग’ का एक गीत गा रहे थे, ‘जीत जाएंगे हम तुम अगर संग हो, जिंदगी, हर कदम, इक नई जंग है…’ पर ये लोग जंग जीत पाएंगे या नहीं,? फिलहाल यह तो वक्त के पाले में है.
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे…
उपरोक्त नज्म उर्दू के विख्यात शायर फैज अहमद फैज द्वारा लिखी गईर् है. 1979 में पाकिस्तानी तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासन के खिलाफ लिखी गई यह नज्म 1981 में प्रकाशित हुई, जिस के बाद इस ने पाकिस्तान में हलचल मचा दी. जिया उल हक ने इस नज्म पर पाबंदी लगा दी थी, साथ ही औरतों के साड़ी पहनने और फैज की नज्म गाने पर भी. 13 फरवरी, 1986 में लाहौर के अलहमरा औडिटोरियम में गायिका इकबाल बानो ने जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ काली साड़ी पहन इस नज्म को गाया था तो देश के युवा तानाशाही हुकुमत के खिलाफ उठ खड़े हुए थे.
सीएए और एनआरसी का विरोध कर रहे छात्र व अन्य आंदोलनकारी अब इस नज्म को गा रहे हैं और प्रशासन को बता रहे हैं कि हम देखेंगे, लाजिम है कि हम देखेंगे.
(यह तसवीर शाहीन बाग की है जिस में कागज की अनेक नावों को मिला कर बड़ा दिल बना हुआ है. यहां ‘हम देखेंगे’ लिखा था. बगल में ही एक छोटी तोप रखी हुई है. एक युवा ने बताया कि यह तोप नाजिम यानी तानाशाह है जो कभी भी इस दिल को छलनीछलनी कर सकती है.)